Sunday, April 28, 2024

गणतंत्र दिवस पर विशेष: आज संविधान बचाना क्यों जरूरी है?

इस वर्ष हम भारतीय गणतंत्र की 74वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तथा आज़ादी की 77वीं वर्षगांठ मनाएंगे। विभिन्न सभ्यताओं और राष्ट्रीयताओं में बंटे इस विशाल भू-भाग: जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां सभ्यता की शुरूआत क़रीब पांच हज़ार वर्ष पहले हुई थी। भारत की अंग्रेजों से मुक्ति तथा गणतंत्र के रूप में एक संविधान का लागू होना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि पहली बार यह विशाल भू-भाग एक राष्ट्र भारत के रूप में संगठित हुआ, उसके पहले राष्ट्र जैसी कोई अवधारणा उपस्थित नहीं थी।

भारत का स्वाधीनता संग्राम; जिसे सभी धर्मों और जातियों के लोगों ने मिलकर लड़ा, उससे पैदा हुई ऊर्जा ने राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन साथ में एक दुखद तथ्य यह भी है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ गठजोड़ करके हिन्दू-मुस्लिम फासीवादियों ने एक मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान की नींव डाली, जिसके परिणामस्वरूप विश्व इतिहास का सबसे बड़ा विस्थापन हुआ तथा उसमें हुए साम्प्रदायिक दंगों में लाखों हिन्दू-मुसलमान मारे गए।

इस विभाजन के बाद दोनों देशों के लोगों को बहुत ही जल्दी यह समझ में आ गया, कि राष्ट्रीयता का आधार धर्म न होकर संस्कृति होती है, परन्तु धर्म के आधार पर विभाजन की पीड़ा आज भी दोनों देश झेल रहे हैं। साम्प्रदायिकता का प्रेत; जो उस समय जगाया गया था, आज उसने विशाल रूप ले लिया है तथा वह आज़ादी के संग्राम में पैदा हुए संवैधानिक मूल्य; जो गणतंत्र के संविधान में निहित हैं, उसे पूरी तरह से समाप्त करके एक धार्मिक फासीवादी राष्ट्र बनाने का उपक्रम कर रहा है।

भारत की आज़ादी के बाद ही हिन्दू साम्प्रदायिक‌ तत्व चाहते थे कि पाकिस्तान की तरह भारत में भी हिन्दूराष्ट्र की स्थापना की जाए। कांग्रेस में भी हिन्दूवादी तत्वों का बहुमत था। हिन्दूवादी तत्वों के हौसले उस समय इतने बढ़े हुए थे कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रीयता के सबसे बड़े नेता महात्मा गांधी तक की हत्या कर दी थी, परन्तु जवाहरलाल नेहरू और आम्बेडकर जैसे धर्मनिरपेक्ष तथा दृढ़ इच्छाशक्ति वाले नेताओं की सूझबूझ और दूरदर्शिता के कारण यह देश एक लोकतांत्रिक गणराज्य बना।

भारत के साथ ही आज़ाद हुए एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के देशों में लोकतंत्र बहुत दिनों तक नहीं चल सका, वहां पर सैनिक तानाशाहों के हाथ में सत्ता में आ गई। पाकिस्तान में इस्लामी शासन की स्थापना हुई, लेकिन वह आज़ादी के बाद से ही लगातार सैनिक तानाशाहों को झेल रहा है।

धार्मिक कट्टरता ने पाकिस्तान को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से पूर्ण रूप से पंगु बना दिया है, परन्तु भारत में ऐसा नहीं हो सका तो इसका कारण यह है कि यहां पर एक ऐसे संविधान की रचना की गई जो अपनी तमाम कमियों के बावज़ूद धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और समाजवाद की बात करता है।

भारतीय संविधान में समाज के सभी वर्गों; जिसमें दलित, पिछड़े, जनजाति समाज, स्त्रियां तथा अल्पसंख्यक सभी थे, उन सभी को समाज में उचित प्रतिनिधित्व देने की बात की गई है। उनके लिए संसद, विधानसभाओं, स्थानीय निकायों तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है। अल्पसंख्यकों को समाज में उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए उन्हें अपनी शैक्षणिक संस्थाओं को खोलने और संचालन करने का अधिकार दिया गया है।

