Friday, April 19, 2024

वामपंथी पार्टियों को पछाड़ने और पीछे छोड़ने में क्यों और कैसे सफल रहा आरएसएस?

“मुझे बहुत रंज है, बहुत तकलीफ है इस बात की कि समाज की जिन परतों पर दरअसल वामपंथियों को काम करना चाहिये था और जो परतें वाम का स्वाभाविक आधार थीं, और उन पर काम करके एक क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा किया जा सकता था, उन परतों पर वामपंथियों ने नहीं, बल्कि दक्षिणपंथियों ने काम किया, फ़ासिस्टों ने काम किया।

आज का ज़माना सामूहिक राजनीति का ज़माना है और समाज के विभिन्न समूह अपना राजनीतिकरण चाहते हैं, आप राजनीतिकरण नहीं करेंगे तो दूसरे करेंगे। कम्युनिस्ट यह काम नहीं कर पाये और आरएसएस वालों ने यह काम कर दिखाया।

कैसे कर दिखाया? आप सृजनशीलता की बात करते हैं लेकिन आपसे ज़्यादा वह सृजनशील हैं। फ़ासिस्ट आतंक भी सृजनशील हो सकता है। आरएसएस के बारे में मेरा कहना है कि जो मसला वाम दुनिया में कहीं भी हल नहीं कर पाया, वह हिंदुस्तान में आरएसएस ने कर दिखाया।

बुर्जुआ डेमोक्रेटिक सिस्टम (पूंजीवादी जनवादी व्यवस्था) को उखाड़ फेंकने का काम वाम का था। उसके लिए वाम की रणनीति क्या थी? यह कि वह एक वेनगार्ड (हरावल) पार्टी होनी चाहिये थी, एक मास पार्लियामेंट्री पार्टी (आम जनता का संसदीय दल) होना चाहिये, जो आपका राजनीतिक उपकरण हो, और जिसमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए मोर्चे होने चाहिये। संगठन के यह तीन रूप हैं।

भारतीय वाम ने भी इन तीन रूपों में अपने को संगठित किया लेकिन वह इतना प्रभावशाली नहीं रहा जितना दक्षिणपंथियों और फ़ासिस्टों ने कर दिखाया।

आरएसएस, भाजपा की वेनगार्ड पार्टी है और भाजपा आम जनता के संसदीय दल के रूप में उनका राजनीतिक उपकरण है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए उनके हर तरह के मोर्चे हैं- औरतों के, मर्दों के, अनपढ़ों के, पढ़े-लिखों के, मज़दूरों के, सफ़ेदपोशों के, सब तरह के और सब जगह आप इसे क्रियेटिव (सृजनशील) कह लें या डायबालिकल (शैतानी या राक्षसी) पर यह हुआ है और उन्होंने किया है।

गुजरात में एक तरह से किया है तो कर्नाटक में दूसरी तरह से, उत्तर प्रदेश में तीसरी तरह तो पश्चिम बंगाल में चौथी तरह से, लेकिन किया है। और इसी का नतीजा है कि गुजरात से उत्तर-पूर्व तक मध्य प्रदेश से होती हुई एक लाइन सी खिंच गई है आदिवासी आरएसएस की।

जो लोग वाम के सहज-स्वाभाविक सहयोगी होने चाहिये थे वह दक्षिण के समर्थक और सहयोगी बन गये हैं। यह फ़ासीवादी नाटक का पहला अंक है। लेकिन यह बहुत बड़ा नाटक है जो होने जा रहा है। इसलिए मैंने कहा कि दलितों-आदिवासियों पर जो ज़ुल्म हुये हैं उनका पूरा एहसास तो उन्हें कराना चाहिये, लेकिन उन्हें संगठित तो करना चाहिये मगर रोमान्टीसाइज़ नहीं करना चाहिये।”

उपरोक्त उद्गार एजाज़ अहमद साहब के हैं जो उन्होंने अपने लेख “सृजनशीलता हमेशा सामाजिक होती है” में व्यक्त किए हैं। आज जब सामाजिक द्वेष की सीढ़ी लगाकर भारतीय दक्षिणपंथ पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता के शीर्ष पर जा बैठा है। तब एजाज़ अहमद साहब की यह आलोचना किसी एक वामपंथी पार्टी की न होकर समस्त भारतीय वाम की है। जिसमें संसदीय और ग़ैर संसदीय दोनों वाम शामिल हैं।

उनकी इस आलोचना से हम बचकर नहीं निकल सकते, इसलिए ज़रूरी है कि हम इस पीड़ा भरी आलोचना में उठाये गये उनके सवालों पर गहराई से विचार-विमर्श करें। अगर हम ग़ैर संसदीय वाम की बात करें तो उससे आशय उस वाम से है जो सशस्त्र तरीके से व्यवस्था परिवर्तन करना चाहता है। यह वाम 1967 के बाद से अब तक की 55 साल की अवधि में भारत में एक बहुत ही छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में अपनी पहचान बना सका है। पहले की तुलना में अब उसका यह क्षेत्र सिमटकर बहुत ही कम रह गया है।

नक्सलवादियों-माओवादियों के नाम से जाने-जाने वाले इन ग्रुपों में से अनेक संसदीय राजनीति में शामिल हो चुके हैं। लेकिन जो शामिल नहीं हुए हैं, उनकी राष्ट्रीय स्तर पर तभी चर्चा होती है जब वह किसी हिंसक गतिविधि को, जो आमतौर पर सुरक्षाबलों पर हमले के रूप में होती है। इनकी भारतीय समाज के बारे में विश्लेषण पद्धति और शब्दावली में कोई नवीनता नहीं आई है।

मतलब उन्होंने खुद को पूंजीवाद की तरह अपडेट नहीं किया है। जो गैरसंसदीय वाम, संसदीय रास्ते की ओर आया उसके पास जनता के बड़े हिस्से के बीच जाने, उन तक अपने विचारों को ले जाने के अवसरों की प्रचुरता मौजूद है। जबकि ग़ैरसंसदीय वाम के पास बहुत ही सीमित अवसर और प्रसार का सामाजिक क्षेत्र है।

अब हम संसदीय वाम की बात करें तो उसने आज़ादी के बाद एक विशेष अवधि में सामंतवाद के खिलाफ़ तेलंगाना में सशस्त्र प्रतिरोध की पहल की थी। लेकिन भारी नुकसान उठाने के बाद उसने अपने इस क़दम को वापस ले लिया और तब उसकी यह समझ बनी कि हैदराबाद का निज़ाम जो सामंत था उसकी कमज़ोर सेना से लड़ना आसान था, लेकिन जब उस भारतीय सेना ने लड़ाई की कमान संभाल ली, जो द्वितीय विश्वयुद्ध लड़ चुकी थी, तो उससे जीतना मुमकिन नहीं था।

इसलिए बजाय इसके कि खुद को समाप्त कर दिया जाये, व्यवस्था परिवर्तन का दूसरा रास्ता चुनना होगा। इस फैसले के बाद संसदीय वाम ने चुनाव में हिस्सा लिया और भारत के बड़े भूभाग पर शासन की बागडोर संभाली और एक प्रदेश में अब भी संभाले हुये है। इस वाम के पास पूंजीवादी लोकतंत्र में अपने दर्शन को जनता के व्यापक हिस्से तक ले जाने के लिए काफ़ी अवसर हैं। इसके अलावा हिसंक रास्ते की तुलना में इस रास्ते में जोखिम भी बहुत ही कम है।

2008 तक भारत का संसदीय वाम राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। लेकिन जैसे ही उसने 2008 में कांग्रेस से अपना समर्थन वापस लिया, उसकी इस स्थिति में बदलाव आना शुरू हो गया। 2011 में उसके हाथ से पश्चिम बंगाल निकल गया और उसके बाद 2018 में त्रिपुरा। बंगाल में वह 34 साल शासन में रहा, जबकि त्रिपुरा में कुल मिलाकर 29 साल।

