Sunday, April 28, 2024

इजराइल के लिए इतनी बदनामियां क्यों मोल लेता है अमेरिका?

फिलिस्तीन के गाजा में इजराइली अत्याचार दीर्घकालिक नजरिए से अमेरिका के लिए बहुत महंगा साबित हो रहा है। खुद अमेरिकी विशेषज्ञों ने कहा है कि गाजा में बच्चों और महिलाओं समेत निहत्थे लोगों पर इजराइली हमले युद्ध अपराध की श्रेणी में आते हैं। अस्पताल और शरणार्थी शिविर जैसे स्थलों पर हमला कर इजराइल ने वहां मानवता के खिलाफ अपराध किए हैं। धारणा यह बन रही है कि इन तमाम अपराधों में अमेरिका सहभागी है। बावजूद इसके इजराइल को अमेरिका (बल्कि पूरे पश्चिम) के समर्थन में कोई कमी नहीं आई है। यहां तक कि हर विश्व मंच पर अमेरिका युद्ध-विराम की अति बुनियादी मांग तक को ठुकरा रहा है।

  • अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में युद्ध-विराम की मांग करने वाले प्रस्तावों को वीटो कर दिया।
  • संयुक्त राष्ट्र महासभा में उसने ऐसे ही एक प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया, जबकि जॉर्डन की पहल पर लाए गए उस प्रस्ताव के पक्ष में 120 देशों ने वोट डाले।
  • टोक्यो में हुए जी-7 देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में युद्ध-विराम की मांग को एक बार फिर ठुकराया गया, हालांकि वहां अमेरिका ने मानवीय सहायता पहुंचाने के लिए कुछ समय तक रोज युद्ध रोकने की वकालत जरूर की।
  • फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने पेरिस में गाजा निवासियों को सहायता पहुंचाने के घोषित उद्देश्य से एक बैठक का आयोजन किया। वहां भी युद्ध-विराम की मांग को पश्चिमी देशों ने ठुकरा दिया। अमेरिकी प्रतिनिधि ने वहां यह सूचना जरूर दी कि इजराइल मानवीय सहायता पहुंचाने के लिए रोज चार घंटों तक युद्ध रोकने पर सहमत हो गया है।
  • अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश अपने इस आरंभिक रुख पर अड़े हुए हैं कि इजराइल गाजा में जो कर रहा है, वह आत्म-रक्षा की कार्रवाई है।
  • इन देशों का रुख है कि फिलिस्तीन संगठन हमास के समूल विनाश तक इजराइल की कार्रवाई जारी रहनी चाहिए। 

मगर बाकी दुनिया- खासकर विकासशील देश समस्या को अलग नजरिए से देख रहे हैं। उन्होंने बेलगाम इजराइली हमलों को गाजा में नस्लीय आधार पर फिलिस्तीनियों के सफाये, उस इलाके को खाली कराने, और उस पर कब्जा जमाने की इजराइली परियोजना का हिस्सा माना है। इसीलिए वहां बन रहे हालात को नकबा 2.0 कहा जा रहा है। (नकबा 1948 में फिलिस्तीनियों को जबरन बेदखल कर उनकी जगह पर इजराइल की स्थापना करने की कार्रवाई को कहा गया था। इस शब्द का अर्थ है महाविनाश।) यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि गाजा में इजराइली हमलों ने नारकीय स्थिति पैदा कर दी है

इन हालात से ना सिर्फ अरब और मुस्लिम जगत, बल्कि दुनिया के बाकी हिस्सों में भी बड़े पैमाने पर जन विरोध देखने को मिला है। नौ देश इजराइल से अपने राजनयिकों को वापस बुला चुके हैं। उधर खुद अमेरिका और यूरोपीय देशों की सड़कों पर उतर कर लाखों लोगों ने विरोध जताया है।

इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान यह बात जोर डाल कर कही गई है कि फिलिस्तीन में जो हो रहा है, उसके लिए अकेले इजराइल या वहां के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू दोषी नहीं हैं। बल्कि इसका उतना ही दोष अमेरिका और राष्ट्रपति जो बाइडेन के माथे पर जाता है। इस इल्जाम के पीछे एक बड़ी दलील यह है कि इजराइल गाजा और अन्य क्षेत्रों में जिन हथियारों का इस्तेमाल कर रहा है, उनमें ज्यादातर अमेरिका में निर्मित हुए हैं।

