चुनाव परिणाम 2024 और भाजपा की आक्रामकता

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18वीं लोकसभा के चुनाव में भाजपा का बहुमत तक पहुंचना मुश्किल हो गया। वह 63 सीटों के नुकसान के साथ 240 पर सिमट गई। चुनाव परिणाम आने के बादअचानक मोदी ” मोदी की गारंटी “से एनडीए की सरकार की तरफ पलटी मार गए। चुनाव के पहले मोदी की गारंटी के कर्कश उद्घोष के साथ 400 पर के नारे ने देश के बहुत बड़े जनमानस में भय का सृजन किया था। हार के बुनियादी कारणों में छात्रों युवाओं का आक्रोश शिक्षा रोजगार का संकट विश्वविद्यालयों की तबाही, लीक होते परीक्षाओं के परिणाम, ग्रामीण भारत की बदतर  होती स्थितियां, मजदूरों के वेतन व मजदूरी में कटौती, आउट सोर्सिंग और निजीकरण, विकास के कॉर्पोरेट परस्त मॉडल के कारण रोजगारहीनता, कानून व्यवस्था के नाम पर न्याय की धज्जियां उड़ाते हुए बुलडोजरी न्याय का तांडव, लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमलों के साध‌ भारत की बुनियादी अवधारणा से लड़ते हुए एकात्मक भारत के निर्माण का खतरनाक फासिस्ट खेल, (अंतर्वस्तु में कॉर्पोरेट गठजोड़ वाला हिंदू राष्ट्र),भाषाई क्षेत्रीय धार्मिक अल्पसंख्यकों के दमन और भाजपा के द्वारा पोषित पालित लंपट वाहिनियों का सड़कों पर नंगा नाच, साहित्यकारों लेखकों पत्रकारों पर हमले, सत्ता का क्रूर केंद्रीकरण और लोकतांत्रिक संस्थाओं को मटियामेट करते हुए विपक्षी दलों व असहमत विचारों पर सरकारी जांच एजेंसियों ईडी, आईटी, सीबीआई को बुलडॉग की तरह ललकारते हुए खुला छोड़ देना, संसदीय परंपराओं को बहुमत वादी नजरिए से संचालित करना, इस महादेश को चलाने के लिए फासीवादी रास्ते पर ले जाने की हर संभव कोशिश,संघात्मक गणतांत्रिक भारत के खिलाफ एकात्मक भारत के निर्माण की परियोजना को आगे बढ़ना था।

इस प्रक्रिया में संविधान  को दरकिनार करते हुए मनमाने तौर पर संवैधानिक संस्थाओं को, तोड़ना मरोड़ना और काले कानून की बाढ़ के साथ सत्ता के शीर्ष पर व्याप्त सर्वग्रासी भ्रष्टाचार, “जिसकी परतें 10 वर्ष आते-आते दरकने लगी है और भ्रष्टाचार की दुर्गंध भारतीय जन-गण गहराई से महसूस करने लगा है-”  की स्थिति में बिखरे हुए विपक्ष का इंडिया गठबंधन के रूप में एक मंच पर आना। जनता के परिवर्तनकारी विश्वास को नई ताकत दे दिया था। 

मोटे तौर पर इन सन्दर्भों में भाजपा की पराजय को देखा जाना चाहिए। जिस कारण ग्रामीण क्षेत्र में 159 सीटों पर भाजपा की करारी हार हुई तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों, एथेनिक समूहों, दलितों महिलाओं के एकजुट हो जाने से भाजपा के विभाजनकारी हिंदुत्व के एजेंडे को करारी चोट पहुंची। चुनाव अभियान के दौरान मोदी मुस्लिम विरोधी एजेंडे पर डटे रहे और अल्पसंख्यकों पर अनर्गल बातों को आधार बनाकर हमले करते रहे। हिंदू समाज को झूठे कारण दिखाकर डराने की कोशिश करते रहे।

लेकिन जनता अपने बुनियादी सवालों पर डटी रही। छात्र युवा शिक्षा रोजगार , किसान मजदूर खेती किसानी को बचाने, नौकरी वेतन और जीवन सुरक्षा की गारंटी, महिलाएं अपने सम्मान इज्जत की सुरक्षा, अल्पसंख्यक और दलित समाज दमन उत्पीड़न और सम्मान जनक जीवन की सुरक्षा की गारंटी, महंगाई कानून व्यवस्था के खराब हालात आदिवासी और जनजातियां जल जंगल जमीन के एजेंट से विचलित नहीं हुई। मणिपुर से लेकर लद्दाख तक के नागरिक अपने लोकतांत्रिक अधिकार, शांति सुरक्षा के सवालों के साथ कॉर्पोरेट कंट्रोल्ड भारत के खिलाफ संघर्ष में डटे रहे।

