Saturday, April 27, 2024

चंद परिवारों में क्यों सिमटी भारत की राजनीति ?

चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने हाल में यह दिलचस्प बात कही कि गुजरे 30 वर्षों में बिहार में सिर्फ साढ़े पांच सौ परिवारों के सदस्य विधायक बने हैं। इन परिवारों के सदस्य विभिन्न दलों में आते-जाते रहते हैं और अलग-अलग पार्टियां उन्हें अपना उम्मीदवार बनाती हैं।

अगर इस बात को अन्य राज्यों एवं राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में देखें, तो हकीकत बिहार से ज्यादा अलग नहीं होगी। कुछ वर्ष पहले भारतीय राजनीति में वंशवाद की प्रवृत्ति पर एक महत्त्वपूर्ण-अध्ययनपरक किताब आई थी। Democratic Dynasties नाम की यह किताब सियासत में वंशवाद के प्रभाव को समझने के लिहाज से खासा मददगार है। उससे एक खास बात यह सामने आई कि सामाजिक न्याय या क्षेत्रीय स्वायत्तता की मांग करते हुए जो पार्टियां उभरीं, वे भी जल्द ही इस राजनीतिक परिघटना का शिकार हो गईं। दूसरी तरफ कम्युनिस्ट/वामपंथी पार्टियों में इसकी सबसे कम मिसालें मौजूद रही हैं। एक समय भारतीय जनता पार्टी भी काफी हद तक वंशवाद से मुक्त थी। लेकिन इस सदी में उसमें भी परिवारवाद की गहरी पैठ बनती चली गई है।

साल 2011 में अन्ना आंदोलन के समय यह बात चर्चा में आई थी कि भारतीय राजनीति में वैसे लोगों के लिए आगे बढ़ने के दरवाजे किस हद तक बंद हैं, जो बिना किसी सियासी पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं। उस समय एक समझ यह बनी थी कि अन्ना आंदोलन में सक्रिय हुई जमात में राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा रखने वाले ऐसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या है, जो अपने लिए उस समय मौजूद राजनीतिक दलों में संभावना नहीं देखते थे। ऐसे व्यक्तियों ने तब अपना अलग “उद्यम” खड़ा करने की कोशिश की और इस प्रयास में अनेक लोग कामयाब रहे। आम आदमी पार्टी और उससे जुड़े लोगों के लिए बना अवसर उसी प्रक्रिया का परिणाम समझा जाएगा। लेकिन आजाद भारत में यह पहला मौका नहीं था, जब एक राजनीतिक आंदोलन से राजनीति के नए “उद्यमी” उभरे हों।

एक अनुभव यह है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में हर राजनीतिक या सामाजिक आंदोलन के बाद ऐसे नए “उद्यमी” सामने आए। दूसरा अनुभव यह है कि जो “उद्यमी”- यानी नए नेता उभरे, उनमें से अधिकांश के परिजन भी राजनीति में सक्रिय हुए और हर बार राजनीति में प्रभावशाली परिवारों की संख्या में बढ़ोतरी हुई। तीसरा अनुभव यह है कि इन तमाम प्रक्रियाओं के बावजूद राजनीति में रसूख बना पाने वाले परिवारों की संख्या आज भी सीमित है, जैसाकि बिहार के उदाहरण से स्पष्ट होता है।

अब आइए, इस परिघटना पर थोड़ी और गहराई से ध्यान देते हैः

आजादी के बाद जब चुनावी लोकतंत्र को अपनाया गया, तो कांग्रेस देश में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। लगभग चार दशक तक उसकी ये हैसियत बनी रही। 1952 के चुनाव पर गौर करें, तो उस समय कांग्रेस में पहली पीढ़ी के नेताओं की भरमार थी। यानी वे नेता जो अपनी बदौलत राजनीति में आए थे। यहां यह उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता संग्राम एक विशाल और व्यापक जन आंदोलन था, जिसका प्रमुख रूप से कांग्रेस ने नेतृत्व किया था। तब कांग्रेस से जुड़ने का मतलब सत्ता का भोग नहीं, बल्कि बड़ा जोखिम उठाना था। इसलिए तब का कांग्रेस नेतृत्व कमोबेश आदर्शवादी व्यक्तियों का समूह था।