इस बीच गाजा में चल रही इजराइली कार्रवाई से पश्चिम एशिया में क्षेत्रीय युद्ध भड़कने की आशंकाएं लगातार गहराती जा रही हैं। लेबनान स्थित संगठन हिजबुल्लाह और इजराइल ने एक दूसरे के ठिकानों पर रॉकेट दागे हैं। हिजबुल्लाह के महासचिव सईद नसरुल्लाह कह चुके हैं कि हर व्यावहारिक रूप में हिजबुल्लाह आठ अक्टूबर को ही इस युद्ध में शामिल हो गया था। (सात अक्टूबर को इजराइल पर गाजा स्थित फिलिस्तीनी संगठन हमास के अभूतपूर्व हमलों के साथ युद्ध के ताजा दौर की शुरुआत हुई थी।)

उधर सीरिया में स्थित अमेरिकी ठिकानों पर हमले हुए हैं, तो उसके जवाब में अमेरिका ने सीरिया सरकार और ईरान से जुड़े ठिकानों को निशाना बनाया है। इराक स्थित संगठन इस्लामिक रेजिस्टैंस युद्ध में शामिल होने का एलान कर चुका है, जबकि यमन स्थित हूती समूह ने इजराइल की तरफ मिसाइलें दागी हैं। तो कुल सूरत यह है कि गाजा की स्थिति को लेकर एक क्षेत्रीय युद्ध के हालात बनते जा रहे हैं। मगर अमेरिका इस जोखिम को भी उठा रहा है।

जो बाइडेन की यह नीति खुद उनके प्रशासन में दरार डाल चुकी है। अमेरिका के विदेश मंत्रालय में हथियार सौदों के प्रभारी रहे अधिकारी और कांग्रेस (अमेरिकी संसद) की विदेश मामलों की समिति के निदेशक रह चुके पॉल जोश ने इस अमेरिकी नीति के विरोध में अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद उन्होंने अपने इस्तीफे की वजह बताते हुए उन्होंने एक लेख [Why I Resigned From the State Department (msn.com)] लिखा, जिसमें उन्होंने इस नीति की कड़ी आलोचना की।  

इस इस्तीफे के साथ ही यह खबर आई कि विदेश मंत्रालय में बाइडेन प्रशासन की नीति से असहमत वे अकेले अधिकारी नहीं हैं। बल्कि इस नीति से असहमति जताते हुए एक से अधिक पत्र तैयार किए गए हैं, जिन पर अधिकारियों और कर्मचारियों के दस्तखत लिए जा रहे हैं।

बाद में एक पत्र का मजमून एक वेबसाइट पर छपा (U.S. diplomats slam Israel policy in leaked memo – POLITICO), जिसमें चेतावनी दी गई कि अमेरिका दुनिया में अपना नैतिक बल गवां रहा है। इसी सिलसिले में आई एक खबर में (The Real Debate Over Israel Is Taking Place Behind Closed Doors – POLITICO) बताया गया कि इजराइल को हर हाल में समर्थन देने की नीति पर बाइडेन प्रशासन के अंदर तीखी बहस चल रही है।

आखिरकार अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने यह स्वीकार किया कि गाजा संकट पर बाइडेन प्रशासन की नीति को लेकर विदेश मंत्रालय के अंदर गहरे मतभेद हैं (Blinken acknowledges disagreements within State Department on Israel-Hamas war in email to staff | CNN Politics)। उन्होंने इस बारे में अपने मंत्रालय के कर्मचारियों को एक ई-मेल भेजा, जिसमें उन्होंने कहा-

“मैं आप लोगों में से अनेक को जानता हूं, जिन्हें वर्तमान संकट से जाती तौर पर पीड़ा हुई है। रोज इस संकट के कारण सामने आने वाली शिशुओं, बच्चों, बुजुर्गों, महिलाओं और अन्य नागरिकों की तस्वीरों को देखना हृदय विदारक है। मैं भी इसे महसूस करता हूं।” इसके बावजूद उन्होंने इस ई-मेल में बाइडेन प्रशासन की नीति का बचाव किया।

