हरियाणा चुनाव: भाजपा सरकार जा तो रही है, कांग्रेस आ रही है, लेकिन भाजपा का मजबूत आधार अभी भी कायम  

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कुरुक्षेत्र/हिसार/सिरसा/भिवानी। हरियाणा विधान सभा चुनाव में भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत सुनिश्चित सी लग रही है। अपने बलबूते कांग्रेस सरकार बना लेगी, यही दिख रहा है।

करीब 5 दिनों तक हरियाणा की विभिन्न विधान सभाओं में शहरी, ग्रामीण और विभिन्न सामाजिक समूहों, आय वर्ग और आयु वर्ग के मतदाताओं और स्थानीय पत्रकारों से बात-चीत में अंदाज लगा। सामाजिक समूहों में महिलाओं से कम बात-चीत हो पाई। 

मतदाताओं में आमतौर भाजपा विरोधी रुझान है। लंबे समय से हरियाणा की चुनावी राजनीति पर निगाह रखने वाले अनुभवी पत्रकार और वर्तमान समय में पल-पल के प्रधान संपादक सुरेंद्र भाटिया का आकलन यह है कि भाजपा कम से कम 18 सीटों और अधिक से अधिक 22 सीटों सिमट कर रह जाएगी।

भाजपा 89 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। उसने  सिरसा की सीट से अपने उम्मीदवार का नाम कुख्यात गोपाल कांडा के समर्थन में वापस ले लिया है।

कांग्रेस को कम से कम 55 सीटें और अधिक से अधिक 66 सीटों पर फतह हासिल होगी। कांग्रेस भी 89 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, एक सीट इंडिया गठबंधन की साझेदार पार्टी सीपीएम (CPI-M) के लिए छोड़ा है। सीपीएम के उम्मीदवार भिवानी से कॉमरेड ओमप्रकाश चुनाव लड़ रहे हैं। सुरेंद्र भाटिया के अलावा कमोवेश यही आकलन अन्य पत्रकारों-विश्लेषकों का है।

इस बार इनेलो (इंडियन नेशनल लोकदल-अभय चौटाला) को भी कम से कम 3 सीटें और अधिक से अधिक 5 सीटें मिलने के अनुमान हैं, उनकी पार्टी का बसपा से गठबंधन है। इनेलो 53 सीटों पर तो बसपा 37 सीटों पर गठबंधन में चुनाव लड़ रही है।

बसपा किसी तरह एक सीट हासिल कर सकती है। हालांकि उसका एक छोटा सा ही समर्थक आधार है, विशेषकर कुछ जाटवों में। आम आदमी पार्टी ने सभी 90 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। किसी भी सीट से उसके जीतने की कोई संभावना नहीं दिखाई दे रही है। हालांकि आम आदमी पार्टी के भी समर्थक समूह दिखे। 

बायें से दूसरे वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र भाटिया।

मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में दूसरी बार बनी भाजपा गठबंधन की सरकार में पूर्व उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला और उनकी पार्टी जननायक जनता पार्टी (जेजीपी) का इस चुनाव में सफाया हो जाएगा, अधिकांश पर्यवेक्षकों का यह कहना है। जमीनी सच्चाई भी यही दिख रही थी।

उचाना विधान सभा से चुनाव लड़ रहे दुष्यंत चौटाला के लिए खुद की सीट बचा पाना भी मुश्किल लग रहा है, अधिकांश लोग उनका हारना तय मान रहे हैं। उनकी पार्टी का चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व वाली आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) से गठबंधन है।

जेजेपी 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही है तो एएसपी 20 सीटों पर गठबंधन के तहत चुनाव लड़ रही है। इस गठबंधन के एक भी सीट जीतने की कोई संभावना नहीं लग रही है।

हालांकि, मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा में ही दिख रहा है, लेकिन निर्दलीय भी कम से कम 6 से 7 सीटों पर जीत हासिल कर सकते हैं। देश के अधिकांश हिस्सों के उलट हरियाणा के विधान सभा चुनावों में हमेशा की तरह इस बार भी निर्दलीय उम्मीदवारों के लिए स्पेस बना हुआ। यह हरियाणा के राजनीति की खास तरह की विशिष्टता है। 

भाजपा की हार के मुख्य कारणों में किसान आंदोलन के प्रति उसका रूख और व्यवहार, अग्निवीर योजना और पहलवानों, विशेषकर महिला पहलवानों के प्रति उसका रवैया। ये तीनों मुद्दे पूरे हरियाणा को गहराई तक प्रभावित किए हुए हैं।