भाजपा के संविधान लोकतंत्र विरोधी चरित्र को देखते हुए आम नागरिकों ने एकजुट होकर  संविधान लोकतंत्र और आजादी बचाने के सवाल को चुनावी मुद्दा बनाये रखा। जिस कारण भाजपा के सांप्रदायिक नफरती विभाजनकारी अकूत धन केंद्रित आक्रामक चुनाव अभियान कोई ठोस विमर्श नहीं खड़ा कर सका। सत्ता का नग्न दुरुपयोग चुनाव आयोग की भाजपा के प्रति स्वामि भक्ति और नौकरशाही की खुली पक्षधरता के बावजूद मोदी की हार ने देश के जनमानस को एक नए तरह के आत्मविश्वास से भर दिया है। चुनाव के ठीक बाद नीट के भ्रष्टाचार के खिलाफ छात्रों नौजवानों का सड़क पर आना इस बात की  गवाही दे रहा है कि मोदी की चुनावी पराजय से जनता में लड़ने का साहस पैदा हुआ है। जिससे लोग मोदी की तीसरी बार सरकार बनने के ठीक बाद आतंक और भय की राजनीति को खारिज करते हुए सड़कों पर आ गए हैं।

मोदी- 3 को लेकर राजनीतिक विश्लेषकों की धारणाएं व मूल्यांकन अलग-अलग हैं। बहुमत से 33 सीट दूर रह जाने के बाद मोदी को गठबंधन की सरकार बनानी पड़ी। 10 वर्षों बाद मोदी की जुबान पर  एनडीए का नाम आया। नहीं तो मोदी ,भाजपा की सरकार कहने से भी बचते थे। चूंकि भाजपा के मुकाबले एक मजबूत विपक्ष है और मोदी को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ है।इसलिए राजनीतिक विश्लेषकों  का मानना है कि भारत में फासीवाद की  परियोजना को भारी धक्का लगा है।

भारत की भौगोलिक और सामाजिक सांस्कृतिक विविधता ने मोदी सत्ता के खिलाफ 24 के चुनाव में महत्वपूर्ण रोल अदा किया है। पिछले 10 वर्षों में इसी विविधता में सन्निहित एकता को नष्ट करने की  कोशिश मोदी के नेतृत्व में आरएसएस नीति भाजपा सरकार करती रही थी। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान साझा दुश्मन के खिलाफ लड़ते हुए भारत की जनता में एक हद तक सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता निर्मित हुई है। जो सामान्य दिनों में तो एक दूसरे से टकराती हुई दिखती है। लेकिन विशेष परिस्थितियों में जब देश की एकता और स्वतंत्रता पर खतरा दिखाई देता है तो यह अर्जित एकता मजबूती से अपनी भूमिका निभाती है। विश्लेषकों की राय में हमारे स्वतंत्रता संघर्ष  की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में भारत का‌ संवैधानिक गणतंत्र का होना है।

चूंकि इस बार 400 पार का नारा देकर मोदी ने भारत के संवैधानिक गणतंत्र को चुनौती दे दी थी और संघ विचार में दीक्षित नेताओं ने संविधान को बदलने की परियोजना को 400 पर से जोड़ दिया था। इस कारण से भारत के सबसे कमजोर वर्गों से लेकर उदारवादी प्रगतिशील वामपंथी समूहों तक-जिन्होंने लोकतंत्र और आज़ादी का स्वाद चख लिया है-  सचेत हो गए। उन्हें मोदी सत्ता से टकरा जाना पड़ा। इस राजनीतिक घात-प्रतिघात ने जमीनी धरातल तक लोकतांत्रिक जागरण का वातावरण निर्मित किया। जिससे अब मोदी सरकार के लिए हिंदुत्व की फासीवादी परियोजना को आगे बढ़ना संभव नहीं होगा।