इसी बीच अमेरिका के ओमान स्थित दूतावास से आए एक कूटनीतिक संदेश की खबर ने अमेरिकी राजनयिक हलकों में खासी हलचल मचाई। उस संदेश (Biden administration privately warned by American diplomats of growing fury against US in Arab world । CNN Politics) में बताया गया कि इजराइल को अंध समर्थन देकर अमेरिका अरब देशों में अपने लिए व्यापक अलोकप्रियता अर्जित कर रहा है। इसमें यह भी कहा गया कि इन देशों में अमेरिका विरोधी भावना इतनी तीखी है कि एक पीढ़ी तक इसके मद्धम पड़ने की संभावना नहीं है।

तो प्रश्न है कि इतना सब होने के बावजूद अमेरिकी नीति क्यों बदल नहीं रही है? आखिर इजराइल से अमेरिका का लगाव इतना गहरा क्यों है, जिसके लिए वह हर जोखिम उठा रहा है? यह सवाल आज दुनिया में बहुत से लोगों के मन में है और इस पर खासी चर्चा भी हो रही है। तो आइए, इसे समझने की कोशिश करते हैं-

अमेरिका के इस लगाव के संभवतः दो आयाम हैं। इनमें एक का संबंध अमेरिका की अंदरूनी राजनीति से है। दूसरा अमेरिका की वर्चस्ववादी महत्त्वाकांक्षाओं से संबंधित है। इन महत्त्वाकांक्षाओं के नजरिए से देखें, तो कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस से समृद्ध पश्चिम एशिया पर नियंत्रण बरकरार रखना विश्वव्यापी अमेरिकी वर्चस्व के लिए निर्णायक महत्त्व का है।   

अमेरिका की अंदरूनी राजनीति में यहूदी लॉबी का प्रभाव वैसे तो आम तजुर्बे से भी जाहिर है, लेकिन इस पर अनेक किताबें भी लिखी गई हैं, जिनमें इस लॉबी की कार्य-प्रणाली का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस कार्य-प्रणाली के अध्येताओं में मशहूर अमेरिकी राजनीति-शास्त्री जॉन मियरशिमर और स्टीफन वेल्ट भी शामिल हैं। उन दोनों ने अपनी किताब इजराइल लॉबी एंड यूएस फॉरेन पॉलिसी में इस लॉबी के सामाजिक-राजनीतिक रसूख, उसकी कार्यप्रणाली, नीतियों को प्रभावित करने की उसकी ताकत और उसके परिणामों का विस्तार से उल्लेख किया था।

दोनों राजनीति-शास्त्रियों ने एक लेख [John Mearsheimer and Stephen Walt· The Israel Lobby: the Israel Lobby (lrb.co.uk)] में बताया हैः

  • यह लॉबी दो बड़ी रणनीतियों पर काम करती है। पहली रणनीति के तहत यह वॉशिंगटन में संसद और सरकार दोनों जगहों पर निर्णयों को प्रभावित करती है। किसी सांसद या नीति निर्माता की अपनी व्यक्तिगत राय चाहे जो हो, यह लॉबी संबंधित व्यक्ति को यह समझाने का प्रयास करती है कि इजराइल का समर्थन करना उसके लिए “बुद्धिमानी का फैसला” होगा।
  • इसका दूसरा प्रयास यह होता है कि सार्वजनिक विमर्श में इजराइल की सकारात्मक छवि बनी रहे। इस तहत इजराइल की स्थापना के बारे में भ्रामक बातों को लगातार दोहराया जाता है और नीति संबंधी बहसों में इजराइल समर्थक दलीलों को आगे बढ़ाया जाता है। लॉबी का प्रयास होता है कि इजराइल के लिए आलोचनात्मक बातों को राजनीतिक चर्चा में स्थान ना मिले। बहस पर नियंत्रण को यह लॉबी इजराइल के लिए अमेरिकी समर्थन को सुनिश्चित रखने के लिहाज से अनिवार्य मानती है, क्योंकि अगर तथ्य आधारित बहस हुई, तो संभव है कि अमेरिकी विदेश नीति कोई अन्य दिशा ले ले।