हरियाणा का ग्रामीण समुदाय मुख्यत: कृषक समुदाय है। हालांकि पिछले वर्षों में उसका तेजी से औद्योगीकरण हुआ है। फिर भी कृषि और किसान वहां की रीढ़ बने हुए हैं। औद्योगिक शहरों के अलावा भी हरियाणा में चारों तरफ जो समृद्धि और खुशहाली दिखाई देती है, उसमें खेती-किसानी की अहम भूमिका है।

किसान और किसान आंदोलन विरोधी भाजपा के रवैए ने किसानों के बीच उसकी छवि को काफी धक्का पहुंचाया है। कृषक समुदाय का सबसे बड़ा और मुख्य हिस्सा जाट किसानों का है। जाटों का बहुलांश हिस्सा इस बार भाजपा के खिलाफ है। 

जाट हरियाणा के मतदाताओं का करीब 25 प्रतिशत हिस्सा है। हरियाणा के सिख जाट किसान भी भाजपा के पूरी तरह खिलाफ हैं। हरियाणा में इनकी आबादी करीब 5 प्रतिशत है। जाटव (च.) के भी एक बड़े हिस्से के रोजी-रोटी का स्रोत खेती-किसानी ही है, कुछ मालिक किसान हैं, तो कुछ इन किसानों के खेतों में खेतिहर मजदूर हैं।

किसानों के मुद्दे और आंदोलन ने इनको भी प्रभावित किया है। अन्य पिछड़े वर्गों में समृद्ध किसान हैं। हरियाणा के दक्षिणी हिस्से अहिरवाल में भी खेती-किसानी आय और समृद्धि का बड़ा आधार है। यह भाजपा का गढ़ रहा है, लेकिन खेती, किसान और किसान आंदोलन ने इस हिस्से को प्रभावित किया है और भाजपा की जमीन को कमजोर किया है।

खेती-किसानी और किसान आंदोलन के साथ जिस मुद्दे ने हरियाणा के मतदाताओं के सभी सामाजिक समूहों और वर्गों को सबसे अधिक प्रभावित किया है, वह अग्निवीर का मुद्दा है। पंजाब के साथ हरियाणा में सबसे अधिक लोग सेना में जाते रहे हैं। इसमें जाट, जाटव, यादव, वाल्मीकि और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी शामिल हैं। 

अग्निवीर, किसान और किसान आंदोलन से बड़ा मुद्दा है, क्योंकि इसमें जाट और गैर जाट का बंटवारा नहीं है। अग्निवीर का मुद्दा भाजपा के गले की हड्डी बन गया है।

यह कितना बड़ा मुद्दा है, इसका अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा के अन्य शीर्ष नेताओं को चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में यह घोषणा करनी पड़ रही है कि वे अग्निवीरों को पेंशन देंगे, सभी अग्निवीरों को सरकारी नौकरी देंगे आदि-आदि। लेकिन अब यह वायदे मतदाताओं को प्रभावित करते और कारगर साबित होते नहीं दिख रहे हैं।

अग्निवीर का मुद्दा हरियाणा में बड़े पैमाने पर फैली बेरोजगारी से जुड़ गया है। हरियाणा में रोजगार और बेरोजगारी के मुद्दे को यूपी-बिहार के बेरोजगारी की तरह नहीं देखा जा सकता। वहां रोजगार का मतलब किसी तरह रोजी-रोटी जुटाना नहीं है।

वहां रोजगार का मतलब गुणात्मक तौर पर बेहतर जिंदगी जीने लायक रोजगार। जिसमें कम से कम स्थायी आमदनी 30 हजार प्रति महीने से ऊपर हो, जिसमें निश्चितता हो। आज की तारीख में इसका मतलब सरकारी नौकरी।

इस तरह खुशहाल और समृद्ध जीवन जीने लायक रोजगार की तलाश में हरियाणा के नौजवानों का एक हिस्सा बहुत तेज़ी से बेहतर जिंदगी की तलाश में पश्चिमी दुनिया (यूरोप-अमेरिका) में पलायन कर रहा है। किसान इसके लिए खेत भी बेच रहे हैं। नौजवान तरह-तरह के रिस्क लेकर अमेरिका, कनाडा और पश्चिमी यूरोप के देशों में जा रहे हैं, जिसमें जान जाने का रिस्क भी शामिल है।

