मेरी नजर में बांग्लादेश में जो हुआ, वह एक विद्रोह और जनांदोलन था। जिसके केंद्र में चुनी हुई (कहने के लिए) तानाशाही का खात्मा और लोकतंत्र की पुनर्स्थापना था। ऐसे जनांदोलन में दक्षिणपंथी शक्तियां, विदेश शक्तियां और अपराधी अपनी-अपनी रोटी सेंकते हैं। वहां भी ऐसा हुआ। लेकिन मुख्य रूप से यह छात्रों के नेतृत्व में जनता के अन्य हिस्सों का विद्रोह और जनांदोलन ही था। जो नए किस्म की राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था के निर्माण का स्वप्न लिए हुए है।
सवाल यह है कि बांग्लादेश की अवाम को यह रास्ता क्यों अख्तियार करना पड़ा?
आर्थिक कारण:
बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था शेख हसीना के काल में तेजी से विकसित हुई। प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी। गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या भी गिरी। मानव विकास सूचकांक में बांग्लादेश की स्थिति बेहतर भी हुई।
लेकिन सब के बावजूद भी शेख हसीना के काल में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था की कुछ बुनियादी कमियां और कमजोरियां भी सामने आईं। वे निम्न हैं-
1-बांग्लादेश में बड़े-बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण हुआ। हाईवे बने, पुल बने, मेट्रो परियोजनाएं शुरू हुईं। हवाई अड्डे बने। निर्यात के सेंटर बने। कंट्रक्शन के बडे़-बड़े अन्य काम हुए। लेकिन दूसरी तरफ बांग्लादेश के सामान्य सड़कों की हालात बद से बदतर होती गई। मेट्रो बन रही थी, लेकिन सामान्य यात्रियों और सामान्य गाड़ियों का रेल नेटवर्क बद से बदतर होता गया। ढाका के बाद सबसे बड़े शहरों में एक चटगांव तक को जोड़ने वाली सड़कों पर गड्ढों की भरमार है। मतबल ऊपरी कमाऊ ढांचा खूब विकसित हुआ, जिसके ठेके बड़ी-बड़ी कंपनियों को मिले। लेकिन बहुसंख्यक सामान्य लोगों के लिए जिस ढांचे की जरूरत थी, वह बद से बदतर होता गया। यही चीज आप अपने देश में भी देख सकते हैं।
2- सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य को करीब-करीब इग्नोर (उपेक्षा) कर दिया गया। साक्षरता तो बढ़ी, लेकिन गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा बद से बदतर होती गई। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की हालत जर्जर होती गई। पिछले 10 सालों में भारत भी इसी ओर बढ़ा है।
3- बांग्लादेश में एक क्रोनी कैपिटलिज्म विकसित हुआ। जिसमें कुछ पूंजीपतियों, बैंकों और राजनीतिज्ञों के बीच गठजोड़ कायम हुआ। ऐसे पूंजीपतियों को अंधाधुंध बैंक से लोन मिला। इन लोगों ने बैंक का पैसा नहीं चुकाया है। ऐसा लोगों का डिफाल्ट होना बढ़ता गया। इन्हें एनपीए किया जाता रहा, दूसरी ओर कुछ पूंजीपतियों की जेब भरती गई। शेख हसीना के करीब 15 वर्षों के शासन काल में यह बढ़कर करीब डेढ़ लाख करोड़ से अधिक हो गया।
4- क्रोनी कैपिटलिज्म से पैसा बनाने वाले पूंजीपतियों ने अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा विदेशों में निवेश करना शुरू कर दिया। यह निवेश साल-दर-साल बढ़ता गया। भ्रष्टाचार के सारे रिकॉर्ड टूट गए।
5- जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय तो बढ़ती गई, लेकिन विकास मॉडल धीरे-धीरे कम से कम रोजगार सृजन वाला बनता गया। बेरोजगारी बढ़ने लगी।
राजनीतिक सबक:
यह सच है कि बांग्लादेश में उसकी मुक्ति (1971) के बाद ही लोकतंत्र किसी न किसी तरह संकटग्रस्त होता रहा है। सैनिक तानाशाही कायम होती रही है।1991 में एक बड़े जनांदोलन ने सैनिक तानाशाह इरशाद को सत्ता से हटाकर फिर से लोकतंत्र कायम किया था। बांग्लादेश की दोनों बड़ी पार्टियां ‘अवामी लीग’ (शेख हसीना) बांग्लादेश नेशनलिस्ट शासन सत्ता में आती-जाती रहीं।
