मोदी सरकार का कोरोना पैकेज़ बना पहेली, जनता के लिए ‘बूझो तो जानें’ का खेल शुरू

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‘यशस्वी’ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुशल नेतृत्व और मार्गदर्शन में ‘कर्मठ’ वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने पाँच दिन तक कोरोना राहत पैकेज़ बाँटने का अखंड यज्ञ किया। ताकि 130 करोड़ भारतवासियों को ‘आत्म-निर्भर’ बनने के लिए 20 लाख करोड़ रुपये का पैकेज़ रूपी प्रसाद बाँटा जा सके। सरकार की ऐसी तपस्या से आपको क्या मिला, या क्या मिलता दिख रहा है, ये आप जानें। सरकार का काम था घोषणाएँ करना, जिसे उसने पूरी ताक़त लगाकर कर दिया। सरकार जिसे जो कुछ भी देना चाहती थी, वो उसने दे दिया है। आपको क्या चाहिए था, इससे उसे कोई मतलब नहीं था। सरकार कोई फ़रमाइशी गीतों का कार्यक्रम नहीं सुना नहीं रही थी कि आप शिकवा करें कि आपकी पसन्द का गाना तो सुनायी ही नहीं। लिहाज़ा, अब आप किसी से कोई सवाल करने की सोचिएगा भी नहीं।

मोदी सरकार की एक बहुत शानदार विशेषता है कि ये किसी की सुनती ही नहीं। न इसे किसी आलोचना से मतलब है, ना फ़ीडबैक से, न ही किसी सुझाव से और ना ही किसी माँग से। प्रधानमंत्री जी को उनके मंत्री तक कोई मशविरा नहीं दे पाते तो आम जनता की कौन कहे। मेनस्ट्रीम मीडिया ने भी जनता का दुःख-दर्द सरकार तक नहीं पहुँचाता। ये कमाई तो जनता से करता है, लेकिन काम सिर्फ़ सरकार के लिए करता है, सरकार की ही बातें करता है, सरकार के गुणगान में इसका जीवन सिमट चुका है, ये सत्ता पक्ष का एक अविभाज्य अंग बन चुका है। इसीलिए इसने भी सरकार को नहीं बताया कि 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज़ के नौटंकी को लेकर आख़िर जनता पर क्या बीत रही है? विपक्ष की आवाज़ कहीं पहुँचती नहीं, उसका भी ग़ला घोंटा जा चुका है। न्यायपालिका और ग़ुहार सुनती है, जिससे ‘सरकार’ ख़फ़ा ना हो।

बीते छह दिनों में शायद ही देश का कोई ऐसा बुद्धिजीवी हो, कोई ऐसा सामाजिक-आर्थिक विषयों का प्रमाणिक विशेषज्ञ हो जिसने कोरोना पैकेज़ के नाम पर ग़रीबों और लाचार लोगों के प्रति सरकार की बेरुख़ी को लेकर उसे चेताया ना हो, ग़ुहार न लगायी हो, फ़रियाद ना की हो, लेकिन इससे निकला क्या? मिला क्या? ग़रीबों और किसानों को सीधी मदद के नाम पर क़रीब 1 लाख करोड़ रुपये उनके जन-धन और अन्य खातों में भेजे गये और उज्ज्वला योजना की लाभार्थियों को मुफ़्त गैस सिलेंडर मिले। आने वाले दो महीनों में राशन कार्ड धारी या राशन कार्ड विहीन कुछेक करोड़ लोगों को सस्ता राशन भी मिल सकता है। और कुछ नहीं। बस, पैकेज़ ख़त्म।

असली कोरोना राहत पैकेज़ की रक़म तो बड़ी मुश्किल से 2 लाख करोड़ रुपये की सीमा को पार कर पाएगी। बाक़ी, सारी बातें भाषण, घोषणाएँ और सपने हैं। सभी पुराने हैं। बासी कढ़ी की तरह, जिसमें उबाल नहीं आता। अलबत्ता, कुछ नयी शब्दावली या जुमलावली ज़रूर बढ़ायी गयी है। लेकिन सारा लब्बोलुआब इसी बात पर है कि जिन्हें-जिन्हें ये लगता है कि वो कोरोना और लॉकडाउन से तबाह हो गये वो कर्ज़ा लेने के लिए आगे आएँ और कर्ज़ा ले जाएँ। मज़े की बात तो ये भी किसान क्रेडिट कार्ड को छोड़कर अन्य कर्ज़ों की ब्याज़ दरों में भी कोई नरमी नहीं लायी गयी। नहीं बताया कि किस-किस तरह के कर्ज़दारों को किस-किस दर पर कर्ज़ मिल सकता है?