यह चुनावी जनादेश मूलत: मोदी के खिलाफ था। पिछले 10 वर्षों में मोदी ने एक हिंदू सम्राट के रूप में अपनी छवि निर्मित करने की कोशिश की थी। उनके सारे क्रियाकलाप हिंदू समाज के धार्मिक रीति रिवाजों परंपराओं तथा पूजा स्थलों और मूल्यों के इर्द-गिर्द घूमते रहे। यहां तक कि वह भारतीय प्रधानमंत्री की जगह मुख्यतः हिंदू नेता के रूप में अपनी छवि निर्मित करने में लग रहे। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण व उद्घाटन से लेकर काशी विश्वनाथ कॉरिडोर और मध्य प्रदेश के महाकालेश्वर मंदिर तक उनकी यात्रा हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी चेतना और आस्था के इर्द-गिर्द घूमती रही। जिस कारण से वर्ण व्यवस्था से प्रभावित पीड़ित एक बड़ा जन समूह उनके खिलाफ खड़ा होता चला गया। यह जागरण भाजपा की फासीवादी परियोजना के लिए अवरोध बन गया है। ऐसा कुछ लोगों की राय है।

राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि 2024 में जनता ने जो जनादेश दिया है वह भारत में कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के तानाशाही के लिए भारी झटका है। पिछले 10 वर्षों का मोदी राज भारत के कॉर्पोरेट कंट्रोल की दिशा में केंद्रित था। जिससे भारत में घोर असमानता और वर्ग विभाजन बढ़ा। जिसने मित्र पूंजीवाद के चरित्र को नंगा कर दिया है। जिस तरह से मोदी सरकार में अडानी-अंबानी जैसे लोगों को खुली लूट की छूट दी गई। इसने भारतीय समाज में हिन्दुत्व कॉर्पोरेट गठजोड़ की राजनीति के प्रति जनचेतना विकसित की है।

चूंकि राज्यसभा में बहुमत का संतुलन विपक्ष के पक्ष में चला गया है और संसद में विपक्ष की ताकत बढ़ गई है। इस कारण ऐसे विश्लेषकों का मानना है कि हमें संसदीय संस्थाओं की ताकत पर  यकीन करना चाहिए। उसमें अभी भी फासीवाद को रोकने की प्रतिरोधक क्षमता मौजूद है।

इसलिए लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को आश्वस्त रहना चाहिए। अगर इतने विपरीत परिस्थितियों में जब कॉरपोरेट फंडिंग सत्ता पर मजबूत पकड़ सारी संवैधानिक संस्थाओं के समर्पण और हिंदुत्व के तूफानी उभर के बावजूद भी भाजपा को बहुमत हासिल नहीं हो सका है। तो हमें भारत की जनता के विवेक और लोकतांत्रिक संस्थाओं की क्षमता पर यकीन रखना चाहिए। मोदी का बहुमत से दूर होना भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को आश्वस्त करता है और भारत में फासीवाद के विजय की संभावनाओं को लगभग खत्म कर देता है।

 2019 से 2024 के बीच चले बहुआयामी आक्रामक हिंदुत्व के अभियान के बावजूद अगर भारत फासीवाद के जबड़े में जाने से बच गया है। तो कोई ऐसा कारण नहीं दिखता कि हम भारत के लोकतंत्र के भविष्य पर विश्वास खो बैठे। इस तरह के विश्लेषण और विचार एक खास तरह के वामपंथी खेमे की तरफ से आ रहे हैं। उदारवादी धड़ों में भी इस चुनाव के परिणाम को लेकर आशाएं जगी हैं और उनका मानना है कि आरएसएस और भाजपा के फासीवाद के लिए भारत की सामाजिक भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता की स्थितियां ही सबसे बड़ी प्रतिरोधक ताकत है। 

18 वीं लोकसभा के चुनाव की सकारात्मक उपलब्धियों के बावजूद लोकतांत्रिक तानाशाही के खतरे अभी भी टले नहीं है। सर्वसत्ता वादी मोदी  जिस तरह का प्रदर्शन कर रहे हैं उससे संकेत मिलता है कि वे अपने कार्यशैली में कोई बदलाव नहीं करने जा रहे हैं। उनकी सरकार जिन दो बैसाखियों पर टिकी है। वे नेता अंदर से कमजोर सत्ता लोलुप और लोकतांत्रिक क्रेडेंशियल के मामले में बहुत कमजोर हैं। इसलिए जनता और लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता सतही है। वह मोदी की सर्व सत्तावादी कार्यशाली और फासिस्ट परियोजना के बिस्तार में कोई अवरोध पैदा करने की स्थिति में नहीं है। मंत्रिमंडल के गठन से लेकर लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव में उनका लिजलिजापन दिखाई दे चुका है। बिरला साहब अध्यक्ष रूप में अपनी विश्वसनीयता और निष्पक्षता बहुत पहले ही खो चुके हैं। इसलिए संसद के अंदर किसी बड़े लोकतांत्रिक प्रतिरोध की संभावना बहुत कम है। 

