Saturday, April 27, 2024

क्या पश्चिमी प्रभु वर्ग में पड़ गई है फूट?

टकर कार्लसन की पहचान एक धुर दक्षिणपंथी पत्रकार की रही है। उन्हें लोकप्रियता अपने धुर दक्षिणपंथी एजेंडे के लिए चर्चित फॉक्स न्यूज चैनल का एंकर रहते हुए मिली। वे डॉनल्ड ट्रंप के समर्थक रहे हैं। राजनीति में ट्रंप के उदय और उनके पूरे राष्ट्रपति काल में उन्हें ट्रंप के प्रचारक के तौर पर देखा जाता था। वे उन्हीं सामाजिक मूल्यों के प्रवक्ता के तौर पर जाने जाते हैं, जिनको लेकर अमेरिका में बीते दशक में श्वेत चरमपंथी और प्रतिक्रियावादी ताकतों ने मजबूत ध्रुवीकरण किया है।

इसीलिए पिछले वर्ष अप्रैल में तब बहुत से लोग चौंक गए, जब ये खबर आई कि फॉक्स न्यूज ने उन्हें हटा दिया है। बाद में एक इंटरव्यू में खुद कार्लसन ने यह बताया कि फॉक्स न्यूज से उन्हें बहुत अपमानित कर हटाया। एक रोज जब वे अपना बहुचर्चित कार्यक्रम करने पहुंचे, तो उन्हें बताया कि उनकी नौकरी जा चुकी है। ऐसा क्यों हुआ, यह अमेरिका में गहरे अटकल का विषय रहा है। क्या फॉक्स न्यूज अब अलग राजनीतिक लाइन लेने जा रहा है, इस सवाल पर तब खूब चर्चा हुई थी। बहरहाल, स्पष्ट रूप से ऐसा तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन यह सच है कि कार्लसन के जाने के बाद इस चैनल की दर्शक संख्या में भारी गिरावट आई है। 

उधर कार्लसन ने नई नौकरी ढूंढने के बजाय- टकर कार्लसन नेटवर्क (टीसीएन) नाम से अपना मीडिया उद्यम लॉन्च कर दिया। वे तब से एक्स (पहले जो ट्विटर था) पर अपना कार्यक्रम चलाते हैं, जिसे अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर भी डाला जाता है। इन सबको मिला कर कार्लसन को फॉक्स न्यूज की तुलना में कहीं ज्यादा दर्शक मिल जाते हैं। इस तरह वे अमेरिका में आज भी एक ऐसी आवाज बने हुए हैं, जिन्हें जिसे नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं है। जटिलता वैज्ञानिक (complexity scientist) पीटर टर्चिन ने कुछ समय पहले एक इंटरव्यू में कार्लसन को अमेरिका के लिए सबसे खतरनाक शख्सियतों में एक बताया था। जाहिर है, टर्चन की सहानुभूति उदारवादी लोकतंत्र के साथ है, जिस नजरिए के खिलाफ कार्लसन मोर्चा संभाले रहते हैं।  

मगर अपना नेटवर्क शुरू करने के बाद से कार्लसन के रुख में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला है। अब वे उनमें से कई संवेदनशील मुद्दों पर अमेरिकी प्रभु वर्ग के बीच मौजूद आम राय के खिलाफ अपनी राय जताते सुने जाते हैं। मसलन, वे अब इस सदी के अमेरिकी युद्धों- अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया और यूक्रेन- में अमेरिकी विफलताओं की खुलकर चर्चा करते हैं। साथ ही उन युद्धों में हुए व्यापक विनाश का भी जिक्र करते हैं। इसी तरह वे अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान पर वहां के प्रभु वर्ग के वर्चस्व और आम जन के हितों से उसके अंतर्विरोध की चर्चा करते हैं। इस बीच वे ट्रंप के समर्थक बने हुए हैं और ट्रंप के ही अंदाज में राष्ट्रपति जो बाइडेन, डेमोक्रेटिक पार्टी, कांग्रेस (अमेरिकी संसद) आदि की कार्यप्रणाली पर निशाना साधते हैं। 

इस परिवर्तन को किस रूप में समझा जाए? यह प्रश्न पहले से मौजूद था। मगर अमेरिका के बाहर इसमें अपना सिर खपाने की जरूरत शायद ही महसूस की जाती थी। लेकिन पिछले दिनों की घटनाओं ने कार्लसन को अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बना दिया है। अचानक यह खबर चर्चित हुई कि कार्लसन मास्को पहुंच गए हैं। 