पश्चिम बंगाल विधानसभा में सीपीएम की सीटें 2006 के चुनाव में 176 थीं। वह 2021 में शून्य रह गयीं, जबकि तृणमूल कांग्रेस की सीटें 30 से बढ़कर 2021 में 215 हो गयीं। एनडीए की 2016 में सीटें शून्य से बढ़कर 3 व 2021 में 77 हो गयीं। जहां तक मत प्रतिशत की बात करें तो केवल सीपीआईएम का 1977 से लेकर 2006 तक जो औसत मत प्रतिशत 37.28 रहा था, वह 2021 में गिरकर केवल 4.71 प्रतिशत रह गया।

तृणमूल कांग्रेस की बात हम छोड़ दें, तो जिस बीजेपी का 2006 में मत प्रतिशत शून्य था, वह 2021 में बढ़कर 37.97 हो गया। केवल 15 साल की अवधि में बीजेपी, बंगाल विधानसभा में अपने शून्य मत प्रतिशत से शुरू करके उसे बढ़ाकर 37.97 प्रतिशत पर ले आई और इसी अवधि में अपनी सीटें शून्य से शुरू करके 77 पर पहुंचा दी। वह बीजेपी जिसकी 2009 के लोकसभा चुनाव में 1 सीट और मत प्रतिशत 6.14 था, 2019 में 18 सीटें और मत प्रतिशत 40.7 हो गया। जबकि सीपीएम जिसकी 2009 के लोकसभा चुनाव में 9 सीटें और मत प्रतिशत 33.1 था, 2019 में सीटें शून्य और मत प्रतिशत केवल 6.33 रह गया।

अगर हम त्रिपुरा विधानसभा के चुनाव पर नज़र डालें तो जिस सीपीएम ने 2013 के चुनाव में 60 में से 49 सीटें और 48.11 मत प्रतिशत हासिल किये थे वह 10 साल की अवधि में ही घटकर 11 सीटें और मत प्रतिशत 24.62 रह गया। बीजेपी जिसे 2013 के चुनाव में कोई सीट नहीं मिली थी और उसका मत प्रतिशत केवल 2.09 था, उसने अगले चुनाव यानि 2018 में ही सीपीएम को हराकर अपना मत प्रतिशत 43.59 और सीटें शून्य से 36 कर लीं।

हालांकि 2023 के चुनाव में उसकी सीटें घटकर 36 से 32 और मत प्रतिशत 38.97 रह गया, लेकिन बहुमत आ जाने के कारण सत्ता उसकी बनी रही। त्रिपुरा में बीजेपी ने पेशवराना तरीके से वामपंथी सरकार का मुख्य अंतर्विरोध ढूंढ लिया वह था कर्मचारियों को दिया जाने वाला चौथा वेतन आयोग। देश में सातवां वेतन आयोग आ चुका था। लेकिन वहां चौथा ही लागू था। इसलिए उसने सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने की घोषणा कर दी। इसका तुरंत असर हुआ।

सरकारी कर्मचारियों की संख्या 1 लाख 72 हज़ार थी। अगर पांच का परिवार माना जाये तो वहां सरकारी वेतन पर निर्भर 8 लाख 60 हज़ार नागरिक हुए जबकि बीजेपी को 2018 के चुनाव में 10 लाख 25 हज़ार 673 वोट और सीपीएम को 9 लाख 92 हज़ार 575 वोट मिले।

सातवां वेतन आयोग लागू करने की घोषणा से बीजेपी को पिछले चुनाव में जो 2.09 प्रतिशत मत प्राप्त हुये थे वह एकदम बढ़कर 43.59 प्रतिशत हो गये। बीजेपी ने सरकारी कर्मचारियों पर लगाये इस एक दांव से एक झटके में 41.5 पांच प्रतिशत वोट हासिल कर लिए।

अगर समय रहते वाम खुद वेतन आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने की घोषणा कर देता तो परिणाम यह नहीं आते, लेकिन वाम सरकार, कर्मचारियों को प्रदेश की आर्थिक स्थिति को समझाने में लगी रही। जबकि कर्मचारियों के सामने बीजेपी की तरफ़ से इतनी बड़ी पेशकश थी, जिसको वह किसी भी हालत में नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते थे। इसी वोट बैंक को बरक़रार रखने के लिए बीजेपी ने 2023 के चुनाव से ठीक पहले 5 प्रतिशत मंहगाई भत्ते की घोषणा की और कर्मचारियों के वोट फ़िर से बीजेपी की झोली में जा गिरे।

अब अगर केरल की बात करें तो 2006 के केरल विधानसभा चुनाव में एनडीए का मत प्रतिशत 4.67 था। जो 2016 में बढ़कर 14.65 हो गया। 2021 में मत प्रतिशत में गिरावट आई और वह 12.36 हो गया, मगर बीजेपी के मतों में वृद्धि रही, हालांकि इसको एक भी सीट हासिल नहीं हुई लेकिन 2022 में बीजेपी के कार्यकर्ता क्रिसमस पर ईसाइयों के घर-घर पंहुचे और उन्हें गिफ़्ट और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के फ़ोटो के साथ बने क्रिस्मस कार्ड दिये।

ईस्टर के दिन 10 हज़ार बीजेपी कार्यकर्ता एक लाख ईसाई परिवारों से मिलने की योजना को अंजाम दे रहे थे। इसी तरह ईद पर मुस्लिमों से भेंट करने की योजना पर काम चल रहा है। बीजेपी का इरादा मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों में अपनी छवि को सुधारना है। ताकि उनमें से जितना भी मुमकिन हो, मत हासिल किये जा सकें।

केरल में 40 साल से कम आयु के युवाओं में बीजेपी का रुझान बढ़ रहा है। क्योंकि केरल में हिन्दुओं की तादाद 54.7 प्रतिशत है इसलिए बीजेपी की योजना इनमें से 30 से 40 प्रतिशत को अपनी ओर लाने की है। केरल की लगभग 35 विधानसभाओं में बीजेपी का मत प्रतिशत 20 हो चुका है।

केरल में हिन्दुओं के दो बड़े जातीय समूह हैं- आइज़वा और नायर। नायर का वोट प्रतिशत 2006 में 11 प्रतिशत एनडीए को मिला था। जो 2016 तक 33 प्रतिशत हो गया। आईज़वा जो वाम का आधार वोट था, उसका वोट एनडीए के पक्ष में 6 से बढ़कर उसी अवधि में 17, ईसाइयों का 1 प्रतिशत से बढ़कर 9 हो चुका है।

मुस्लिमों में भी बीजेपी ने घुसपैठ की है उसका भी वोट प्रतिशत 1 से बढ़कर 3 पहुंच चुका है। अगर वाम ने भाजपा की इस रणनीति के जवाब में अपनी चुनावी रणनीति को अपडेट नहीं किया तो जिस तरह पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के चुनाव परिणाम अप्रत्याशित थे। उसी तरह आने वाले वर्षो में अगर बीजेपी वाम को हराकर सत्ता में आ जाती है, या कांग्रेस के स्थान पर प्रमुख विपक्षी पार्टी बन जाती है तो इस पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिये।

वाम मोर्चे में सबसे बड़ी पार्टी सीपीएम है। इतनी लम्बी अवधि तक सत्ता में बने रहने के बावजूद ऐसा किस तरह मुमकिन हुआ कि एक प्रदेश की विधानसभा और लोकसभा में उसे एक भी सीट नहीं मिल पाई और दूसरे प्रदेश में विधानसभा की केवल 11 सीटें रह गयीं?