सर्वसत्तावाद या फासीवाद की पकड़ सत्ता के साथ-साथ जनता के मानसिक वैचारिक जगत पर बहुत गहरी होती है। नरेंद्र मोदी के अल्पमत में आने के बावजूद सरकार बना लेने के कारण अभी भी सरकार की बागडोर उनके हाथ में है। साथ ही फासीवाद की वैचारिक स्वीकृति नागरिकों में के एक बड़े प्रभावशाली तबके में मौजूद है। भारतीय समाज का वर्ण आधारित विभाजन में दलितों पिछड़ों के उत्थान के चलते सवर्ण सामंती ताकतों को थोड़ा सा पीछे हटना पड़ा है। इसलिए फासीवादी भाजपा और संघ ने इन तबकों के अंदर अतीत के गौरव बोध की वापसी का स्वप्न‌ जगा कर अपनी वैचारिक पकड़ बनाए रखी है। इससे खतरनाक तो यह है कि हिंदुत्व की विध्वंसक वैचारिकी के प्रभाव में समाज के दलित पिछड़े और कमजोर वर्गों का एक बहुत बड़ा हिस्सा खिंच आया है । जिन्हें आप सड़कों पर होने वाले धार्मिक आयोजनों में सक्रिय भूमिका निभाते देख सकते है।

उदारीकरण के हानिकारक प्रभाव सबसे ज्यादा इन्हीं कमजोर तत्वों पर पड़ा है। उनकी आर्थिक स्थिति में भारी गिरावट आई है। बेरोजगारी बढ़ी है। महंगाई ने कचूमर निकाल दिया है और 5 किलो राशन पर जीने के लिए इन्हें मजबूर होना पड़ा है। जीवन के बुनियादी संकट से मुक्ति पाने का कोई मार्ग न दिखाई देने के कारण ये समूह धर्मगुरुओं बाबाओं और हिंदुत्व के विशाल संगठित स्ट्रक्चर के आक्रामक प्रचार के झांसे में फंस जाते हैं और कुछ समय के लिए उनका आभासी आत्मगौरव लौट आता है। (ताज़ा हाथरस के बाबा के प्रभाव और लोकप्रियता के बुनियादी कारण को जीवन की अमानवीय स्थितियों में ढूंढा जा सकता है। 121 लोगों की मौत के बाद भी उसके समर्थकों का बाबा पर विश्वास डरा देने वाला है) जब वह जुलूस में भाला लाठी गुलाल और सिर पर भगवा पट्टी बांधे पुलिस तक को निर्देशित कर रहे होते हैं।

इसके साथ उदारीकरण का एक दूसरा दुष्प्रभाव है। विकास के नाम पर गांवों में पहुंच रही पूंजी के चलते वर्ण व्यवस्था के निचले पायदान के सामाजिक समूह में भी एक छोटा-सा मध्यवर्गीय दलाल वर्ग पैदा हुआ है। जिसने शुरुआत में अपने श्रम बुद्धि हुनर के बल पर संपदा अर्जित की थी। अब यह सत्ता की चाह में हिंदुत्व के विचारों का कैरियर बन गया है और जातियों के विनाश की जगह उनमें गौरव बोध को खड़ा कर सामाजिक आधार निर्मित करने में कामयाब हुआ है। जिससे संघ के विशाल ढांचे द्वारा ऐसे कमजोर लोकतांत्रिक आधार वालों को जीत लेने में कोई दिक्कत नहीं होती है। जाति और धर्म की सत्ता इन्हीं दलाल और सर्वाधिक लंपट तत्वों के कंधे पर टिकी हुईं है।