अंतरराष्ट्रीय मीडिया में कयास लगाए जाने लगे कि क्या वे वहां रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन का इंटरव्यू लेने गए हैं। 24 फरवरी, 2022 को यूक्रेन में रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू होने के बाद से पश्चिमी प्रोपेगैंडा मशीन ने पुतिन को खूंखार खलनायक के रूप में पेश कर रखा है। पश्चिमी सत्ता प्रतिष्ठान, थिंक टैंक, मेनस्ट्रीम मीडिया- सब इस मशीन के पुर्जे हैं। यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से पुतिन के किसी वक्तव्य को वहां के मीडिया में उसी रूप में पेश नहीं किया जाता, जैसा पुतिन का मंतव्य होता है। यानी इसे तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है। रूसी मीडिया को पश्चिमी देशों ने तब से प्रतिबंधित कर रखा है। इसलिए पश्चिमी मीडिया पर निर्भर लोगों को यूक्रेन युद्ध और उससे संबंधित घटनाक्रमों के बारे में एकतरफा, अतिशोयक्तिपूर्ण और भ्रामक सूचनाएं ही मिलती रही हैं।  पश्चिमी सोच में पुतिन आज एक अछूत और पराया व्यक्ति हैं। 

ऐसे में कार्लसन का मास्को जाना एक सनसनीखेज घटना बन गई। रूसी मीडिया में उनके मास्को पहुंचने को खूब अहमियत दी गई। उनके बारे में वहां पल-पल कवरेज होने लगा। जाहिर है, रूसी सत्ता प्रतिष्ठान ने इसे पश्चिमी खेमे में सेंध लगाने के एक मौके के रूप में देखा। इसी बीच पुष्टि हुई कि कार्लसन सचमुच पुतिन का इंटरव्यू करने गए हैं। और छह फरवरी को कार्लसन ने वो बहु-प्रतीक्षित इंटरव्यू अपने नेटवर्क पर डाल दिया। दो घंटे सात मिनट का यह इंटरव्यू तब से दुनिया भर में चर्चित बना हुआ है। सिर्फ कार्लसन के ट्विटर हैंडल पर इसे लगभग 20 करोड़ लोग देख चुके हैं।

स्वाभाविक है कि पश्चिमी नेता और मीडिया कार्लसन पर टूट पड़े हैं। कार्लसन की यह कह कर आलोचना की गई है कि इंटरव्यू के दौरान उन्होंने पुतिन को अपनी बात रखने का पूरा अवसर दिया। इससे पुतिन को अपना “एजेंडा” प्रचारित करने का मौका मिल गया। इससे पुतिन को “झूठ” फैलाने का मौका मिला। इस इंटरव्यू से अमेरिका की पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन इतनी भड़कीं कि उन्होंने कार्लसन को useful idiot करार दिया। ह्वाइट हाउस ने लोगों से कहा कि वे पुतिन की बातों पर यकीन ना करें। यूरोपीय नेताओं की भी ऐसी ही व्यग्र टिप्पणियां सामने आई हैं। 

जबकि पुतिन ने वे परिस्थितियां बताईं, जिनकी वजह से वे यूक्रेन में विशेष सैनिक कार्रवाई करने के लिए विवश हुए। इस युद्ध के कारण बनी विश्व परिस्थितियों, इससे पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए खड़ी हुई अभूतपूर्व चुनौती और नई बनती दुनिया में चीन की महत्त्वूपर्ण भूमिका की चर्चा उन्होंने की। ये वो बातें हैं, जो पुतिन लगातार कहते रहे हैं। लेकिन पश्चिमी प्रोपेगैंडा मशीन ने अपनी सुविचारित सेंसरशिप नीति के कारण उनके पक्ष से अपने श्रोता-दर्शक वर्ग को वंचित रखा है। इसी क्रम में उसने खुद पर निर्भर तमाम लोगों को नई ठोस परिस्थितियों की जानकारी से दूर यानी अंधेरे में रखा है। यही बात फिलस्तीन में इजराइली नरसंहार और उसमें अमेरिका एवं ज्यादातर यूरोपीय देशों के सक्रिय योगदान के मामले में भी लागू होती है।

