भगत सिंह।

भगत सिंह के सपनों का भारत बनाम ‘हिन्दू राष्ट्र’

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का आज 113वां जन्म दिवस है। आज तो उन्हें याद करना बनता ही है। देश की आज़ादी के लिए बेशक अन्य हजारों क्रांतिकारियों और स्वतन्त्रता सेनानियों ने भी कुर्बानियां दी हैं। उनके बलिदान को कम करके नहीं देखा जा सकता लेकिन शहीद भगत सिंह को बार-बार हम इसलिए याद करते हैं क्योंकि एक आत्मबलिदानी क्रांतिकारी होने के साथ-साथ वह एक महान चिंतक भी थे। फांसी का फंदा उन्होंने मशहूर हो जाने के लिए नहीं चूमा था बल्कि जैसी आज़ादी, समानता और सामाजिक न्याय का सपना उन्होंने देखा था उस चिंतन को सभी भारतीय युवाओं तक पहुँचने के लिए ही यह रास्ता चुना था। आज उनके चिंतन पर पुनर्विचार करने की प्रासंगिकता इसलिए भी बढ़ गयी है क्योंकि ऐसा देश में कई जानी-मानी हस्तियाँ यह मानने लगी हैं कि पिछले छह वर्षों के दौरान जो साधू-सपेरे और महंतों के डेरे सत्ता पर क़ाबिज़ हो गए हैं और जिस नए भारत का निर्माण किया जा रहा है यह शहीद-ए-आज़म भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के सपनों का भारत नहीं है। 

कैसा था भगत सिंह के सपनों का भारत? इसे जानने के लिए चलिये बात शुरू से शुरू करते हैं।  

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में मिली पराजय के बाद बमुश्किल 15 साल ही बीते होंगे कि एक बार फ़िर भारतीय युवाओं ने ब्रिटिश राज के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया था। क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों का मकसद यह नहीं था कि आम जनता को ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ बगावत के लिए एकजुट किया जाये बल्कि यह ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या करके उनके अंदर खौफ पैदा करना चाहते थे। ताकि वह डर कर भाग जाएं। वह सरकारी खजाने या बैंक लूट कर हथियार खरीद रहे थे या फिर सेना में षड्यंत्र से तख्ता पलट करके अंग्रेजों को यहाँ से भगाना चाहते थे।

क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के क्षितिज पर भगत सिंह (1907-1931) के उदय से पहले क्रांति का मतलब मुख्यत: बम, पिस्तौल, हत्या, षड्रयंत्र और अंतत: बलिदान ही था। भगत सिंह और उनके साथियों द्वारा बनाये गये दो संगठनों नौजवान भारत सभा और हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक एसोसिएशन ने इस स्थापित समझ में दो बड़े परिवर्तन किये। पहला, आतंकवादी कार्रवाइयाँ जारी रखते हुए भी क्रांतिकारियों की नयी पीढ़ी ने उसके बुनियादी मुहावरे और नारों को अधिक सेकुलर और जनोन्मुख बना दिया।

‘वंदे मातरम’ की जगह ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘डाउन विद इम्पीरियलिज़म’ जैसे नारों ने ले ली। दूसरा, राष्ट्रवाद के इस संस्करण को सुचिंतित रूप से किसानों, मज़दूरों और छात्रों के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया। हालांकि अपने दूसरे लक्ष्य में वे एक सीमा तक ही सफल हो पाए, लेकिन उनकी गतिविधियों और बेमिसाल कुर्बानी ने उन्हें उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की समांतर धारा के रूप में एक अनूठी पहचान दिलायी जो आज़ तक कायम है।