वह आरएसएस जिसका जन्म 1925 में नागपुर में हुआ उसने इन बीते 89 सालों में आखि़र ऐसी कौन सी रणनीति अपनायी कि उसके राजनीतिक मोर्चे भाजपा ने 2014 में आकर भारत की केन्द्रीय सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। जबकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी जिसकी विधिवत स्थापना उसी वर्ष 1925 में कानपुर में हुई थी, जिस वर्ष आरएसएस का जन्म हुआ और वह आज़ादी के बाद के चुनाव में कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी थी।

लेकिन ऐसी पार्टी इसी अवधि में भारत की केन्द्रीय सत्ता तक पंहुचने के बजाय अपने दो प्रदेश भी गंवा बैठी। ऐसा कैसे मुमकिन हुआ, इस अतिमहत्वपूर्ण सवाल का एक तो जवाब एजाज़ अहमद साहब देते हैं। और दूसरा जवाब हमें इटली के कम्युनिस्ट नेता एन्तोनियां ग्राम्शी की जेल डायरी से मिलता है।

1980 के दशक के मध्य तक एक तिहाई दुनिया वामपंथी विचारों के प्रभाव में थी फिर ऐसा क्या हुआ कि वह आज केवल पांच देशों (चीन, क्यूबा, लाओस, वियतनाम, उत्तरी कोरिया) तक सिमट कर रह गई? इसका जवाब भी एन्तोनियों ग्राम्शी के विचारों में मिल जाता है। आइये भारत के संदर्भ में पहले एजाज़ अहमद साहब की पीड़ा से बात शुरू करते हैं।

वह कहते हैं कि समाज की जिन परतों पर वाम को काम करना था और जो वाम का स्वाभाविक आधार था, उन पर वाम ने नहीं दक्षिणपंथियों, फ़ासिस्टों ने काम किया। वह समाज की जिन परतों की बात कर रहे हैं उससे उनका आशय मज़दूर वर्ग से नहीं है। क्योंकि मज़दूरों में तो वाम ने काम किया है। उनका आशय अनुसूचित जाति/जनजातियों, पिछड़ा वर्ग और आदिवासियों से है। जिन पर काम करके एक क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा किया जा सकता था। लेकिन वाम यह काम नहीं कर पाया। उनका कहना था कि आज का ज़माना सामूहिक राजनीतिकरण का है। और समाज के विभिन्न समूह अपना राजनीतिकरण करना चाहते हैं।

यानि राजनीति में अपने जातीय समूह के आधार पर अपना प्रतिनिधित्व चाहते हैं। इस काम को वाम को करना था लेकिन उसके न करने पर इस काम को दक्षिणपंथ ने किया। उसने धर्म के नाम पर उन्हें गोलबंद किया और जाति के आधार पर चुनाव में दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों को टिकट दिये और जब वह जीतकर शासन में पंहुचे तो उनसे अपने वर्गीय हित में काम कराया।

लोकसभा में अनुसूचित जाति/जनजाति के आरक्षण से पहुंचे 131 सांसद हैं। लेकिन वहां वह अपनी जाति के पक्ष में नहीं बल्कि पूंजीपति वर्ग के हित में काम कर रहे हैं। राजनीतिकरण का यही काम अगर वाम करता तो वह भी संसद में मेहनतकश वर्ग के पक्ष में उनसे काम करा सकता था। वाम ने जाति के महत्व को कम करके आंका और यहीं उससे चूक हो गई, हालांकि अब आकर सीपीएम ने दलित शोषण मुक्ति मंच के नाम से जातीय संगठन बनाकर उस चूक को सुधारने की कोशिश की है।

एजाज़ अहमद कहते हैं कि पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था को उखाड़कर समाजवादी व्यवस्था को लाने का काम वाम का था। लेकिन वाम पूरी दुनिया में यह नहीं कर पाया, बल्कि इस काम को भारत में आरएसएस ने कर दिखाया। उसने पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था को लगभग उखाड़ दिया है। और अब उसके स्थान पर हिन्दू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है।

पूंजीवादी-लोकतांत्रिक व्यवस्था को उखाड़ने के लिए एक संगठन की ज़रूरत होती है। और वह संगठन तीन मोर्चों पर एक साथ काम करता है। एक उसका हरावल दस्ता होता है जो नेतृत्व करता है। दूसरा आम जनता का संसद-विधानसभा में प्रतिनिधित्व करने वाला राजनीतिक दल और तीसरा समाज के हर क्षेत्र में सक्रिय उसके जनसंगठन।

वाम ने इन तीन मोर्चों पर काम तो किया लेकिन वह उतना प्रभावशाली नहीं रहा जितना दक्षिणपंथियों और फ़ासिस्टों ने किया। आरएसएस उनका हरावल है, भाजपा उनका राजनीतिक दल और समाज के हर हिस्से में सक्रिय उनके जनसंगठन मौजूद हैं। हर प्रदेश के लिए उनकी अलग-अलग रणनीति है। जिसका नतीजा गुजरात से लेकर मध्यप्रदेश और उत्तर-पूर्व तक एक लाइन सी खिंच गई है आदिवासी आरएसएस की।

वह कहते हैं कि जो लोग वाम के स्वाभाविक रूप से सहयोगी होने चाहिये थे, वह दक्षिणपंथ के सहयोगी बन गये है और यह वाम की विफलता है। एजाज़ अहमद द्वारा की गई वाम की इस पीड़ाभरी आलोचना का सबक़ यह है कि वाम को उनके सुझावों पर गंभीरता से विचार-विमर्श करने के बाद भविष्य की रणनीति बनानी होगी।

अब हम उस बेहद अहम सवाल पर आते हैं जो आज भी हमारे सामने उसी तरह मौजूद है जैसा 1917 की सोवियत संघ में हुई क्रांति के बाद के वर्षो में एन्तोनियो ग्राम्शी के सामने मौजूद था। यह सवाल था कि कार्ल मार्क्स के अनुसार जिन देशों में पूंजीवाद का विकास होगा वहां शोषण अपने चरम पर पंहुच जायेगा और तब वहां मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी क्रांति होगी।

लेकिन रूस में हुई इस क्रांति के बाद यूरोप के विकसित पूंजीवादी देशों में मज़दूरों के भयंकर शोषण के बाद भी वहां क्रांति क्यों नहीं हुई? हालांकि लेनिन ने इस बारे में लिखा कि इसका कारण अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमरीका के उपनिवेशों में किया जाने वाला शोषण है। जिसका हिस्सा यूरोप में आ रहा है।

जब उपनिवेशों के संसाधन खत्म हो जायेंगे तब यूरोप के पूंजीपति अपने देश के लोगों का शोषण करेंगे जिससे वहां क्रांति होगी। लेकिन उपनिवेशों के आज़ाद हो जाने के बाद भी यूरोप में क्रांति नहीं हुई। आज भी हम देखें तो लैटिन अमरीका, अफ्रीकी महाद्वीप और एशिया के देशों में मेहनतकश जनता का शोषण अपने चरम पर होने के बावजूद वहां कहीं भी समाजवादी क्रांति नहीं हो रही।

दुनिया में लाओस वह आख़री देश है जो 1975 में कम्युनिस्ट बना। इसके बाद आधी शताब्दी बीत चुकी है लेकिन अब तक किसी भी देश में कम्युनिस्ट क्रांति नहीं हो पायी है। विकसित, विकासशील और अल्पविकसित पूंजीवादी देशों में पूंजीवाद खुद को किस तरह समाजवादी क्रांति से सुरक्षित रख पाया इसका जवाब एन्तोनियों ग्राम्शी देते हैं।

एन्तोनियो ग्राम्शी इटली की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से थे। वह 1917 की रूसी क्रांति से प्रेरित थे और उसे समझने के लिए वह 1922 में सोवियत संघ पंहुचे। यह वह साल था जिसमें मुसोलिनी ने सत्ता हासिल की थी।

सोवियत संघ पंहुचकर ग्राम्शी ने लेनिन से मुलाकात की और वहां कई साल रहकर वहां के समाज का अध्ययन किया। वहीं उन्होंने शादी की और जब वह वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि इटली में पूरी तरह फ़ासिज़्म आ चुका था।