स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक दशकों में वंशवादी ताकत के रूप में अगर किसी की पहचान की जा सकती है, तो वे राजे-रजवाड़े थे, जिन्हें संवैधानिक गणतंत्र की स्थापना के साथ अपनी रिसायतें गंवानी पड़ी थी। उन ताकतों ने कुछ राज्यों में अपनी पार्टी बनाकर और कहीं तत्कालीन भारतीय जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी का आरंभिक संस्करण) या फिर स्वतंत्र पार्टी के साथ जुड़ कर चुनावी राजनीति में अपना दांव आजमाया। इस तरह दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक गुट वंशवाद के आरंभिक वाहक बने। किताब Democratic Dynasties में दिए गए विवरण इस बात की पुष्टि करते हैं।

लेकिन धीरे-धीरे कांग्रेस में वंशवाद की प्रवृत्ति बढ़ती चली गई। जिन नेताओं ने स्वतंत्रता संग्राम में अपने योगदान और आजादी के बाद संसदीय राजनीति में अपने प्रभाव के कारण अपनी “राजनीतिक पूंजी” बनाई थी, वे उसे अपने बेटे-बेटियों या अन्य परिजनों को हस्तांतरित करने लगे। चूंकि उन लोगों की राजनीति में अपनी खास पहचान थी और चुनावों में पहचान की खास अहमियत होती है, इसलिए ऐसे तत्वों को सफलता भी आसानी से मिली। यह पहलू तत्कालीन अन्य दलों या बाद में अस्तित्व में आई पार्टियों में भी जाहिर हुआ है।

अनुभव यह है कि आजादी के बाद नए लोगों के लिए राजनीति के द्वार सिर्फ बड़े आंदोलनों के जरिए खुले हैं। अगर कम्युनिस्ट संघर्षों को अलग कर दें, तो आजादी के बाद हुए लगभग तमाम बड़े आंदोलनों पर क्षेत्रीयतावादी या भाषाई-जातीय-सांप्रदायिक और दक्षिणपंथी रुझान हावी रहे हैं। इन आंदोलनों का चरित्र मोटे तौर पर मध्य और निम्न मध्य वर्गीय था। उनकी मांगें इन वर्गीय तकाजों के अनुरूप ही थीं। इन वर्गों की जनसंख्या में वृद्धि के साथ ऐसे आंदोलन अधिक शक्तिशाली हुए। इनमें से अनेक आंदोलनों ने भारतीय राजनीति को नए नेता दिए। कुछ उदाहरणों पर गौर करेः

  • 1950 के दशक में तेलुगु पहचान पर आधारित अलग आंध्र प्रदेश की स्थापना के लिए हुआ आंदोलन
  • तमिलनाडु में द्रविड़ पार्टियों का हिंदी विरोधी आंदोलन
  • 1970 के दशक में गुजरात का “नव-निर्माण” आंदोलन
  • इसी दशक में बिहार का जेपी आंदोलन
  • इसी दशक के आखिर में असम में शुरू हुआ विदेशी विरोधी आंदोलन
  • झारखंड और उत्तराखंड राज्यों की स्थापना के लिए आंदोलन
  • 1980-90 के दशकों में अयोध्या में बाबरी मस्जिद ध्वंस के लिए चला आंदोलन, जिसे अब अयोध्या आंदोलन के नाम से जाना जाता है।
  • इस सदी में अलग तेलंगाना राज्य की स्थापना के लिए आंदोलन
  • 2011 का अन्ना आंदोलन

इनमें आंध्र प्रदेश की स्थापना के लिए हुए आंदोलन को छोड़कर बाकी सभी आंदोलन कांग्रेस के दायरे से बाहर रहे। बल्कि उनमें से अधिकांश आंदोलन कांग्रेस के खिलाफ थे। उनमें से कई आंदोलनों में कांग्रेस में प्रचलित वंशवाद को निशाना बनाया गया। उन तमाम आंदोलनों ने नए नेता पैदा किए। लेकिन आज 2024 में हम बेहिचक यह कहने की स्थिति में हैं कि उन सभी आंदोलनों से निकले नेता वंशवाद को अपना चुके हैं।

तो यह विचारणीय है कि आखिर ऐसा क्यों होता है? कहा जा सकता है कि यह नेताओं के लालच या मोह में फंसने का परिणाम है। मगर तब यह सवाल उठेगा कि अगर नेता लालच या मोह में फंस जाते हैं, तो मतदाता उसे क्यों स्वीकार कर लेते हैं? बिहार में साढ़े पांच सौ परिवारों के लोगों को ही पार्टियों क्यों टिकट पाने के योग्य माना है? फिर अगर पार्टियों ने गलती की, तो मतदाता इन लोगों को ठुकरा कर बिना किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार को क्यों नहीं चुन लेते हैं?