यहां दो बातें गौरतलब है- पहली यह कि अमेरिका में पॉलिटिकल लॉबिंग कानूनी है। इसके तहत सांसद घोषणा कर किसी लॉबी से जुड़ सकते हैं और उससे फीस ले सकते हैं। दूसरी यह कि अमेरिका में यहूदी समुदाय अत्यधिक धनी है। 63 लाख आबादी वाले इस समुदाय का एक बड़ा हिस्सा हिटलर के अत्याचार से बचने की कोशिश में जर्मनी से भागकर अमेरिका आया था। हिटलर के पतन के बाद उसकी नाजी परियोजना का हिस्सा रहे अनेक रसूखदार वैज्ञानिक और कारोबारी भी अमेरिका आ गए।

उनका बड़ा हिस्सा पहले इजराइल की स्थापना और फिर उसके प्रति अटूट सरकारी समर्थन के लिए जबरदस्त लॉबिंग में शामिल रहा है। चूंकि यह अत्यंत धनी समुदाय है, इसलिए राजनीतिक चंदा देने और चुनावी प्रचार में सहायक बनने की उसने ऐसी हैसियत बना रखी है, जिसकी उपेक्षा कर अमेरिकी राजनीति में कामयाब होना लगभग नामुमकिन माना जाता है।

इस समूह ने हिटलर के यहूदियों पर अत्याचार के कारण इस समुदाय से तब पैदा हुई सहानुभूति का लाभ उठाया। अपनी प्रचार शक्ति और मीडिया में अपनी गहरी पैठ के कारण तब से उसने इजराइल और यहूदी को समानार्थक रूप में पेश कर रखा है। नतीजतन, इजराइल के विरोध को यहूदी द्रोह या यहूदियों के प्रति नफरत (anti-Semitism) के रूप में वह पेश करने में सफल रहता आया है।

इस लॉबी की कामयाबी का एक बड़ा कारण यह भी है कि उसका मकसद और पश्चिम एशिया में अमेरिका के साम्राज्यवादी मकसद एक मिलन-बिंदु पर आकर एक दूसरे से जुड़ जाते हैं। दरअसल, इजराइल की स्थापना हो पाई, तो उसकी वजह यही थी कि उसे तत्कालीन साम्राज्यवाद का पूरा समर्थन मिला था। आरंभ में यह समर्थन ब्रिटेन से मिला, जो उस समय सबसे बड़ी ताकत था। प्रथम विश्व युद्ध में ओटोमन साम्राज्य के विखंडन के बाद पश्चिम एशिया को साम्राज्यवादी देशों ने मैंडेट व्यवस्था के तहत आपस में बांट लिया था। तभी उन्होंने यह जरूरी समझा कि वहां उनकी एक चौकी (आउटपोस्ट) होनी चाहिए। इजराइल तब से वैसी ही चौकी की भूमिका निभा रहा है।

दूसरे विश्व युद्ध के साथ ब्रिटिश साम्राज्य का पराभव हो गया और उसकी जगह अमेरिका ने ले ली। आज अमेरिका के लिए इजराइल की क्या अहमियत है, यह सत्ताधारी डेमोक्रेटिक पार्टी से जुड़े रहे और अब 2024 में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने का एलान कर चुके नेता रॉबर्ट केनेडी ने हाल में बताया। उन्होंने कहा– ‘अगर इजराइल खत्म हो गया, तो रूस और चीन का पश्चिम एशिया पर नियंत्रण हो जाएगा। दुनिया की 90 फीसदी तेल आपूर्ति पर उनका नियंत्रण हो जाएगा।’ अन्य अमेरिकी नेताओं की तरह केनेडी भी इजराइल के कट्टर समर्थक हैं। उन्होंने कहा कि इजराइल का ढहना अमेरिका के लिए प्रलय जैसी घटना होगी।