उन्होंने मुसोलिनी की फ़ासिस्ट सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए संयुक्त मोर्चे का आवाहन किया, जिससे भयभीत होकर इटली की फ़ासिस्ट सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। जज ने उन्हें सज़ा सुनाते हुये कहा कि हम इस दिमाग़ को 20 साल के लिए काम करने से रोकना चाहते हैं।

ग्राम्शी के सामने यही सवाल था कि पूंजीवाद, मेहनतकश जनता का इतना निर्मम शोषण करने के बाद भी समाजवादी क्रांति से किस तरह खुद को सुरक्षित बनाये हुये है? उन्होंने इसका कारण जेल में रहकर ढूंढ निकाला। उन्होंने लिखा कि पूंजीवाद अब जनता पर दमन के बल पर शासन नहीं करता बल्कि उनके दिमाग़ पर कब्ज़ा करके उनकी सहमति हासिल करके शासन करता है।

कार्ल मार्क्स ने समाज का विश्लेषण, आर्थिक आधार (उत्पादन के साधनों का स्वामित्व) और अधिरचना (ऊपरी ढांचा यानि सुपरस्ट्रक्चर) के रूप में किया। उन्होंने बताया कि समाज में उत्पादन के साधनों (सामंती व्यवस्था में ज़मीन और पूंजीवादी व्यवस्था में मशीन यानि उद्योग) पर जिस वर्ग का कब्ज़ा होगा उस समाज का ऊपरी ढांचा उसके हितों के लिए काम करेगा।

ऊपरी ढांचा मतलब सुपरस्ट्रक्चर से उसका आशय राजनीतिक, न्यायिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से है। मार्क्स का कहना था अगर आर्थिक आधार बदल दिया जाये अर्थात उत्पादन के साधनों पर मेहनतकश वर्ग का कब्ज़ा हो जाये तो सुपरस्ट्रक्चर उसके अनुसार अपने आप बदल जायेगा और वह मज़दूर वर्ग के हित में काम करने लगेगा।

इस तरह मार्क्स ने बेस यानि आधार को प्रमुख महत्व दिया लेकिन ग्राम्शी ने मार्क्स के इस विचार में अपने अनुभव को शामिल करते हुये कहा कि यह सही है कि बेस महत्वपूर्ण है। लेकिन उसके ऊपर खड़ा सुपरस्ट्रक्चर भी उतना ही महत्वपूर्ण है। यह सुपरस्ट्रक्चर केवल आर्थिक आधार बदलने से अपने आप नहीं बदलेगा बल्कि इसे कल्चरल हेजेमोनी कायम करके बदलना होगा।

ग्राम्शी ने जनता के दिमाग़ में स्थापित पूंजीवादी मूल्यों, विश्वासों, धारणाओं को बदलने और उनके स्थान पर समाजवादी मूल्यों को स्थापित करने के लिए सांस्कृतिक अधिपत्य का विचार दिया। ग्राम्शी ने बताया कि पूंजीवाद, जनता के दिमाग़ पर सांस्कृतिक आधिपत्य क़ायम करने के लिए सिविल सोसायटी की संस्थाओं का इस्तेमाल करता है।

सिविल सोसायटी यानि नागरिक समाज की इन संस्थाओं को मुख्य तौर पर चार भागों में बांट सकते हैं। 1- परिवार, 2- शिक्षा, 3- धर्म, 4- मीडिया। ग्राम्शी ने आर्गेनिक इन्टेलेक्चुअल नामक एक और श्रेणी की चर्चा की। उन्होंने बताया कि पूंजीवाद, नागरिक समाज की संस्थाओं में मौजूद अपने आर्गेनिक इन्टेलेक्चुअल यानि संगठनकारी बुद्धिजीवियों के माध्यम से पूंजीवादी मूल्यों, धारणाओं और विश्वास को जनता के दिमाग़ में बैठाता रहता है।

और इस तरह यह बुद्धिजीवी पूंजीवादी व्यवस्था के पक्ष में जन सहमति तैयार करते हैं। यह लोग अख़बारों-पत्रिकाओं में लेखों, भाषणों, धार्मिक प्रवचनों, फ़िल्मों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा प्रचार के समस्त साधनों यहां तक कि खेल के द्वारा भी पूंजीवादी व्यवस्था की तारीफ़ और समाजवादी व्यवस्था की बुराई करते रहते हैं।

यह पूंजीवादी आर्गेनिक इन्टेलेक्चुअल, धर्मगुरु, अर्थशास्त्री, अभिनेता, संस्कृतिककर्मी, लेखक, खिलाड़ी, राजनेता आदि हो सकते हैं। ग्राम्शी ने बताया कि मेहनतकश वर्ग को जनता के दिमाग़ पर अपना सांस्कृतिक अधिपत्य क़ायम करना होगा और यह काम उसके अपने आर्गेनिक इन्टेलेक्चुअल करेंगे। यह कारखानों के सुपरवाइज़र, मज़दूर संगठनों के नेता, पत्रकार, साहित्यकार, अध्यापक, सामाजिक कार्यकर्ता और समाज के शोषित वर्ग के पक्षधर दूसरे वर्ग से आये बुद्धिजीवी होंगे।

जनता के दिमाग़ में जो पूंजीवादी, सामंती, मूल्य, विश्वास और धारणाएं बैठी हुई हैं। उनको हटाकर उसके स्थान पर अपने सांस्कृतिक मूल्य स्थापित करेंगे। दुनिया भर में पूंजीवाद ने सिविल सोसायटी की संस्थाओं के माध्यम से अपने विचारों के प्रति जन सहमति का निर्माण किया है।

परिवार, शिक्षण संस्थायें, धार्मिक संस्थायें और संचार माध्यम उनके पक्ष में प्रचार करने और लोगों का दिमाग़ बनाने के काम पर दिन-रात लगे रहते हैं। वामपंथ ने इस काम को प्राथमिकता के आधार पर नहीं किया इसलिए वह पिछड़ गया। भारत में यह कैसे मुमकिन हुआ कि आरएसएस इतना शक्तिशाली हो गया? कैसे उसने जनता के बड़े हिस्से के दिमाग़ पर अपना वैचारिक अधिपत्य क़ायम कर लिया।

आइये ग्राम्शी के विचारों की रोशनी में इसको समझने की कोशिश करते हैं। जैसा कि ग्राम्शी ने सिविल सोसायटी की मुख्यतः चार संस्थाओं को सांस्कृतिक अधिपत्य क़ायम करने का माध्यम बताया था, पहली संस्था परिवार दूसरी शिक्षण संस्थायें, तीसरी धर्म और चौथी मीडिया। तो अब हम इस बात की जांच करें कि वाम और आरएसएस का इन संस्थाओं में क्या काम और प्रभाव है?

सबसे पहले हम परिवार नामक संस्था को लेते हैं। वाम ने परिवार के लिए कभी कोई योजना नहीं बनाई। वाम के एजेन्डे में परिवार, बतौर एक महत्वपूर्ण संस्था कभी नहीं रहा इसलिए अपनी किसी गोष्ठी में, पार्टी की मीटिंग में परिवार को एक शक्तिशाली संस्था मानकर उसने कभी महत्व नहीं दिया। इसका यह नतीजा सामने आया कि परिवार पर वाम का कोई प्रभाव नहीं है।

इसके विपरीत परिवार की उपेक्षा करने से परिवार उनसे असंतुष्ट रहने लगा। परिवार के व्यस्क सदस्य सिविल सोसायटी की संस्थाओं के प्रभाव में आकर पूंजीवादी-सामंती मूल्यों के वाहक बनते रहते हैं। और अपने विचारों को अपनी अगली नस्ल को अग्रसारित करते हैं। परिवार पर सबसे ज़्यादा प्रभाव धार्मिक पुरोहित वर्ग का होता है जो धार्मिक कर्मकांडों, संस्कारों के माध्यम से उससे सम्पर्क बनाये रखते हैं। यह सभी धर्मो में पाया जाने वाला पुरोहित वर्ग, वाम को धर्मविरोधी मानकर उसका विरोधी होता है। और यथास्थितिवाद व पूंजीवाद के पक्ष में मानसिकता बनाता रहता है। आरएसएस हिन्दुओं के परिवार से पुरोहित वर्ग और धार्मिक आयोजनों के माध्यम से जुड़ा रहता है।