भाजपा सरकार ने पिछले 10 सालों में ग्रुप-ए और ग्रुप-बी की नौकरियों में नहीं के बराबर भर्ती की है, पद खाली पड़े हैं। जो विज्ञापन निकले हैं और जो भर्तियां हुई हैं, वह ग्रुप-सी और डी के पदों पर हुई हैं। हरियाणा में अग्निवीर और रोजगार सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा है, जिसके चलते भाजपा पूरी तरह हाशिए पर दिख रही है।

खेती-किसानी और अग्निवीर के साथ जो मुद्दा हरियाणा का सबसे बड़ा मुद्दा है, वह पहलवानी, विशेषकर महिला पहलवानों का है। यह हरियाणा की पहचान, गरिमा और मान-सम्मान से जुड़ा हुआ है।

महिला पहलवानों और उनके यौन उत्पीड़न के सवालों पर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और खट्टर सरकार का जैसा रूख रहा है, उसने हरियाणा के लोगों के दिल-दिमाग पर चोट किया है। यह उनके मान-सम्मान का मुद्दा बन गया है। इस पर भाजपा चुप्पी साधे हुए है, उसे कोई जवाब देते नहीं बन रहा है।

इन तीन सबसे प्रभावी मुद्दों के साथ कई सारे अन्य राष्ट्रव्यापी और स्थानीय मुद्दे भी हैं। इन सभी मुद्दों ने मिलकर पूरे हरियाणा में एक भाजपा विरोधी माहौल बनाया है। भाजपा के 10 सालों के शासन के खिलाफ एक आम असंतोष और आक्रोश दिखाई दे रहा है।

हरियाणा के वोटरों में यह असंतोष और आक्रोश किस कदर है, इसका अंदाज इससे भी लगाया जा सकता है कि भाजपा का साथ देने के चलते दुष्यंत चौटाला की पार्टी जेजेपी का भी सफाया करने के लिए लोग तैयार दिख रहे हैं, क्योंकि यह पार्टी और उसके नेता किसान आंदोलन को कुचलने की कोशिश, महिला पहलावानों के गरिमा के साथ खिलवाड़ और अग्निवीर के मामले में भाजपा का साथ देने के अपराधी माने जा रहे हैं। 

यहां तक कि कल तक देवीलाल के विरासत दावेदार के रूप में उभर रहे दुष्यंत की दावेदारी भी खत्म होती दिख रही है। इस स्थान को अभय चौटाला भर रहे हैं, जो किसान आंदोलन के प्रति भाजपा सरकार के व्यवहार के चलते विधायक पद से इस्तीफा दे दिए थे, महिला पहलवानों के संघर्ष में उनके साथ खड़े थे और अग्निवीर योजना का विरोध किया था।

इन मुद्दों के अलावा भाजपा को जो चीजें कमजोर बना रही हैं। उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का गिरता ग्राफ भी है। नरेंद्र मोदी देश के कई अन्य हिस्सों की तरह हरियाणा में भाजपा के लिए तुरुप का पत्ता रहे हैं, लेकिन अब यह पत्ता कारगर नहीं साबित हो रहा है।

इसका अंदाज खुद मोदी को भी लग चुका है। हरियाणा में भले ही उन्होंने कुछ सभाएं की हैं, लेकिन चुनाव की बागडोर वे अपने कंधों पर लेते नहीं दिख रहे हैं। लोकसभा चुनावों में ही उनको अंदाज लग गया था कि वे अपना करिश्मा करीब-करीब खो चुके हैं।

हरियाणा की चुनाव की बागडोर स्थानीय नेताओं और अमित शाह को सौंप दी गई है, जिसमें राजनाथ सिंह भी जोर-शोर से दम लगा रहे हैं। 

ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी को व्यक्तिगत तौर पर पसंद करने वाले हरियाणा में खत्म हो चुके हैं। उनकी अपील अभी है, लेकिन उसका दायरा बहुत सीमित हो गया है।

उनको चाहने वाले जो बचे हैं, उसमें दो तरह के मतदाता हैं-एक तो वे जो नरेंद्र मोदी को केंद्र में अभी भी देखना चाहते हैं, लेकिन हरियाणा की भाजपा सरकार को बदलना चाहते हैं। दूसरे वे नरेंद्र मोदी के नाम इस बार भी भाजपा को वोट दे रहे हैं, लेकिन यह समूह बहुत छोटा हो गया है।