उन्हें पूरा यकीन था कि एक दिन भारत की जनता ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकेगी लेकिन वह मुकम्मिल आज़ादी चाहते थे। यह भी नहीं चाहते थे कि विदेशी गोरे शासकों के हाथों से सत्ता देसी भूरे शासकों के हाथ में आ जाए और गरीब मजदूर-किसान का शोषण उसी तरह से जारी रहे। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब एक लोकतान्त्रिक देश के प्रधानमंत्री मोदी ने एक तानाशाह की तरह सिर्फ़ चार घंटे की मोहलत के साथ कोरोना के नाम पर देश भर में ताला बंदी की और उसके बाद करोड़ों मजदूरों की क्या दुर्गति हुई उसे किसी को बताना नहीं है। सड़क पर मारे हुए कुत्ते का मांस खाते मजदूर की तस्वीर कोई जीते-जी भूल सकता है। जिन रेल पटरियों पर सुस्ताते मजदूरों के ऊपर से रेलगाड़ी गुज़र गई थी उन पर आज देश भर के किसान लेटे हुए हैं। मजदूर-किसानों के लिए जिस सामाजिक न्याय या समानता की बात भगत सिंह अपने लेखों में करते हैं वह क्या इस देश में कहीं दूर-दूर तक दिखाई देती है?

अपने एक आलेख में भगत सिंह लिखते हैं ‘लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति है, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का यत्न करो’।

दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा में बीजेपी और आरएसएस की भूमिका पर बात करना जरूरी हो ही जाता है क्योंकि सांप्रदायिक-हिंसा एक ऐसा मुद्दा था जिस पर भगत सिंह के लिखे इन शब्दों पर नज़र डालें- ‘भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी।

यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि फला आदमी दोषी है, वरन् इसलिए कि फला आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है। ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नज़र आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है’। 

जिस नेता ने मुसलमानों के लिए यह नारा लगाया था कि ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’ वह आराम से अपने घरों में बैठे हैं और योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, अपूर्वानंद, हर्ष मंदर जैसे अनेकों लोगों को साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने के नाम पर घेरा जा रहा है और पुलिस–अदालतें इस तरह से सरकार के साथ घी-खिचड़ी हो गयी हैं जैसे यहाँ पेशेवर अपराधियों का कोई माफिया काम कर रहा हो। इस सब को देखते हुए भगत सिंह की जेल डायरी में लिखे इस नोट पर ध्यान जाना स्वाभाविक है – ‘एक अत्याचारी शासक के लिए जरूरी है कि वह जाहिर तौर पर धर्म में असाधारण आस्था दिखाए। जालिम को धर्म के प्रति समर्पण का बहुत अच्छा मुखौटा पहनना पड़ता है। प्रजा उस शासक के गैर-कानूनी व्यवहार पर कम शंका करती है, जिसे वह ईश्वर से डरने वाला और धार्मिक समझती है। दूसरी ओर वह उसकी खिलाफत कम करती है, यह भरोसा करते हुए कि ईश्वर उसकी तरफ है’। 

प्रधानमंत्री इसीलिए कहीं भी मंदिर ढूंढते हुए देखा जा सकता है लेकिन भगत सिंह तो राजनीति को धर्म से दूर करने की बात करते हुए लिखते हैं– ‘1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते हैं कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दख़ल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सबको मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसीलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।

पिछले दिनों हुई दिल्ली की हिंसा की अगर बात करें तो हिंसा भड़काने में प्रेस की भूमिका भी बिलकुल साफ है। यही हालात भगत सिंह के समय में भी थे। राज नेताओं के अलावा वह भी देख रहे थे हिंसा भड़काने में यह ‘दूसरे’ कौन हैं? वह लिखते हैं – ‘दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था; आज बहुत ही गंदा हो गया है। यह लोग एक दूसरे के विरुद्ध बड़े-बड़े शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर-फुटौवल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अख़बारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो, बहुत कम हैं’।

भगत सिंह जब अखबारों को अपनी जिम्मेवारियों का निर्वाह करते हुए नहीं देख रहे थे तो उन्हें लिखना पड़ा ‘अख़बारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना। साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिकता बढ़ाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना दिया है। यही कारण है कि भारत वर्ष की वर्तमान दशा पर विचार करने पर रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’ यह सवाल टीवी के सामने बैठे देश के सामने ही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी के सामने आज भी खड़ा है।