अब हम दूसरी संस्था शिक्षा पर आते हैं तो आरएसएस ने शिशु मन्दिरों के माध्यम से स्कूलों का पूरे देश में जाल सा बिछा दिया। उसके शिशु मन्दिर से उसकी विचारधारा को लेकर निकले छात्र शासन, प्रशासन, न्यायपालिका, पुलिस, सेना, व्यापार, चिकित्सा, कानूनी सेवा आदि सभी स्थानों पर जा बैठे हैं।

आरएसएस के शिक्षा के क्षेत्र में आने से उसको अपने शिशु मन्दिर तथा अन्य शिक्षण संस्थानों में पढ़ाने वाले अध्यापकों की बिना परिश्रमिक के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की एक फ़ौज मिल गई। आज हम देखें तो उसने प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कराने वाली शिक्षण संस्थाओं में भी अपनी पकड़ मज़बूत बना ली है। और उसमें पढ़ाने वाले आरएसएस की सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विचारधारा का प्रचार करते नज़र आते हैं।

वाम के नेतृत्व ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि उसके विरोधी के इस काम से उनको भविष्य में किस तरह की चुनौती मिलने वाली है? इस क्षेत्र को महत्वहीन समझकर या व्यापार का क्षेत्र मानकर ही उसने इस क्षेत्र में आने की कोशिश नहीं की और उसका नतीजा आज हमारे सामने है।

अब हम धर्म पर आते हैं। वाम ने धर्म नामक संस्था को अंधविश्वास और अज्ञान का क्षेत्र मानकर आस्थावान लोगों को कमतर समझते हुये न केवल इसका मखौल उड़ाया बल्कि यह जानते हुए भी इसमें मेहनतकश जनता की बड़ी तादाद मौजूद है, इसको अछूत मानते हुये खुद को इससे अलग-थलग कर लिया। इस तरह यह पूरा मैदान उन्होंने आरएसएस के लिए खाली छोड़ दिया।

वाम के ऐसा करने से दक्षिणपंथी आरएसएस के सामने इस क्षेत्र में अब कोई चुनौती ही नहीं थी। आपने देखा होगा चुनाव से पूर्व ऐसे धार्मिक आयोजनों की बाढ़ सी आ जाती है। और धार्मिक आयोजनों में प्रवचन देने वाले कथावाचक बीच-बीच में टिप्पणी करके चुनाव के समय, भाजपा के पक्ष में जनता की राय का निर्माण करने लगते हैं।

त्यौहारों पर सांस्कृतिक/धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन करने, उनमें बढ़चढ़कर हिस्सा लेने से उनका घनिष्ठ जुड़ाव जनता से बना रहता है। जबकि ऐसे कार्यक्रमों/आयोजनों को वाम हेय दृष्टि से देखते हुये इनसे अलगाव बनाये रखता है।

किसी आस्थावान व्यक्ति के घर में आप जाते हैं तो उसके घर में धार्मिक चिन्ह, देवी देवताओं की तस्वीरें लगी होती हैं तो क्या वह चिन्ह और तस्वीरें आपके वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बदल देंगी, इसलिए इस भय से आप वहां जाना छोड़ देंगे? किसी के दाह या विवाह संस्कार में आप इसलिए शामिल नहीं होंगे कि वह धार्मिक आधार पर किये जा रहे हैं।

समाज में अपनी उपस्थिति बनाये रखने, उनके दुख-सुख में साथ रहने से आपसे उनका जुड़ाव बना रहेगा और तब आप अपनी बात उनमें रख पायेंगे। जिस तरह महाभारत में अभिमन्यु कौरवों द्वारा बनाये चक्रव्यूह के छह द्वार तोड़कर सातवें द्वार में फंस गया था। उसी तरह पूंजीवाद ने वाम को पराजित करने के लिए धर्म के चक्रव्यूह का इस्तेमाल किया।

और आप देखिये कि उसने किस तरह सोवियत संघ को अफ़ग़ानिस्तान की लड़ाई में धर्म के हथियार से पराजित किया। भारत में भी सत्ता तक पंहुचने के लिए दक्षिणपंथ ने धर्म का इस्तेमाल किया। आरएसएस और दक्षिणपंथ धार्मिक मूल्यों, जिसमें कहा जाता है कि सबका मालिक एक है, हर आत्मा में परमात्मा का अंश है, उन पर विश्वास नहीं करता लेकिन अपने पक्ष में जनसहमति बनाने और अपने विरोधी को हराने के लिए वह धर्म का कुशलता पूर्वक इस्तेमाल करता है।

वाम को अपनी सोच और रणनीति इस मैदान के लिए बदलनी होगी और उसे भी इस मैदान से बाहर रहकर नहीं, अंदर घुसकर विरोधी को मात देनी होगी। वाम को मेरा सुझाव अजीब लग सकता है लेकिन यह युद्ध है जिसमें अंतिम लक्ष्य जीतना होता है। इसलिए अगर इस युद्ध में हमारे हथियार काम नहीं कर रहे हैं तो दुश्मन के हथियार छीनकर उनका इस्तेमाल करना होगा।

वामपंथी सोच के जो लोग सोशल मीडिया पर धर्म का मखौल बनाने में लगे रहते हैं उनको अपनी अब तक की कोशिशों का आलोचनात्मक विश्लेषण करना चाहिये कि वह अपने आसपास के या अपने परिवार के कितने लोगों को धर्म विमुख कर पाये और कितनों को वाम विरोधी?

ग्राम्शी ने आर्गेनिक बुद्धिजीवियों की श्रेणी में परम्परागत बुद्धिजीवियों को रखा है। यह लोग पुरानी सामंती व्यवस्था के आर्गेनिक बुद्धिजीवी होते हैं। जिनका धर्म के क्षेत्र में आज भी अच्छा प्रभाव होता है। इनमें से कुछ नई पूंजीवादी व्यवस्था से खिन्न होते हैं। इसलिए वामपंथियों को इनसे भी सम्पर्क करना चाहिये और उन्हें अपने पक्ष में लाने की कोशिश करनी चाहिये।

अब हम मीडिया पर आते हैं। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के शुरुआती सालों में इस पर महत्वपूर्ण काम किया गया। प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा जैसे सांस्कृतिक संगठनों ने मीडिया में अच्छी पकड़ बनायी। ब्लिटज़ जैसे साप्ताहिक जनपक्षीय अख़बारों ने वाम के पक्ष में जन सहमति बनाने का काम शुरू किया।

सोवियत संघ से आने वाली पुस्तकें, उनकी प्रदर्शनी के आयोजन, पीपीएच जैसे प्रकाशन, साहित्यिक संगठन, पत्रिकाओं ने इस काम को विस्तार दिया। वाम संस्कृतकर्मियों ने इसमें काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कुर्बानियां दीं, लेकिन सोवियत संघ के 1991 में विघटन के बाद जो निराशा और हताशा का वातावरण पैदा हुआ इस काम में कमी आती चली गई।

कम्युनिस्ट पार्टियों में युवाओं की आमद शिथिल पड़ने लगी। उम्र दराज़ पार्टी कार्यकर्ता निराशा, ऊब, सुस्ती और थकान से भर उठे। भाजपा ने जनता पार्टी के शासन में बहुत सोच समझकर सूचना एंव प्रसारण मंत्री का पद संभाला और मीडिया में अपनी विचारधारा के लोगों को प्रवेश दिलाया। वाम को भी यह अवसर मिला एक बार तब जब ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव था। और दूसरी बार 2004 में जब वाम ने बाहर से कांग्रेस को समर्थन दिया।