अमेरिकी अर्थशास्त्री माइकल हडसन ने एक इंटरव्यू [US Elites Need Middle East War to Preserve Regional Hegemony – Economist (sputnikglobe.com)] में कहा है- संभव है कि ताजा फिलिस्तीन-इजराइल संघर्ष अमेरिकी न्यूकॉन्स की मध्य-पूर्व (यानी पश्चिम एशिया) संबंधी बड़ी योजना का हिस्सा हो। यह संघर्ष अमेरिका की सीरिया और ईरान सहित पूरे निकट-पूर्व पर आक्रमण करने के प्रयास का बहाना हो सकता है।

न्यूकॉन्स (न्यू कंजरवेटिव्स) का मतलब उस सोच से जुड़े लोगों से है, जो पूरी दुनिया को अमेरिकी वर्चस्व में रखना चाहते हैं। वे अमेरिका को बाकी दुनिया से अलग- विशिष्ट (exceptional) देश मानते हैं। उनकी राय है कि अपनी इस विशेषता के कारण सारी दुनिया को अपने ढंग से संचालित करना अमेरिका का अधिकार है। नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था और चुनावी लोकतंत्र को वे अमेरिकी विशिष्टता की पहचान मानते हैं। उनकी राय में सारी दुनिया पर इन परिघटनाओं को थोपना एक सही मकसद है।

न्यू कंजरवेटिव आंदोलन 1960 के दशक में उभरा था। उस समय कम्युनिस्ट विचारधारा के दुनिया में प्रसार, कोरियाई युद्ध में अमेरिकी गुट की पराजय, वियतनाम युद्ध में अमेरिका की बढ़ती चुनौतियों, न्यू डील अर्थव्यवस्था, और सामाजिक खुलेपन की बढ़ती प्रवृत्ति से ईसाई मान्यताओं को मिल रही चुनौतियों के कारण अमेरिकी शासक वर्ग परेशान था। तब उसने अमेरिकी वर्चस्व की रक्षा और पारंपरिक ईसाई मान्यताओं तो दोबारा स्थापित करने में अपनी ताकत झोंकी।

इससे समर्थित वैचारिक गतिविधियों को न्यू कंजरवेटिव मूवमेंट कहा गया। आज माना जाता है कि अमेरिका की दोनों पार्टियों पर इसी विचार के लोगों का दबदबा है- उनमें अंतर सिर्फ सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर कुछ मतभेद तक सीमित रह गया है।

हडसन ने कहा- ‘वे (न्यूकॉन्स) सीरिया और ईरान का वही हाल करना चाहते हैं, जो उन्होंने इराक का किया था।’ यह सर्वविदित तथ्य है कि न्यूकॉन्स ने 9/11 के आतंकवादी हमलों की आड़ लेकर दुनिया में अमेरिका को चुनौती देने वाली हर आवाज को दबा देने का अभियान छेड़ दिया। अब सार्वजनिक हो चुके एक दस्तावेज के मुताबिक 9/11 के तुरंत बाद न्यूकॉन्स ने इराक, ईरान, लीबिया, लेबनान और सोमालिया पर हमले की योजना तब बनाई थी। उनमें से सिर्फ ईरान अभी तक सुरक्षित बचा हुआ है, जिसे 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से अमेरिका पश्चिम एशिया में अपने हितों के लिए खतरा मानता आया है।

हडसन ने कहा कि अमेरिकी नेतृत्व वाली “नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था” के ढहने के बाद दुनिया में सैनिकीकरण की गति तेज हो गई है। यह असल में नव-उदारवाद केंद्रित अर्थव्यवस्था से जुड़ा संघर्ष है, जिसमें अमेरिका अन्य देशों के ऊपर अपने वर्चस्व को कायम करने की कोशिश में जुटा हुआ है।

गौरतलब है कि हाल के वर्षों में पश्चिम एशिया में चीन और रूस दोनों का प्रभाव काफी बढ़ा है। स्वाभाविक रूप से इसे अमेरिका अपने लिए खतरा मानता है। यही बात दो टूक ढंग से रॉबर्ट कनेडी ने कही। ऐसे में पश्चिम एशिया में अपनी चौकी को अमेरिका किसी भी रूप में कमजोर नहीं होने देना चाहता। इसीलिए तमाम बदनामियां मोल लेकर वह इजराइल के पक्ष में इस हद तक खड़ा है कि युद्ध-विराम तक की मांग का वह विरोध कर रहा है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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