इनकी अपने सामाजिक स्वीकृति के रास्ते से ही भाजपा और संघ की वैचारिक स्वीकृति इनके समाजों में फैलती है। इसलिए लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के लिए जो- नए लोकतांत्रिक मूल्यों, समता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व पर आधरित समाज का पुनर्गठन करना चाहती है, चुनौती कम नहीं हुई है। यह छुटभैये अवसरवादी आक्रामक राजनीति का प्रदर्शन पर घृणा और टकराव पैदा करते हैं। हालांकि इनकी पूरी कलाबाजी “पेट न होता तो भेंट न होती “तक जाकर दम तोड़ देती है। यह मूलत: लोकतांत्रिक अवसरवादी प्रजातियां है। इन शक्तियों को समाज के बीच से बेदखल किए बिना हम हिंदुत्व की राजनीति को भारतीय समाज और राज्य से बेदखल नहीं कर सकते। ऐसे अलोकतांत्रिक राजनीतिक फॉरमेशन हिंदी इलाके जैसे बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश  में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं। जो अपनी जाति के सबसे भ्रष्ट तत्वों को संगठित कर अपनी सौदेबाजी की राजनीति चलाते हैं। 

इन वैचारिक आधारों के बिना सर्वसत्तावादी‌ नेता अपने विध्वंसक कारनामों पर तालियां नहीं बजवा सकता। इसलिए फासीवादी ताकतें और विचारों को सत्ता के साथ समाज से बेदखल करने के लिए सबसे जरूरी होता है कि उसकी वैचारिक स्वीकार्यता को कमजोर किया जाए। उनके नफरती हिंसक विभाजनकारी विचारों को समाज से बाहर निकाल दिया जाए। लेकिन अभी ऐसी स्थिति नहीं बन सकी है। 

हिंदुत्व के विध्वंसक विचारों की पकड़ थोड़ा कमजोर तो हुई है और अल्पसंख्यकों दलितों के खिलाफ आरएसएस द्वारा निर्मित  वातावरण थोड़ा बदला है। लेकिन अभी भी परिस्थितियों के विकास की खास मंजिल में संघ के विभाजनकारी विचार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसलिए लोकतांत्रिक ताकतों की जिम्मेदारी बहुत ज्यादा बढ़ गई है। सामाजिक जीवन में घटित होने वाली छोटी सी भी घटनाओं के विकास के किसी जटिल मोड़ पर समाज में ऐसी ताकतें वर्ण व्यवस्था के गैर लोकतांत्रिक संरचना के साथ मिलकर विध्वंसक रोल में जा सकते हैं। जिसे हम बहुत स्पष्ट रूप से चार जून के चुनाव परिणाम आने के बाद देख रहे हैं। 

चुनाव परिणाम के बाद संघ प्रमुख चाहे जिस भी तरह के संत वचन का उच्चारण करें। वस्तुत उन्होंने अपनी संस्थाओं को सक्रिय कर दिया है। जगह-जगह मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं। अलीगढ़ में औरंगजेब की हत्या के साथ रायपुर छत्तीसगढ़ में हुए तीन मुस्लिम व्यापारियों की हत्या ने यह बता दिया है कि भाजपा और आरएसएस अपने एजेंडे से पीछे नहीं हटने जा रहे हैं। यह घटनाएं सिर्फ भाजपा शासित राज्यों में ही नहीं हो रही है। कांग्रेस शासित हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में हुई घटनाएं इस बात का संकेत दे रही है कि सतह पर जरूर राजनीतिक परिवर्तन दिखाई दे रहा है। लेकिन सतह के नीचे समाज के आंतरिक जीवन में अभी भी संघ के विभाजनकारी विचार सक्रिय हैं और वे जब जहां चाहें ये बेखौफ किसी बड़ी घटना अंजाम दे सकते हैं। ऐसे समय में पुलिस और नौकरशाही की निष्क्रिय हिंदुत्व परस्त भूमिका देख कर समझा जा सकता है कि स्थितियां कितनी भयानक हैं।