इस अवसर का उपयोग मीडिया व अन्य महत्वपूर्ण विभागों/मंत्रालयों में अपनी विचार धारा के लोगों को प्रवेश दिलाने में हो सकता था लेकिन वाम ने इसे गंवा दिया जबकि आरएसएस ने ऐसे किसी भी अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया।

संचार माध्यम के क्षेत्र में इन्टरनेट और सोशल मीडिया का आना एक बहुत बड़ी सूचना क्रांति का होना था। पूंजीवाद ने इसका अविष्कार हालांकि बाज़ार के लिए किया था लेकिन जल्द ही उसको यह अहसास हो गया कि इस हथियार का इस्तेमाल राजनीति में किया जा सकता है।

ग्राहक को दूसरे उत्पाद से हटाकर अपने उत्पाद की ओर लाने के लिए जो प्रचार और विज्ञापन मनोविज्ञान का इस्तेमाल किया जा रहा था उसका मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए होने लगा। भारत में भाजपा ने डिजिटल पोलिटिकल मार्केटिंग की इस तकनीक को सबसे पहले इस्तेमाल करना शुरू किया।

यह कोई हैरानी की बात नहीं होगी कि 2014 का चुनाव बीजेपी ने प्रचार की इसी आधुनिक तकनीक के बल पर जीता। प्रचार के इस हथियार की मारक क्षमता बहुत दूर तक है लेकिन वाम इस मामले में पिछड़ गया। कम्युनिस्ट पार्टियों में उम्र दराज़ लोगों की तादाद अधिक होने के कारण वह प्रचार के परम्परागत तरीकों से चिपटे रहे और सोशल मीडिया की नई तकनीक से अपना मानसिक तालमेल नहीं बिठा पाये।

अगर आप सरकार चला रहे हैं तो किसी परियोजना को शुरू करने से पहले उसके प्रति प्रचार के माध्यम से जन सहमति बनाना ज़रूरी है। लेकिन पश्चिम बंगाल में वाम ने खुद पर अतिविश्वास के चलते इस काम को नहीं किया जिसके नतीजे में सिंगूर और नंदीग्राम में वाम को विफलता का सामना करना पड़ा। अगर वाम इन परियोजनाओं से पहले उनके पक्ष में धुआंधार प्रचार करता तो ऐसी स्थिति नहीं बनती। ऐसा ही पश्चिम बंगाल में मुसलमानों के मामले में हुआ।

सच्चर कमेटी में बैठे अर्थशास्त्री अबुसालेह शरीफ़ ने अपने पूर्वाग्रह और पुराने आंकड़ों के आधार पर रिपोर्ट में यह लिख दिया कि पश्चिम बंगाल के मुसलमान हर क्षेत्र में अन्य राज्यों से भी खराब हालत में हैं। जबकि वाम मोर्चे की सरकार ने मुस्लिमों के लिए बाक़ी राज्यों की तुलना में बेहतर काम किया था। इसके अलावा वाम का सबसे बड़ा काम 34 साल में साम्प्रदायिकता को हाशिये पर रखना था लेकिन इस प्रचार को वाम विरोधी मुस्लिम संगठनों ने खूब फैलाया और 2011 के विधानसभा चुनाव में इससे वाम को नुकसान हुआ। समय रहते अगर वाम इस प्रचार का युद्धस्तर पर जवाब देता तो हालत ऐसी नहीं होती।

आरएसएस और उसके राजनीतिक मोर्चे भाजपा ने केन्द्रीय सत्ता में आने से पहले न केवल मुख्यधारा के राष्ट्रीय चैनलों, यहां तक कि बाॅलीवुड की फिल्मों को अपने प्रभाव में ले लिया बल्कि सोशल मीडिया पर ज़बरदस्त उपस्थिति दर्ज कराई। यू-ट्यूब पर सैकड़ों चैनल चाहे वह ज्योतिष, अध्यात्मिक, सिविल सर्विस कम्पटीशन, योग और चिकित्सा, वैवाहिक आदि के हों सब ही भाजपा के पक्ष में जन सहमति निर्माण करते नज़र आते हैं।

सोशल मीडिया पर मौजूद इन्फ्लूएन्शर का कुशल प्रबंधन बीजेपी के मीडिया मैनेजर करते हैं और उनमें से अधिकांश अपने फ़ालोअर के बीच बीजेपी का प्रचार करते नज़र आते हैं। इन्फ्लूएन्शर वह होते हैं जिनके सोशल मीडिया पर एक हज़ार से 10 लाख या उससे ज़्यादा फ़ालोअर होते हैं। कहते हैं कि बीजेपी ने अपने व्हाटसअप ग्रुप से 18 करोड़ लोगों को जोड़ रखा है। उसका आईटी सेल इसका प्रबंधन करता है। जो सामग्री वह तैयार करता है उसका ईको सिस्टम सब जगह फ़ैलाने की क्षमता रखता है। वह नए नरेटिव गढ़ता है और लोग उसमें इस या उस ओर से होने वाली बहस में उलझ जाते हैं।

वाम के हाथ से पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा निकलने के पीछे उसकी सोशल मीडिया पर कम उपस्थिति और उसका प्रचार प्रबंधन और प्रचार के पुराने तौर-तरीके हैं। प्रोपेगन्डा की एक तकनीक नेमकालिंग होती है जिसमें अपने विरोधी को नाम दिया जाता है। बीजेपी आईटी सेल ने जेएनयू की घटना के समय टुकड़े-टुकड़े गैंग नाम दिया। एक चैनल ने पंच मक्कार के नाम से पूरी सीरीज़ प्रचारित की। ज़हरीला वामपंथ नाम से किताब प्रकाशित हुई।

लेकिन वाम का कोई भी सांस्कृतिक मोर्चा इस टक्कर का नाम आरएसएस या बीजेपी को नहीं दे पाया बल्कि ऐसे नाम दिये गये जो बजाये बीजेपी की छवि घूमिल करने के उसको लाभ पंहुचा रहे हैं, जैसे हिन्दुत्ववादी, भगवाधारी आदि। यह नाम उसे हिन्दू और हिन्दू संस्कृति का पक्षधर होने का प्रमाणपत्र और दे देते हैं।

आरएसएस ने सोशल मीडिया का इतना बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया कि अब अगर वह सुबह और शाम को शाखायें नहीं भी लगाये तो उसकी सोशल मीडिया पर लाखों शाखायें 24 घंटे सातों दिन लग रहती हैं जिन पर उनके बौद्धिक लगातार बहल चला रहे होते हैं। इस तरह बिना आरएसएस में शामिल हुये भी लोग उसकी विचारधारा को प्रचारित कर रहे हैं जबकि वामपंथी पार्टियों की शाखायें डीसी से डीसी लगती हैं। आमतौर पर केन्द्र से आने वाले प्रोग्रामों को ही राज्य और ज़िला कमेटियां अमल में लाती रहती हैं। उनमें स्वंय पहल करने की आदत खत्म हो गई है।

वाम ने सोशल मीडिया का अभी तक योजनाबद्ध तरीके से बतौर हथियार इस्तेमाल नहीं किया है। हो सकता है उसने कोई आईटी सेल खोल लिया हो लेकिन उसके बारे में कोई भी जानकारी उसके सदस्यों को नहीं है तथा उसका काम कहीं नज़र नहीं आ रहा है। एक दो प्रोगाम इस पर हुये भी लेकिन रस्म अदायगी जैसे, क्योंकि उसको निरंतरता नहीं दी गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के यूट्यूब पर एक करोड़ सब्सक्राइबर हो गये हैं लेकिन सीपीएम/सीपीआई/सीपीआई एमएल लिब्रेशन के आफ़ीशियल राष्ट्रीय यूट्यूब चैनल मौजूद तो हैं लेकिन उनके सब्सक्राइबर और उस पर वीडियो बहुत कम पड़े हैं।