इस सवाल की गहराई से पड़ताल तभी हो सकती है, जब हम “चुनावी लोकतंत्र” के राजनीतिक गतिशास्त्र (political dynamics) का अध्ययन करें। इस अध्ययन का प्राथमिक आधार समाज का वर्गीय विश्लेषण (class analysis) है। लेकिन इसमें दूसरे कुछ पहलू भी महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं।

सबसे पहले गौर करने की बात यह है कि संविधान में वयस्क मताधिकार के प्रावधान का सैद्धांतिक महत्त्व चाहे जितना हो, उससे जुड़े एक पक्ष का व्यावहारिक महत्त्व शून्य है। वयस्क मताधिकार में यह बात निहित है कि एक खास उम्र सीमा के बाद हर व्यक्ति को वोट डालने के साथ-साथ चुनाव लड़ने का अधिकार भी होगा। लेकिन इस अधिकार के दूसरे पक्ष यानी निर्वाचित हो सकने के अधिकार का सचमुच इस्तेमाल कर सकने में कितने नागरिक सक्षम हैं? यहां चुनाव में उतरने का मतलब सिर्फ परचा भर देना नहीं है- बल्कि ऐसा उम्मीदवार बन सकना है, जो वास्तव में मुकाबले में हो। वास्तव में मुकाबले में होने की कुछ अनिवार्य शर्तें हैं। मसलन,

  • आज के दौर में करोड़ों रुपये खर्च कर सकने की क्षमता
  • जातीय/सांप्रदायिक आधार पर ऐसी पहचान जिससे मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग उम्मीदवार से लगाव महसूस करे
  • अपने प्रति वफादार कार्यकर्ता इकट्ठा कर सकने की क्षमता
  • पार्टी की संगठन क्षमता का सहयोग
  • और, उम्मीदवार की शोहरत (यानी जिसे लोग पहले से जानते हों)

कुछ लहर वाले चुनावों को छोड़ दें, तो इन पहलुओं के बिना वास्तविक चुनावी मुकाबले में शामिल होना नामुमकिन है। अब इस पर ध्यान देना दिलचस्प होगा कि किसी स्थापित राजनीतिक परिवार से जुड़ाव इस संदर्भ में किस हद तक सहायक बनता हैः

  • यह आम तजुर्बा है कि भ्रष्टाचार की संस्कृति के कारण राजनीति में कामयाब हो चुके व्यक्तियों के पास पैसे की कमी नहीं रह जाती। ऐसे में उनके परिजनों के लिए भी पैसा जुटाना आसान हो जाता है। चूंकि राजनीति धीरे-धीरे व्यक्तिगत और पारिवारिक उद्यम का रूप लेती गई है, इसलिए इसमें पद और पैसे का निकट रिश्ता बनता चला गया है।
  • यह भी आम अनुभव है कि पद, प्रभाव और पैसा जिनके पास हैं, उनके प्रति वफादार कार्यकर्ताओं की कोई कमी नहीं रह जाती।
  • चूंकि सफल व्यक्ति की पहचान स्थापित हो चुकी होती है, ऐसे में उसका बेटा या बेटी या अन्य रिश्तेदार के रूप में नए उद्यमी के लिए अपनी पहचान बना लेना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है।
  • भारत में राजनीति या किसी अन्य क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए जातीय पृष्ठभूमि हमेशा ही एक प्रमुख पहलू रही है। आरंभिक दशकों में सवर्ण जातियों से आए लोगों को इसका लाभ मिला। बाद में अतीत में पिछड़ी और उत्पीड़ित रहीं जातियों की गोलबंदी ने वह पृष्ठभूभि तैयार कर दी, जिससे उन जातियों से उभरे व्यक्तियों/परिवारों को भी इसका लाभ मिलने लगा। उन्हें इसका सबसे ज्यादा लाभ राजनीति में ही मिला है।
  • भारतीय जनता पार्टी हिंदू संप्रदाय की राजनीति की आरंभ से झंडाबरदार रही है। मुस्लिम एवं सिख समुदायों से जुड़ी कुछ पार्टियों ने भी इस आधार पर राजनीति की है। उत्तर-पूर्व में ईसाई समुदाय से शक्ति पाने वाली पार्टियां भी मौजूद हैं। इन मजहबी पहचानों के आधार पर राजनीतिक पूंजी बनाना लगातार अधिक आसान होता गया है।