नोटबन्दी से लेकर लॉकडाउन तक भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार माँग-पक्ष की मन्दी में धँसती जा रही थी। बैंक कर्ज़े देने के लिए बेताब थे, लेकिन निवेशक आगे ही नहीं आ रहे थे। नौकरियाँ जा रही थीं। छँटनियों का रेला लगा था। रुपया और निर्यात गिरता ही जा रहा था तो पेट्रोल-डीज़ल और रोज़मर्रा की चीज़ों की महँगाई फनफना रही थी। बैंकों में विलय वाला खेल चल रहा था। उनके लुटेरे विदेश में पाये जा रहे थे। हर उस शख़्स पर आयकर, प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई की कृपा बरस रही थी जिन्हें सरकार नापसन्द करने लगी हो। इसीलिए, मोदी सरकार ने यदि कोराना से पहले की दशा को देखकर अपना पैकेज़ डिज़ाइन किया है तो इसमें ग़लत भी कुछ नहीं है। क्योंकि लॉकडाउन से पहले अर्थव्यवस्था जैसे रेंग रही थी, अब यदि वो थम ही गयी तो क्या फ़र्क़ पड़ जाएगा?

सरकार ने बहुत ईमानदारी से जनता को बता दिया है कि हमने उम्मीद रखने के बजाय आत्म-निर्भर बनो। रुपया-पैसा नहीं है तो जाओ, बैंकों से कर्ज़ लो, हमने उन सारी घोषणाओं में हेर-फेर करके देश को फिर से सुना दिया है, जो पिछले छह साल के बजट में कही गयी हैं। बाक़ी जो चाहे वो ये भी ढूँढ़कर देख ले कि नयी बात क्या है? हमें पुरानी बातें, पुराने भाषण, नारे और जुमले याद रखने की आदत नहीं है। इसीलिए, दोहरा दिया है। अब जो मरता है मरे, डूबता है डूबे और तैर सकता है तो तैरे। हमारा काम ख़त्म।

चौथे दिन वित्तमंत्री ने इतनी तो ईमानदारी दिखायी कि उन्होंने पैकेज़ शब्द का राग अलापना बन्द किया और रिफ़ॉर्म का वास्ता देने लगीं। ये भूलवश नहीं बल्कि सुविचारित था। वर्ना, चाहे कोयला या खनन क्षेत्र हो, औद्योगिक ढाँचागत सुविधाएँ, स्वदेशी रक्षा उत्पादन, विमानन, बिजली वितरण सुधार, अंतरिक्ष सेक्टर में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना, इनमें से कुछ भी तो ऐसा नहीं है, जिसे मोदी सरकार कोरोना संकट और लॉकडाउन से पहले विश्व स्तरीय नहीं बना चुकी हो।

इसीलिए अभी एक बार फिर आत्म-निर्भरता की मंगल-बेला पर पैकेज़ में इन क्षेत्रों की बातें करके वित्तमंत्री ने सिर्फ़ इतना ही बताया है कि जो-जो काम सरकारें अभी तक नहीं कर पायीं हैं, उन्हें करने के लिए निजी क्षेत्र के लिए दरवाज़े खोल दिये गये हैं। बाक़ी इसकी गहराई और विस्तार में जाना फ़िज़ूल है। इससे विषयान्तर हो जाएगा। लिहाज़ा, यदि आपको अब ये जानने का कौतूहल है कि 20 लाख करोड़ रुपये के कोरोना पैकेज़ से आपको, ग़रीबों को, किसानों को, मज़दूरों को वास्तव में क्या मिला तो समझ लीजिए कि सरकार आपसे यही पहेली तो बुझा रही है।

(मुकेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। तीन दशक लम्बे पेशेवर अनुभव के दौरान इन्होंने दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, उदयपुर और मुम्बई स्थित न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में काम किया। अभी दिल्ली में रहते हैं।)

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