जैसे सीपीआईएम स्पीक के 9360 सब्सक्राइबर और उस पर 451 वीडियो, सीपीआई के 1270 सब्सक्राइबर 94 वीडियो, सीपीआई एमएल के 5880 सब्सक्राइबर 178 वीडियो मौजूद हैं। हां सीपीआईएम पश्चिम बंगाल के यूट्यूब पेज पर 1 लाख 80 हज़ार सब्सक्राइबर 8400 वीडियो, केरल सीपीएम के 1 लाख 47 हज़ार सब्सक्राइबर और 1300 वीडियो हैं जबकि बीजेपी के 46 लाख सब्सक्राइबर और उस पर 33 हज़ार वीडियो पड़े हैं।

भारतीय जनता पार्टी के कई नेताओं के राष्ट्रीय यूट्यूब चैनल हैं। कांग्रेस का भी नेशनल चैनल है। सपा का भी है। अखिलेश यादव का अलग है, लेकिन वाम की बड़ी पार्टियों के किसी केन्द्रीय नेता का यूट्यूब चैनल नहीं है। हालांकि सोशल मीडिया पर वाम की उपस्थिति बढ़ी है लेकिन वह सुनियोजित नहीं है। आधे मन से इस मोर्चे पर काम करने का नतीजा है कि वाम लोगों की आम राय बनाने वाले सूचना के इस हैरत अंगेज़ हथियार को इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है। आप देखेंगे कि इन चैनलों पर जो वीडियो पड़े हैं उनको देखने वालों या लाइक करने वालों की संख्या इतनी ज़्यादा सदस्यता वाली पार्टी होने के बावजूद न के बराबर है।

जिस तरह वाम किसी राष्ट्रीय प्रदर्शन को सफल बनाने के लिए लाखों लोगों को जोड़ने की कोशिश करता है, अगर सोशल मीडिया से अपने सदस्यों को जोड़ने की भी ऐसी ही कोशिश करें तो नतीजे कुछ और ही होंगे। बीजेपी के सोशल मीडिया प्रबंधन की ऐसी नीति है कि उसके किसी एक चैनल के सब्सक्राइबर ही उसके अन्य चैनलों के भी सब्सक्राइबर बन जाते हैं और उतनी संख्या ही जब अन्य चैनलों को देखने, लाइक करने और फ़ारवर्ड करने लगती है तो उन चैनलों की यूट्यूब से कमाई अलग से होने लगती है।

वामपंथी पार्टियां इस तरीके को इस्तेमाल करें तो उसके चैनलों को भी इस तरह की कमाई होने लगेगी। आज के दौर के मशहूर लेखक युवल नोहा हरारी ने अपनी किताब होमोडूअस में लिखा कि आज के दौर की तकनीकी क्रांति से दो वर्ग पैदा हो रहे हैं एक वह जो इस सूचना और डेटा विज्ञान का माहिर है और दूसरा वह जो इस मामले में पिछड़ गया है। आने वाली शताब्दी में पहला वाला वर्ग दूसरे वर्ग को ग़ुलाम बना लेगा।

बहुसंख्यक आम जनता तक बात पंहुचाने का माध्यम भाषा होती है लेकिन जिस भाषा का इस्तेमाल वाम करता है वह सामान्य लोगों की भाषा नहीं है। त्रिपुरा विधानसभा चुनाव का विश्लेषण लल्लनटाॅप पर मौजूद है, उसमें एंकर सौरभ द्विवेदी ने वाम के बारे में बताया, “उन्होंने उस भाषा को नहीं पकड़ा जिसमें वोटर बात करता है। त्रिपुरा में बीजेपी रोज़गार को लेकर किये अपने वायदों को लेकर बड़े सवालों के घेरे में रही, चाहे वह शिक्षकों की भर्ती हो या हर साल 50 हज़ार नौकरियों का वायदा हो, लेकिन लेफ़्ट फ्रंट ने कहा कि भाजपा के रहते लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन हुआ, फ़ासिज़्म की आहट आई। अब यह एक्सपर्ट बता सकते हैं कि इस भाषा से वोटर ने कितना कनेक्ट किया?”

वाम की चाहे प्रकाशित सामग्री हो या बातचीत, उसमें क्लिष्ट वामपंथी शब्दावली की भरमार होती है जो आम लोगो की समझ में नहीं आती। इसलिए बुर्जुआ, सर्वहारा, साम्राज्यवाद, साम्यवाद, फ़ासीवाद, संशोधनवाद, शोषण आदि शब्दों के ऐसे पर्यायवाची ढूंढने होंगे जो आम जनता की समझ में आते हों। वाम के सांस्कृतिक मोर्चे पर काम कर रहे लेखक संघों के साहित्यकारों की भाषा, एक खास सभ्रांत शहरी शिक्षित वर्ग की समझ में आती है जिसकी तादाद अधिक नहीं है। उसमें बौद्धिकता जरूर है लेकिन प्रस्तुति में रोचकता नहीं होने के कारण सामान्य लोगों को प्रभावित नहीं करती।

मिसाल के तौर पर राजेश जोशी की वह कविता जिसका शीर्षक, “मेरा टेलीफ़ोन नम्बर बदल गया” जो यूट्यूब पर पड़ी है, उसको चार साल में 1597 लोगों ने देखा और 45 लोगों ने लाइक किया जबकि भोजपुरी की गायिका नेहा सिंह राठौर, जो सामान्य लोगों की समस्याओं को अपने गीतों में उठाती हैं उसके गीत, ‘घटल बा कमाई बढ़ल जाता मंहगाई’ को 9 दिन में 3 लाख 27 हज़ार लोगों ने देखा और 13 हज़ार ने लाइक किया।

अब एक और मिसाल सहमत द्वारा 12 अप्रैल 23 को मनाये जाने वाले नेशनल स्ट्रीट थेटर डे के पोस्टर की लेते हैं जिसमें चित्र के तौर पर जतिन दास की पेन्टिंग को लगाया गया है। यह पेन्टिंग किसी आर्ट गैलरी में प्रदर्शन के लिए सही है लेकिन आम जनता के बीच किये जाने वाले नुक्कड़ नाटक की सूचना देने वाले पोस्टर में इस तरह की पेन्टिंग जिसको समझने के लिए नुक्कड़ पर खड़े आदमी को ज़ेहन पर ज़ोर देना पड़े और तब भी उसकी समझ में उसका साफ़ मतलब न आये तो इसका कोई लाभ नहीं।

पिकासो की पेन्टिंग ‘गुईर्निका’ हर एक की समझ में आने वाली नहीं है इसलिए उसका हर जगह इस्तेमाल नहीं हो सकता। नेट पर ऐसी ह़ज़ारों पेन्टिंग मौजूद हैं जो सीधी बात कहती हैं या आम आदमी की संवेदनाओं को सीधे झकझोर सकती हैं। उनमें से किसी को चुनने के स्थान पर ऐसे दुरूह मार्डन आर्ट को लगाना उस मानसिक खाई को बताता है जो महानगरीय सभ्रांत वर्ग और सड़क के आम आदमी के बीच मौजूद है।

बीजेपी का बहुत बड़ा आधार दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं। उन तक अपने संदेश बीजेपी और आरएसएस कैसे पंहुचाती है, उसको जानने के लिए आपको कांवर यात्रा में बजने वाले गीतों को सुनना होगा। कथा वाचकों की शैली का अध्ययन करना होगा। उस सरल और रोचक भाषा शैली और प्रस्तुति का नाटकीय अंदाज़ अपनाना होगा जो आम जनता की समझ में आसानी से आ सके।

कुछ बातें वाम की संगठात्मक कार्यशैली पर। बदलाव चाहे वह वेशभूषा में हो, खानपान में अथवा जीवन के किसी अन्य क्षेत्र में, यह मानव के स्वभाव का ज़रूरी हिस्सा है। एकरसता ऊब को जन्म देती है इसलिए वाम को भी अपनी कार्यशैली में बदलाव लाना चाहिये। बरसों से वाम के गिने चुने जनसंगठन काम कर रहे हैं, उनमें विविधता लानी चाहिये। युवाओं में अनेक प्रकार के संगठनों को बनाना चाहिये। शिक्षा में केवल छात्र संगठन नहीं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के चैनल भी खोले जाने चाहिये।