हम जानते हैं कि जब-जब राजनीतिक रूप से भाजपा को धक्का लगा है तो और ज्यादा आक्रामक और हिंसक हो जाती है ।चाहे वह 90 के दशक के शुरुआत का महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश रहा हो या गुजरात में 21वीं सदी की शुरुआत में मिल रही लगातार पराजय का माहौल। गोधरा की  घटना को इस तरह से समायोजित किया गया कि गुजरात के मुख्यमंत्री की हैसियत से नए-नए गांधीनगर पहुंचे नरेंद्र मोदी धड़ाधड़ाते हुए दिल्ली की सत्ता पर जा पहुंचे। उत्तर प्रदेश में  समाजवादी पार्टी की सरकार के समय ऐसा लगता था कि अब आरएसएस और भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश का रन बड़ा कठिन होगा। लेकिन 2013 में मुजफ्फरनगर के कवाल टाउन से शुरू हुई घटना ने सारी स्थितियों को पलट दिया और भाजपा की वैचारिक ताकत उस समय देखने में आई। जब हजारों लोग  मुस्लिम विरोधी पंचायत में संगठित हो गए और बरसों से चला रहा किसान यूनियन का मिला जुला आधार और नेतृत्व सांप्रदायिक आधार पर विभाजित हो गया। परिणाम स्वरुप उत्तर प्रदेश से अखिलेश सरकार की विदाई हो गई।

4 जून के बाद भाजपा और संघ के अनुसांगिक संगठन पुराने रास्ते पर लौट गए हैं। एक दर्जन से ज्यादा माबलिंचिंग की घटनाएं हो चुकी हैं। उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों में बुलडोजर सड़कों पर निकल आए हैं और मुस्लिम घरों को तबाह किया जा रहा है। लखनऊ कुकरैल नाले के अगल-बगल हुए अतिक्रमण के नाम पर चल रहे विध्वंसक अभियान को देखने वाले समझ सकते हैं कि चोट खाई भाजपा किस कदर आक्रामक और हिंसक हो सकती है और अपनी ही जनता से बदला लेने के लिए उन्मत्त हो जा सकती है। इसलिए इंडिया गठबंधन को आज की स्थिति में ज्यादा सचेत होने की जरूरत है।

इंडिया का निराशाजनक रोल-छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश  कर्नाटक हिमाचल उत्तर प्रदेश में मुसलमानों पर हो रहे जुल्म अत्याचार पर इंडिया गठबंधन के दो बड़े घटक कांग्रेस और सपा की चुप्पी ने लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष ताकतों  को चिंतित कर दिया है और मुस्लिम समाज में निराशा बढ़ी है। छोटी-छोटी बातों पर ट्वीट करने वाले सपाई अलीगढ़ में औरंगजेब की हत्या पर खामोश हो गए और उनकी जुबान बंद हो गई। जगह-जगह यात्रा कर पीड़ितों का दर्द‌ बांटने वाले राहुल गांधी कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश सहित छत्तीसगढ़ के पीड़ित परिवारों के प्रति संवेदना तो व्यक्त ही कर सकते थे। सबसे बड़ी बात है कि लखनऊ में जिस तरह से अकबरनगर, अबरार नगर, पंतनगर, इंद्रप्रस्थ और खुर्रमनगर के हजारों परिवारों को उजाड़ा जा रहा है। उन पीड़ित परिवारों का क्रंदन क्या इनके यहां तक नहीं पहुंच पा रहा है। इन्हें अंबानी के बेटे की शादी का कार्ड तो मिल गया। लेकिन कुकरैल के अगल-बगल चिल्लाते-बिलखते  उजड़ते परिवारों की आवाज इन तक नहीं पहुंच पा रही है।

अफसोस है कि जब साहस के साथ इन पीड़ितों के साथ खड़ा होने की जरूरत है। तो कांग्रेस और सपा बहुमतवाद की परिधि में ही राजनीति करने की पुरानी कार्यशैली पर अमल कर रहे हैं। उनका यह मानना की 80% हिंदू समाज के इर्द-गिर्द ही अपनी राजनीति को केंद्रित करना चाहिए। लोकतंत्र की बुनियाद ही अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्गों की सुरक्षा की गारंटी से शुरू होती है। अगर कोई राज्य और राजनीतिक पार्टी अपनी यह पहली जिम्मेदारी निभा पाने में सक्षम नहीं है। तो उसे लोकतांत्रिक पैरामीटर के किसी भी पैमाने पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। दर्जनों मुस्लिम संगठनों प्रगतिशील बुद्धिजीवियों नागरिक समाज के लोगों ने इन सब सवालों पर पहल कदमी ली हैं। सवाल उठाए हैं। इंडिया गठबंधन को हिंदुत्व के इस विध्वंसक एजेंडे के खिलाफ खुलकर बोलना ही होगा।