शेख हसीना जब द 2009 में सत्ता में आईं तो उन्होंने एक राजनीतिक स्थिरता भी कायम की। धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में मजबूती से खड़ी हुईं। ‘जमात-ए-इस्लामी’ जैसे कट्टरपंथी तत्वों से कोई समझौता न कर उनसे कड़ाई से निपटीं। एक मजबूत और स्थिर लोकतंत्र की तरफ बढ़ते बांग्लादेश की नींव डालते दिखीं। बांग्लादेश आर्थिक विकास के पथ पर भी तेजी से बढ़ा।
लेकिन जैसे-जैसे उनका कार्यकाल बढ़ता गया, वह एक-एक करके लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने लगीं। इसके निम्न उदाहरण हैं-
1-2014, 2018 और 2024 के आम चुनावों को सारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को किनारे लगाकर जीतने की कोशिश की। जीतीं भी। खासकर 2018 और 2024 के चुनाव।
2- उन्होंने चुनाव आयोग को अपने हाथ की कठपुतली बना लिया।
3- उन्होंने संसद को मनमानी करने का केंद्र बना लिया। सारी संसदीय प्रक्रिया और मर्यादा को किनारे लगाकर मनचाहा संविधान संसोधन और कानून बनाने लगीं।
4- बांग्लादेश के संविधान में यह प्रावधान था कि जब कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर लेती है, जो अगले चुनाव से पहले उसे इस्तीफा देना पड़ता था। एक स्वतंत्र कार्यकारी सरकार का गठन होता था, जिसकी देख-रेख में चुनाव होता था। वह सरकार किसी पार्टी की नहीं होती थी। यह प्रावधान स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए किया गया था।
शेख हसीना ने मनमाने तरीके से संविधान में संशोधन करके इस व्यवस्था को खत्म कर दिया। खुद की सरकार के देख-रेख में ही चुनाव कराने का निर्णय लिया।
5- शेख हसीना ने विपक्षी पार्टियों को लोकतंत्र के एक जरूरी हिस्से की जगह अपने दुश्मन के रूप में देखना शुरू कर दिया। उनके सफाए के लिए काम करने लगीं। विपक्षी नेताओं के खिलाफ एक के बाद एक मुकदमा दर्ज होने लगा, उन्हें जेल भेजा जाने लगा।
बांग्लादेश में विपक्षी पार्टियों के नेताओं पर करीब 4 लाख से अधिक मुकदमे दर्ज हुए। हजारों राजनीतिक, नागरिक और सामाजिक कार्यकर्ता जेल भेज दिए गए। नोबेल प्राप्त अर्थशास्त्री मुहम्मद यूनुस (जिन्हें अभी अंतरिम सरकार का प्रमुख बनाया गया है) पर 171 मुकदमे दर्ज हुए। उन्हें जेल भी भेजा गया।
शेख हसीना से असहमत पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, संस्कृतकर्मियों और सिनेमा के लोगों पर मुकदमा दर्ज करना और जेल भेजना आम बात हो गई थी।
6- शेख हसीना ने मीडिया के एक हिस्से को क्रोनी कैपिटेलिज्म का पार्ट बना लिया। वे सिर्फ उनका गुणगान या चाटुकारिता करते थे।
7- अपने 15 वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने धीरे-धीरे लोकतंत्र के तीसरे महत्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका की स्वतंत्रता को पूरी तरह खत्म कर दिया। न्यायपालिका को करीब-करीब अपना टूल्स बना लिया। किसको जमानत देनी है, किसको नहीं देनी है, यहां तक कि सजा भी राजनीतिक आका के निर्देश और इशारे पर होने लगी। यह हाल नीचे से लेकर ऊपर तक की न्यायपालिका की हो चुकी थी।
8- सेना भी क्रोनी कैपिटलिज्म से बाहर नहीं रही। क्रोनी कैपिटलिज्म के चलते भ्रष्टाचार से जो कमाई शुरू हुई, उसमें सैन्य अधिकारियों ने भी अच्छी-खासी हिस्सेदारी की।
9- पुलिस करीब पूरी तरह से ‘अवामी लीग’ की राजनीतिक विंग बन गई। पिछले 7-8 वर्षों से अवामी लीग के किसी भी सदस्य के खिलाफ पुलिस थाने में मुकदमा दर्ज कराना नामुमकिन सा हो गया था। लेकिन अवामी लीग के सदस्य और कार्यकर्ता किसी को भी झूठे मुकदमे में फंसा सकते थे।
10- शेख हसीना ने सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र को ही खत्म नहीं किया। उन्होंने अपने पार्टी के भीतर भी लोकतंत्र को पूरी तरह खत्म कर दिया। पूरी पार्टी एक आदमी ( शेख हसीना) के हाथ की कठपुतली बन गई।