खेल प्रतियोगिता की तैयारी कराने वाले ग्रुपों का गठन भी करना चाहिये। महिलाओं के लिए केवल एक संगठन नहीं बल्कि और कौन कौन से संगठनों में उनको जोड़ा जा सकता है उनकी तलाश करनी चाहिये। मज़दूर संगठनों द्वारा केवल मज़दूरों ही नहीं उनके परिवार को भी जोड़ने की कोशिश होनी चाहिये।

वाम ने आंगनबाड़ी यूनियन के माध्यम से केवल आर्थिक आधार पर महिलाओं को जोड़ा है। उन्हें उनकी रुचि के अन्य क्षेत्रों में भी लाना चाहिये। बच्चों को वाम ने बिल्कुल छोड़ दिया है जबकि आरएसएस बहुत छोटी उम्र में उनको अपने संगठन से जोड़ लेता है। उनके लिए योजना बनानी चाहिये। सोवियत संघ से बच्चों के लिए चित्र कथाओं पर आधारित किताबें आती थीं, उसके बंद हो जाने के बाद अब यह लेखक संघों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह इस पर काम करें। वृद्धों की समस्या क्या है इस पर ग़ौर करना चाहिये और उन्हें उसके अनुसार जोड़ा जाना चाहिये।

सांस्कृतिक गतिविधियों में नवीनता लानी चाहिये। वाम अपने सदस्यों के ज्ञान को बढ़ाने के लिए क्लास के कार्यक्रम आयोजित करता है लेकिन क्लास में पढ़ाये जाने वाले विषय और उनको पढ़ाने के तरीके बहुत पुराने हो चुके हैं, उसमें नवीनता लानी चाहिये। जिस तरह ज्ञान आगे बढ़ रहा है उसके अनुरूप स्कूलों में सिलेबस में बदलाव हो रहा है। अगर सिलेबस का नवीनीकरण नहीं किया जाये तो ज्ञान में पिछड़ना होगा। इसलिए क्लास के सिलेबस में मार्क्सवाद की बुनियादी जानकारी के अलावा नये विषयों को शामिल करना चाहिये।

प्रचार मनोविज्ञान, हर्ड एवं क्राऊड मेन्टेलिटी, सोशल मीडिया आज के ऐसे ज़रूरी विषय हैं जिन्हें पार्टी सदस्यों की क्लास में शामिल करना चाहिये। एक और बात जब आप शिक्षा का कार्य करते हैं, चाहे वह स्कूल की हो या राजनीति की, तब छात्रों की क्लास लेने के बाद उनका इम्तिहान और प्रेक्टिकल लेना ज़रूरी है। वर्ना आपका पढ़ाया हुआ उनकी समझ में आया है या नहीं या उसको वह व्यवहार में लागू कर सकते हैं या नहीं इसका पता कैसे चलेगा?

लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों में क्लास तो हैं लेकिन प्रेक्टिकल और इम्तिहान नहीं है। यही कारण है कि बरसों से क्लास में बैठने वाले न तो सही तरीके से खुद मार्क्सवाद को समझ पाते हैं और न जनता को आगे समझा पाते हैं। अगर वह खुद पढ़ाने में सक्षम हों तो ज़िले में उनको मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांत को पढ़ाने के लिए प्रदेश के नेतृत्व पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा।

कम्युनिस्ट पार्टियां अपने मुखपत्र प्रकाशित करती हैं लेकिन उन पत्रों की भाषा रोचक नहीं होती तथा उसमें अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद आमतौर पर भावानुवाद नहीं होते। इसलिए ज़्यादातर लोग उसकी हेडलाइन पढ़कर छोड़ देते हैं। उनका गैटअप भी आकर्षक नहीं होता इसलिए इसमें बदलाव लाना चाहिये। मिसाल के तौर पर पार्टी सदस्य लोकलहर को मंगा तो लेते हैं लेकिन प्रभात पटनायक जैसे विद्वानों के लेखों का सरल अनुवाद नहीं होने के कारण बहुत कम लोग उसे पढ़ते हैं। जो पढ़ते भी हैं, उनको समझने में दिक्कत आती है।

पूंजीवाद अपने प्रोडक्ट की पसंद और ज़रूरत को जानने के लिए मार्केट रिसर्च कराता है। उसके आधार पर वह उसकी क्वाालिटी, विज्ञापन और पैकेजिंग में परिवर्तन करता है। वाम को भी अपने मुखपत्र का आकलन करने के लिए इस तरह का सर्वे करना चाहिये ताकि पाठकों की राय का पता चल सके और उनके सुझाव के अनुसार उसमें परिवर्तन किया जा सके।

उपरोक्त विवरण का सार यह है कि ग्राम्शी जिस कल्चरल हेजेमोनी की बात करते हैं यानि जनता के दिमाग़ पर सांस्कृतिक अधिपत्य क़ायम करने के लिए पूंजीवाद जिन सिविल सोसायटी की संस्थाओं का इस्तेमाल करता है, उनमें से परिवार, शिक्षा, धर्म और मीडिया पर वाम का प्रभाव नहीं है। यही कारण है कि भारत ही नहीं पूरी दुनिया में वह पूंजीवाद से पिछड़ रहा है। दुनिया भर के 90 प्रतिशत संचार माध्यमों पर पूंजीवादी कब्ज़ा होने का नतीजा है कि वह बच्चों के वीडियो गेम, कार्टून फ़िल्मों, हाॅलीवुड से बनने वाली युद्ध फ़िल्में सभी के द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था के पक्ष और समाजवादी व्यवस्था के विरुद्ध जनसहमति निर्माण करता रहता है।

इसका हल यही है कि वाम ने सिविल सोसायटी के जिन क्षेत्रों को पूंजीवाद के लिए खाली छोड़ दिया है उस पर अभी से काम शुरू किया जाये। एक दीर्घकालीन और एक अल्पकालीन योजना बने। जिस तरह पूरानी हवेली जिसका रंगरोग़न फीका पड़ गया है, पलास्तर जगह-जगह उखड़ रहा है, ऐसी हवेली न उसमें रहने वालों और न बाहर वालों को आकर्षित करती है।

कुछ इसी तरह राजनीतिक पार्टी का हाल हो जाता है। इसलिए उसको फिर से रंगरोग़न, मरम्मत और सजावट करने की ज़रूरत पड़ती है। बिना जनता को पार्टी के विचारों की ओर आकर्षित किये उनके दिमाग़ पर सांस्कृतिक अधिपत्य क़ायम नहीं किया जा सकता और बिना सांस्कृतिक अधिपत्य को क़ायम किये आप न पूंजीवाद और न ही फ़ासीवाद को हरा सकते हैं।

(लेखक मुशर्रफ अली जनवादी लेखक संघ से जुड़े हैं और आजकल मुरादाबाद में रहते हैं।)

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रामप्रकाश कुशवाहा
रामप्रकाश कुशवाहा
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10 months ago

मुस्लिम समाज के दक्षिण पंथ को संरक्षित करते हुए हिन्दुत्ववादी दक्षिण पंथ पर विचार करना एक ऐतिहासिक और वैचारिक धोखाधड़ी थी । इसी अपराध में वह देश के इतिहास से खारिज भी हुआ। वामपंथियों को सबसे पहले आधुनिक नागरिक समाज बनाने पर काम करना था । उसने क्रांतिकामी बुद्धिजीवियों को उस पंक्ति में ले जाकर खड़ा कर दिया जहाँ चंबल के डाकू खड़े थे ।

M Tanvir
M Tanvir
Guest
10 months ago

अक्षरशः सत्य विश्लेषण

जीवन
जीवन
Guest
10 months ago

कितना झूठ और नफरत फैलाओगे।

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लोकतंत्र का संकट राज्य व्यवस्था और लोकतंत्र का मर्दवादी रुझान

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