इस संविधान की प्रस्तावना पढ़कर ही यह बात स्पष्ट हो जाती है-

“हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख़ 26 नवम्बर, 1949 ई० को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”

यद्यपि संविधान सभा में जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि नहीं थे, वे मनोनीत सदस्य थे, लेकिन इस बात का ध्यान रखा गया था, जिसमें सभी वर्गों, जातियों और विचारधाराओं का उचित प्रतिनिधित्व हो।

डॉ० भीमराव आम्बेडकर ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष थे लेकिन संविधान निर्माण में उनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। वे दलित वर्ग से आते थे तथा उन्होंने इस वर्ग के साथ हो रही त्रासदी को स्वयं देखा और झेला था। यही कारण है कि उन्होंने संविधान में दलित पिछड़ों और जनजाति समाज के लोगों को देश के हर क्षेत्र में उचित प्रतिनिधित्व देने की ज़ोरदार वकालत की तथा उसमें सफलता भी हासिल की।

  • 25 दिसम्बर 1949 को संविधान अपनाने से एक दिन पहले आम्बेडकर ने ज़ोरदार तर्क दिया कि “भारत को एक सामाजिक लोकतंत्र बनने का प्रयास करना चाहिए, न कि केवल एक राजनीतिक लोकतंत्र।”
  • उन्होंने कहा, “सामाजिक लोकतंत्र जीवन का एक तरीका है, जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देता है।”

भारतीय संविधान की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी जैसे महत्वपूर्ण देशों के संविधान की सारी अच्छी बातों का समावेश किया गया, विशेष रूप से इनमें निहित धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और समाजवादी मूल्यों को।

संविधान सभा के हिन्दूवादी प्रतिनिधि इस आधार पर भी इसकी आलोचना कर रहे थे कि इसे अनेक विदेशी संविधान से नकल करके बनाया गया है और इसमें भारतीय राष्ट्रीयता के तत्वों का अभाव है।

वास्तव में उन लोगों को संविधान में निहित लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द से ही नफ़रत थी। वे लोग तो‌ उसी समय मनुस्मृति पर आधारित एक पुरातनपंथी हिन्दूवादी देश बनाना चाहते थे, परन्तु भीमराव आम्बेडकर और जवाहरलाल नेहरू के अथक प्रयासों से वे लोग सफल नहीं हो सके।

भारतीय संविधान की कई अन्य मामलों में भी आलोचना की जाती है कि-

  • इसमें फ्रांस की तरह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई है।
  • इसमें संपत्ति के अधिकार की तो बात है, लेकिन काम के अधिकार की नहीं।

लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह संविधान उस दौर में समूचे एशिया में पहला लोकतांत्रिक संविधान था। उस समय धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र ही संकट में था, इन अर्थों में उस दौर में लिखा गया संविधान बहुत महत्वपूर्ण है। उसने इस मूल्यों की बहुत ही मजबूती से रक्षा की।

आज संविधान लागू होने के 74 वर्ष बीत जाने के बाद सत्ता में क़ाबिज़ संघ परिवार संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और समाजवाद के मूल्यों को तिलांजलि देकर देश को एक‌ हिन्दू पुरातनपंथी राष्ट्र में बदलना चाहता है। एक धर्मनिरपेक्ष समाज में धर्म एक निजी आस्था का विषय है, लेकिन आज देश के प्रधानमंत्री स्वयं एक‌ धर्म-विशेष के प्रतिनिधि के रूप में काम कर रहे हैं।

आज देश में बहुसंख्यकवाद का ख़तरा बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है, यही कारण है कि फासीवादी तत्व संविधान को‌ ही बदलकर मनुस्मृति के नियमों के‌ अनुसार देश को चलाने का प्रयास कर रहे हैं। ये बातें आज़ादी के बाद भारतीय धर्मनिरपेक्ष और‌ प्रगतिशील मूल्यों के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बनकर उभरी हैं, यही कारण है कि संविधान और संवैधानिक मूल्यों को बचाने की आज सबसे अधिक ज़रूरत है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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