शायद हरियाणा की आसन्न हार को भांप कर ही नरेंद्र मोदी ने खुद के हाथ में चुनाव-प्रचार की बागडोर नहीं ली है, ताकि हार की जिम्मेवारी उनके ऊपर न डाली जा सके।

तो क्या इस सब का अर्थ यह निकाला जाए कि हरियाणा में भाजपा ने अपनी जमीन खो दी है? क्या भाजपा का पूरी तरह सफाया होने जा रहा है? कांग्रेस की एकतरफा विजय होने जा रही है? ऐसा नहीं है, ऐसा कहना तथ्यों से मुंह मोड़ना होगा। भाजपा हरियाणा में हारने तो जा रही है, लेकिन उसका मजबूत आधार अभी बना हुआ है और बना रहेगा। आखिर इसके कारण क्या हैं?

इसकी पहली वजह सामाजिक समीकरण है। हरियाणा में जाट करीब 25 प्रतिशत हैं, करीब इतना ही अन्य पिछड़ा वर्ग 24 प्रतिशत के आस-पास है। ब्राह्मण, बनिया और पंजाबी (हिंदू) करीब 25 प्रतिशत हैं। दलित करीब 20 प्रतिशत हैं। मुस्लिम भी करीब 7 प्रतिशत हैं।

हरियाणा में सामाजिक समूह और धार्मिक समूह ओवरलैप करते हैं। जैसे मेवात के मुसलमानों का एक हिस्सा जाट है, इसी तरह सिखों का बड़ा हिस्सा जाट है।

हरियाणा में भाजपा ने खुद जाटों के राजनीतिक वर्चस्व को चुनौती देने वाली शक्ति के रूप में पेश किया था। उसने अपने राजनीतिक आधार के रूप में अन्य पिछड़ा वर्ग और पंजाबी हिंदुओं, बनियों और ब्राह्मणों और दलितों के एक हिस्से को चुना। पहले गैर-जाट मुख्यमंत्री के रूप में पंजाबी हिंदू खट्टर को चुना। 

राजनीतिक प्रतिनिधित्व में अन्य पिछड़ा वर्ग, पंजाबी हिंदुओं और दलितों के वाल्मीकि समुदाय को अपना आधार बनाया। जिसका परिणाम था कि भाजपा को हरियाणा में 50 प्रतिशत तक वोट प्राप्त हुए। इस राजनीतिक समीकरण का प्रभाव नीचे तक दिखाई दिया।

अन्य पिछड़े वर्गों के भाजपा के 10 सालों के शासन काल में खुद को सशक्त महसूस किया। उन्हें हर स्तर पर पहले की तुलना में हिस्सेदारी भी मिली। हरियाणा के शहरों और अभिजात्य समूह का बड़ा हिस्सा बनियों और पंजाबी हिंदुओं से बना हुआ है।

यह हिस्सा हरियाणा के स्थानीय शासक वर्ग का निर्माण करता है, भले राजनीतिक सत्ता में जाटों का प्रभुत्व रहा हो। हालांकि इस शासक वर्ग में अब जाट भी शामिल हो चुके हैं और हो रहे हैं।

खट्टर की जगह सैनी को मुख्यमंत्री बनाना अन्य पिछड़े वर्गों को अपने साथ करने की कोशिश का हिस्सा था, इसका एक हद तक फायदा मिलता भी दिख रहा है, हालांकि यह बदलाव जब किया गया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

भाजपा ने दलितों के बीच के विभाजन का भी इस्तेमाल किया। गैर-जाटव ( च..) दलितों को अपने साथ करने की कोशिश किया। वाल्मीकि लोगों को जाटवों ने अलग करके अपने साथ करने की कोशिश के तहत भाजपा वह पहली सरकार थी, जिसने कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट के एससी के बीच आरक्षण के बंटवारे को लागू करेगी। 

इसका एक हद तक फायदा मिलता भाजपा को दिख रहा है। वाल्मीकि समुदाय के एक हिस्से का रुझान भाजपा की तरफ है। इसी कार्यनीति को आगे बढ़ाते हुए भाजपा ने हरियाणा की एससी के लिए सुरक्षित 17 सीटों में से 9 सीटों पर गैर-जाटव ( च..) को उम्मीदवार बनाया है।

सच तो यह है कि जो सामाजिक समूह निर्णायक तरीके से कांग्रेस के साथ खड़े हैं, वह जाट और जाटव  हैं। लेकिन जहां 90 प्रतिशत जाट कांग्रेस के साथ, जाटवों में यह प्रतिशत अधिक से अधिक 60-70 प्रतिशत के करीब है।