वैसे भी जिस आरएसएस से उनका जनम-जनम का साथ है उसके बारे में लिखी शम्सुल  इस्लाम की एक किताब ‘भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन और आरएसएस (एक दास्तान गद्दारी की)’ में ज़िक्र आता है कि आरएसएस ने ना सिर्फ़ क्रांतिकारियों की गतिविधियों से खुद को अलग रखा बल्कि भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, अश्फाकुल्लाह ख़ान जैसे क्रांतिकारियों के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलनों की भी कटु निंदा की। इस किताब के एक आलेख ‘शहादत की परंपरा का तिरस्कार’ में उन्होंने एक घटना का ब्यौरा पेश किया है, जिसमें गुरु गोलवलकर भगत सिंह की शहादत के बाद अपने शिष्य बाला साहब देवरस को समझाते हैं कि ‘…. हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे, नहीं माना है। क्योंकि, अंतत: वे अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफ़लता का अर्थ है कि उनमें कोई गम्भीर त्रुटि थी’। भारत की स्वतन्त्रता के लिए अपना बलिदान देने वाले लोगों की बेशर्मी की हद तक निंदा करने की यह प्रवृति उन्हें अपने गुरु डॉ. हेडगेवार से विरासत में मिली थी। 

आरएसएस की ओर से प्रकाशित हेडगेवार की जीवनी के मुताबिक: ‘कारागार में जाना ही कोई देशभक्ति नहीं है। छिछोरी देशभक्ति में बहना उचित नहीं है’। इस तरह आरएसएस के संस्थापक के मुताबिक भारत की स्वतन्त्रता के लिए अपना बलिदान देने वाले ‘छिछोरी देशभक्ति’ से प्रेरित थे। यही वह कारण रहा होगा जिस वजह से आरएसएस के किसी नेता या कार्यकर्ता ने भारत में ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती नहीं दी। 

इस आलेख में शम्सुल इस्लाम उसी आरएसएस का ज़िक्र कर रहे हैं जो नपुंसक परजीवियों की एक संस्था है और प्रधानमंत्री मोदी उसके आजीवन सदस्य हैं इसलिए प्रधानमंत्री मोदी को शहीद भगत सिंह की वैचारिकता या सपनों से कोई लेना देना होगा, यह उम्मीद रखना मूर्खता ही होगी। बाकी जन्म दिवस या शहादत दिवस पर पुष्पांजलि अर्पित करने की रस्म अदा करना तो निजी सचिव याद दिला ही देते हैं। फोटो खिंचवाना उन्हें खुद ही याद रहता है। 

जब आप जानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी आरएसएस के आजीवन सदस्य हैं और वह स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि मैं हिन्दू राष्ट्रवादी हूँ। आरएसएस वाले मानते हैं कि भारत एक ‘हिन्दू राष्ट्र’ है। उनकी रक्तशिराओं में हिंदुओं को छोड़कर बाकी सभी धर्मों के लिए नफरत कूट-कूट कर भरी हुई है। ऐसे में ज़ाहिर सी बात है कि जिस ‘नए भारत’ का निर्माण वह अमेरिका, अंबानी और अडानी की मदद से कर रहे हैं वह भगत सिंह के सपनों का भारत तो नहीं है। वैसे कुछ समय पहले गृह मंत्रालय ने सूचना के अधिकार के तहत यह माना है कि केंद्र सरकार के पास कोई ऐसा रिकॉर्ड मौजूद नहीं है जिससे शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहीदी रुतबे की प्रामाणिकता सिद्ध होती हो। 

सुना तो मुँह से बस इतना निकला –‘लानत है’। 

वैसे प्रधानमंत्री और देश के उन बच्चों की जानकारी के लिए जिन्होंने उनकी ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ जैसी एक भी किताब नहीं पढ़ी है, बता देना जरूरी हो जाता है भगत सिंह भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाना नहीं चाहते थे। भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ कहना ही उनका और उन सभी क्रांतिकारियों का अपमान है जो भगत सिंह के सपने को अपना सपना मानते थे और जिन्होंने देश के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। 

(देवेंद्र पाल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल जालंधर में रहते हैं।)

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