सार रूप में कहें तो सरकार, संसद, न्यायपालिका, मीडिया, पुलिस और शेख हसीना खुद की पार्टी अवामी लीग पर सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति के हाथ में चली गई। सारी शक्तियां उसी व्यक्ति (शेख हसीना) के हाथ में केंद्रित हो गईं।
राजनीतिक विपक्ष, नागरिक समाज, बुद्धिजीवी वर्ग, स्वतंत्र मीडिया, संस्कृत कर्मी और सिनेमा कर्मियों की आवाजें बंद कर दी गईं। जहां से भी असहमति की आवाज की कोई गुंजाइश थी, उस आवाज को दबा दिया गया, कुचल दिया गया।
राजनीतिक तौर पर स्थिति यह बनी कि शेख हसानी सिर्फ और सिर्फ अपनी आवाज ही सुनने की स्थिति में चली गईं। कोई दूसरी आवाज उनके कानों तक नहीं जा सकती थी।
आर्थिक प्रगति की रफ्तार एक हद तक बनी रही, हालांकि कोविड के बाद उसमें ठहराव आ गया था। आर्थिक प्रगति ने भी उनके अहंकार को बढ़ाया कि हमें कोई चुनौती नहीं दे सकता है। अपने आंतरिक कारणों और राज्य के दमन से पंगु हो चुका विपक्ष भी उन्हें कोई ताकतवर चुनौती देने की स्थिति में नहीं था। कट्टरपंथी राजनीतिक दल ‘जमात-ए-इस्लामी’ सांगठनिक तौर पर जितना भी ताकतवर रहा हो, लेकिन उसे भी जनता के बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त नहीं था।
ऐसे में शेख हसीना को सिर्फ और सिर्फ एक ही ताकत सत्ता से हटा सकती थी, वह कोई बड़े पैमाने का जनांदोलन। यह जनांदोलन जनवरी में उभरने लगा था, 7 जनवरी, 2024 को शेख हसीना की एकतरफा जीत के बाद। विपक्षी पार्टियों ने चुनाव नहीं लड़ा था। चुनाव की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर जनता के बडे़ हिस्से का विश्वास नहीं था। दुनिया ने भी इसको निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव नहीं माना था। भारत की बात छोड़ दीजिए। शेख हसीना और भारत के रिश्ते की कहानी फिर कभी। जनवरी में जो जनांदोलन बुलबुला बनकर उभरा, वह धीरे-धीरे बढ़ता गया।
इस आंदोलन की अगुवाई छात्र कर रहे थे। आंदोलन के साथ शेख हसीना ने एक तानाशाह की तरह निपटने की कोशिश की। उसे पहले पुलिस, फिर अर्ध सैनिक बल, फिर सेना और अपने राजनीतिक कार्यकर्ताओं (विशेषकर छात्र विंग) से कुचलने की कोशिश की। आंदोलन को रजाकारों (एक तरह के देशद्रोही) का आंदोलन कहकर बदनाम करने की कोशिश की। इस आंदोलन में अपनी रोटी सेंकने वाले कट्टरपंथियों को मुख्य बताकर इसे कट्टरपंथियों का आंदोलन साबित करने की कोशिश की।
लेकिन शेख हसीना की यह सब तरकीबें काम नहीं आईं। जब तक उनको अहसास होता कि आंदोलन देशव्यापी शक्ल ले चुका है, उनके हाथ से, नियंत्रण से बाहर हो चुका था। आंदोलन जन सैलाब बन चुका था, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उनके पास इस्तीफा देने और देश छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था। जनांदोलन को कुचलने की हिम्मत पुलिस और सेना में भी नहीं थी। उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए।
क्रोनी कैपिटलिज्म मॉडल का आर्थिक विकास, लोकतंत्र के खात्मे और एक व्यक्ति की तानाशाही ने जनता के पास विद्रोह और जनांदोलन के अलावा कोई रास्ता नहीं छोड़ा था। अगुवा की जरूरत थी, यह अगुवाई बांग्लादेश के छात्रों ने की।
भारत भी 2024 के हालिया लोकसभा चुनाव से पहले शेख हसीना टाइप की तानाशाही की ओर तेजी से बढ़ रहा था, एक व्यक्ति के हाथ में सारी सत्ता केंद्रित होती जा रही थी। 2024 के लोकसभा चुनावों में विपक्ष ने थोड़ा दम दिखाया, जनता के एक बड़े हिस्से ने उसका साथ दिया। चुनी हुई तानाशाही की प्रकिया, जो एक व्यक्ति की तानाशाही में बदल रही थी, उस पर थोड़ी लगाम लगी है, यह काम वोट से हुआ।
चाहे तानाशाही कोई भी हो आज नहीं तो कल उसके खिलाफ विद्रोह और जनांदोलन होता ही है, यदि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उसे रोका न जा सके।
(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और टिप्पणीकार हैं।)
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