1 जुलाई से लागू हुए काले कानूनों  के ख़िलाफ़ वामपंथी प्रगतिशील लोकतांत्रिक नागरिक समाज सड़कों पर उतरा हुआ है। इस समय नये-नये काले कानून (महाराष्ट्र सरकार द्वारा लाया गया नया कानून) थोपने की राज्य और केंद्र सरकार तक होड़ लगी हुई है। महान बौद्धिक और लेखिका भारत के लिए गौरव अरुंधति राय के खिलाफ यूएपीए के तहत 2010 में कश्मीर पर हुए एक सम्मेलन में दिए गए भाषण को आधार बनाकर मुकदमा चलाने की इजाजत दिल्ली उपराज्यपाल ने दी है। लेकिन आज तक( वामपंथी पार्टियों को छोड़कर) इंडिया गठबंधन ने अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की है। वहीं वैश्विक मानवाधिकार संगठनों से लेकर दुनिया भर के लेखक बुद्धिजीवी भारत सरकार को मेमोरेंडम भेज रहे हैं। आंदोलन कर रहे हैं और भारत पर दबाव बना रहे हैं।

चुनाव परिणाम आने के बाद इंडिया गठबंधन ने ऐलान किया था कि वह संसद से सड़क तक जन मुद्दों पर मुखर रहेगा। एक महीना बीत जाने के बाद इंडिया के द्वारा किसी सवाल पर सड़क पर आंदोलन का आह्वान नहीं किया गया। जबकि संघ भाजपा के आनुषंगिक संगठन प्रति हिंसक और उन्मादी मुद्दों के साथ सड़कों पर उतर आए हैं। इसलिए आज यह जरूरत है कि संसद और सड़क के बीच समन्वय स्थापित करने की। तभी आने वाले समय में हम भारतीय लोकतंत्र को एक गतिशील लोकतंत्र में परिवर्तित कर सकते हैं। जिसे आरएसएस बीजेपी ने अपने जबड़े में जकड़ रखा है। याद रखें गठबंधन सरकार चलाते हुए भी भाजपा ने अनेक जन विरोधी काले कानूनी से लैस कर लिया है और वह नागरिक गतिविधियों को नियंत्रित करने की हर संभव कोशिश कर रही है।

इसलिए फासीवादी के आसन्न खतरे अभी टले नहीं है। जरूरत है इंडिया गठबंधन पहल लेकर राष्ट्रीय स्तर पर वकीलों मानवाधिकार संगठनों सामाजिक सरोकार वाले जनवादी समूहों नागरिक समाज और प्रगतिशील लोकतांत्रिक जन-गण के प्रतिनिधियों का एक महा सम्मेलन बुलाए और वहां इन सब सवालों पर भविष्य का एक एजेंडा तैयार करें। जिसे “चार्टर ऑफ़ द डेमोक्रेसी 2024 “के नाम से जारी किया जाए। जिससे इंडिया गठबंधन के सभी घटक दल पूरी ताकत से अमल में लाएं।(किसान संगठनों ने एक मांग पत्र तैयार किया है। जिसे वर्तमान में भविष्य के आंदोलन का एजेंडा कहा जा सकता है।) तभी हम भारत में कॉरपोरेट पूंजी के नेतृत्व में लोकतांत्रिक संस्थाओं पर होने वाले हमले और इलेक्टोरल तानाशाही के खतरे से लड़ पाएंगे।

वैश्विक स्तर पर पूंजी गहरे संकट में फंसी हुई है। भारत में यह संकट एक नया आकर ले रहा है। जिसे व्यापक कर्जदारी, जनता की गिरती हालत, बाजार के सिकुड़ने, लघु और मध्यम उद्योगों के बंद होने व उत्पादन में गिरावट, बढ़ती बेरोजगारी तथा जनता की खरीद की ताकत के कमजोर होने के अर्थों में देखा जा सकता है। पूंजी जिस तरह के संकट से गुजर रही है। स्वाभाविक है कि भविष्य में भारतीय लोकतंत्र और उत्पादक शक्तियों पर फासीवादी हमले तेज होंगे। इसलिए भारतीय लोकतंत्र के इस महा संघर्ष में जम्हूरियत की सभी शक्तियों के योगदान को सुनिश्चित करना ही लोकतंत्र के सुरक्षा की गारंटी होगी।

(जयप्रकाश नारायण स्वतंत्र टिप्पणीकार और किसान नेता हैं।)

 

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