जिन राजनीतिक परिवारों के पास उपरोक्त किस्म की- यानी धन, जातीय/ सांप्रदायिक पहचान, पारिवारिक पृष्ठभूमि आदि की राजनीतिक पूंजी हो, स्वाभाविक रूप से उनके सदस्य चुनावों में मजबूत उम्मीदवार बनने की क्षमता रखते हैं। एक बार फिर अगर कम्युनिस्ट संगठनों को छोड़ दें, तो आजादी के आरंभिक दशकों बाद शायद ही किसी अन्य दल में किसी भी प्रकार सत्ता पा लेने के अलावा कोई अन्य मकसद बचा रहा है। राजनीति धीरे-धीरे चुनावी राजनीति करने वाले सभी नेताओं के लिए सुख-सुविधा जुटाने का उद्यम बन गई है।

यह चुनावी राजनीति की स्वाभाविक परिणति है। ऐसा उन सभी देशों में हुआ है, जिन्होंने कभी बनी विशेष वैश्विक परिस्थिति के कारण अपनी लिबरल डेमोक्रेसी में सोशल कंटेट जोड़ा (जिससे सोशल डेमोक्रेसी की अवधारणा सामने आई) अथवा उन देशों में जहां उपनिवेशवादी संघर्ष के क्रम सोशल कंटेंट के साथ लिबरल डेमोक्रेसी अपनाने की कोशिश की गई थी। भारत इनमें से दूसरी श्रेणी में आता है।

इन देशों में यह आम तजुर्बा है कि आंदोलनों के दौरान उभरे नेता राजनीति के मूलभूत वर्गीय स्वरूप के कारण जल्द ही शासक एवं धनी वर्गों की गोद में चले जाते हैं। यह बात लहर वाले चुनावों के दौरान विजयी हुए सामान्य परिवारों से ऐसे प्रतिनिधियों पर भी लागू होती है, जिन्हें पहली पीढ़ी का नेता कहा जा सकता है। ऐसे नेताओं का वर्ग एवं राजनीतिक चरित्र देखते ही देखते नाटकीय अंदाज में बदल जाता है।

ऐसा होने की ठोस आर्थिक-सामाजिक वजहें हैं। हर समाज की एक विशेष वर्गीय संरचना होती है। वहां की राजनीतिक व्यवस्था या तो शासक/ अभिजात्य वर्ग के हितों के मुताबिक पहले से बनी होती है। जहां ऐतिहासिक कारणों से राजनीति का कुछ अलग स्वरूप रहा है, वहां भी ये तबके देर-सबेर राजनीतिक व्यवस्था को अपने हितों के अनुरूप ढालने में सफल हो जाते हैं।

इस परिस्थिति में सिर्फ दो प्रकार की राजनीति की गुंजाइश बनती हैः एक वह जो शासक-अभिजात्य वर्गों के हितों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हो। ऐसी राजनीति से जुड़ी ताकतों के बीच शासक वर्गों का अधिक से अधिक वफादार बनने की होड़ लग जाती है। दूसरी राजनीति सिर्फ वह संभव है, जो व्यवस्था पर से इन वर्गों की पकड़ कमजोर करने और अंततः वास्तविक लोकतंत्र स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध हो। लेकिन ऐसी राजनीति है, जिसमें केंद्रीय पहलू अनवरत संघर्ष होता है।

भारत की ठोस हकीकत यह है कि दूसरी श्रेणी की राजनीति आज हाशिये पर चली गई है, जबकि पहली की श्रेणी की राजनीति का शिकंजा कस गया है। ऐसे में यह तथ्य महत्त्वपूर्ण हो गया है कि चुनावों में शासक वर्ग किस दल पर अपना दांव लगाते हैं। जाहिर है, ये तबके इसके लिए विभिन्न राज्यों की ऐतिहासिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रख कर अपने लिए सबसे अनुकूल नुमाइंदे का चुनाव करते हैं। ऐसा चयन करते समय उनकी निगाह में चुनाव जीत सकने की योग्यता महत्त्वपूर्ण पहलू होती है। इस बिंदु पर आकर वे तमाम पहलू अहम हो जाते हैं, जिनका जिक्र इस सिलसिले में इस लेख में ऊपर हुआ है। स्पष्टतः उनमें पारिवारिक पृष्ठभूमि एक महत्त्वपूर्ण पहलू है।

राजनीति में परिवारवाद या वंशवाद का यही कारण है। इस परिघटना को इसी सिर्फ इसी संदर्भ में समझा जा सकता है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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