बहरहाल, यहां सवाल महत्त्वपूर्ण यह है कि कार्लसन ने ये इंटरव्यू क्यों किया? कुछ लोगों ने कयास लगाया है कि यह पहल अमेरिकी धुर दक्षिणपंथ की प्राथमिकताओं के अनुरूप की गई। कहा गया कि जिस तरह 1970 के दशक के आरंभ में हेनरी किसिंजर ने चीन को अमेरिकी खेमे के करीब लाकर तत्कालीन सोवियत संघ को अलग-थलग कर देने की नीति अपनाई थी, उसी तरह अब रूस को चीन से अलग करने की रणनीति अपनाने को सोचा जा रहा है। मकसद यह है कि रूस को फिर से पश्चिम के करीब लाकर चीन को अकेला कर दिया जाए, जिससे उसका मुकाबला करना आसान हो जाएगा। मगर इंटरव्यू में पुतिन ने जो बातें कहीं, उससे तनिक भी संकेत नहीं मिलता कि ऐसे किसी एजेंडे को पूरा करने में कार्लसन को सफलता मिली। 

तो फिर इस घटनाक्रम का एक दूसरा कोण भी चर्चित हुआ है। कहा गया है कि कार्लसन अमेरिकी प्रभु वर्ग में पड़ती फूट के एक प्रतिनिधि हैं। यह सवाल बहुचर्चित है कि क्या दुनिया में गिरती अपनी हैसियत और अपने-अपने देशों में बढ़ते आर्थिक संकट के कारण पश्चिमी प्रभु वर्ग में फूट पड़ गई है। क्या कार्लसन का बदला चेहरा अमेरिकी प्रभु वर्ग में पड़ी फूट का संकेत है। 

ऐसे कुछ दूसरे संकेत भी उपलब्ध हैं। जैसे कि हाल ही में ब्रिटिश प्रभु वर्ग के अखबार द गार्जियन ने एक रिपोर्ट छापी, जिसमें यह बताया गया कि किस तरह अमेरिकी टीवी चैनल सीएनएन ने गजा में फिलस्तीनियों के कत्ल-ए-आम पर परदा डालने और इजराइल के पक्ष से खबरें देने की नीति सुनियोजित रूप से अपना रखी है। पश्चिमी प्रभु वर्ग में इजराइल को हर हाल में समर्थन देने पर पूर्ण आम सहमति रही है। यह नहीं भूलना चाहिए कि लेबर पार्टी के तत्कालीन सोशलिस्ट नेता जेरेमी कॉर्बिन के खिलाफ मुहिम चलाने में द गार्जियन भी शामिल था। इस मुहिम में यह झूठा प्रचार गढ़ा गया था कि कॉर्बिन यहूदी विरोधी (anti- semitic) हैं। अब तक anti- sigmatism एक ऐसा आरोप है, जिससे पश्चिम में किसी की भी छवि नष्ट की जा सकती है।

लेकिन अब बुनियादी किस्म के मुद्दों पर भी पश्चिमी मीडिया का अलग रुख सामने आ रहा है। अमेरिका का धुर दक्षिणपंथी मीडिया यूक्रेन युद्ध में लगाए जा रहे संसाधनों को बर्बादी बता रहा है। ना सिर्फ मीडिया, बल्कि अमेरिकी कांग्रेस में रिपब्लिकन पार्टी ने यूक्रेन के लिए नई मदद से संबंधित प्रस्ताव को काफी समय से रोक रखा है। फिलहाल, अमेरिका में इजराइली नरसंहार को समर्थन देने पर सहमति कायम है, लेकिन यूरोप में मीडिया और सत्ता प्रतिष्ठान का एक हिस्सा अब इस नीति पर सवाल उठाने लगा है। यहां ये गौरतलब है कि इतने लंबे इंटरव्यू में आज के सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय सवाल- इजराइली नरसंहार पर विस्तार से बात करने की जरूरत कार्लसन ने नहीं समझी। 

अगर प्रभु वर्ग में फूट पड़ने की बात में दम है, तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे। पीटर टर्चिन ने अपनी किताब में बताया है कि राजनीतिक व्यवस्थाएं जब प्रभु वर्ग के सभी हिस्सों को समाहित कर चलने में नाकाम होने लगती हैं, तो संबंधित समाज या देश विघटन की राह पर चल निकलता है। टर्चिन के मुताबिक अमेरिका में इस तरह के संकेत उभरने के संकेत मिल रहे हैं। संभव है कि जिस टकर कार्लसन को उन्होंने एक खतरनाक शख्सियत बताया है, वो भी अब इसका एक संकेत बन गए हों! 

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।) 

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