कुछ जाटव वोटर बसपा के साथ हैं, कुछ एक प्रतिशत चंद्रशेखर आजाद की पार्टी के साथ हैं। कुछ भाजपा के साथ हैं। लेकिन कांग्रेस को फायदा यह है कि भाजपा के मजबूत आधार वाले सामाजिक समूहों के वोटरों में बंटवारा है। 

शहरी बनिया और पंजाबी हिंदू वोटर बंटे हुए हैं। उनका एक हिस्सा कांग्रेस के साथ खड़ा दिख रहा है। ब्राह्मण वोटरों का भी एक छोटा हिस्सा ही सही भाजपा को हटाने के लिए कांग्रेस के साथ है। यह स्थिति लोकसभा के पिछले चुनावों में भी दिखी थी। वाल्मीकि लोगों का भी एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस के साथ है।

लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग, पंजाबी हिंदू और ब्राह्मणों का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ अभी मजबूती के साथ खड़ा है। इसकी एक बड़ी वजह कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे और हरियाणा में उसके शीर्ष नेतृत्व के स्वरूप के चलते है।

जहां भूपेंद्र सिंह हुड्डा हरियाणा में कांग्रेस के लिए एक बड़ी ताकत प्रदान करने वाले नेता हैं, तो दूसरी ओर कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी भी हैं। हुड्डा कांग्रेस को जाटों और अपने परिवार की पार्टी के रूप में बदलने की हर कोशिश कर रहे हैं। 

उम्मीदवारों के चुनाव में जिस तरह उन्होंने शैलजा और रणदीप सुरजेवाला आदि हरियाणा के नेताओं को किनारे लगाया यह जगजाहिर है। वे अपने समानांतर किसी नेता को खड़े होते नहीं देखना चाहते हैं। वे सिर्फ खुद मुख्यमंत्री ही नहीं होना चाहते, इसके साथ ही कांग्रेस की विरासत को अपने बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा को सौंपना चाहते हैं।

इस स्थिति ने कांग्रेस को एक हद तक जाटों और एक परिवार के वर्चस्व वाली पार्टी में बदल दिया है। उनका खुद मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा के हरियाणा में सत्ता में आने से पहले का रिकॉर्ड अन्य सामाजिक समूहों को और उभरते नेताओं को जगह देने के मामले में अच्छा नहीं रहा है। 

कांग्रेस के लिए अच्छी बात यह है कि लोगों में भाजपा के प्रति इतनी नाराजगी है कि वे किसी सूरत में उसे इस बार हराना चाहते हैं। हराने वाली पार्टी के विकल्प के रूप में कांग्रेस दिख रही है।

हालांकि राहुल गांधी ने संविधान, जाति जनगणना और लोकतंत्र आदि का मुद्दा उठाकर और कुमारी शैलजा को विशेष तरजीह देकर कांग्रेस को सबकी पार्टी, विशेषकर दलितों-अन्य पिछड़े वर्गों की पार्टी के के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है और हरियाणा के वर्तमान चुनाव में भी वह यह कर रहे हैं। कांग्रेस के पास आज अन्य पिछड़े वर्गों का कोई राज्यव्यापी असर रखने वाले नेता नहीं है।

इस सब के बावजूद कांग्रेस हुड्डा और उनके परिवार के चलते कांग्रेस को सबकी पार्टी के रूप में प्रस्तुत करने में पूरी तरह सफल नहीं हो पा रही है। वह आज भी जाटों और एक परिवार की पार्टी ज्यादा है। भले ही भाजपा विरोधी रुझान के चलते हरियाणा में सरकार बनाने की ओर बढ़ रही है।

कांग्रेस की इस कमजोरी का भाजपा को फायदा मिल रहा है, लेकिन उससे नाराजगी इतनी है कि यह अस्त्र एक सीमा से ज्यादा काम नहीं कर पा रहा है।

हरियाणा का वर्तमान चुनावी परिदृश्य यह है कि भाजपा ज्यादा से ज्यादा एक तिहाई सीटों तक सिमटती दिख रही है, कांग्रेस आधा से ज्यादा सीटें हासिल कर सरकार बनाती लग रही है। लेकिन कांग्रेस भाजपा के मजबूत वोट बैंक को उससे निर्णायक रूप में छीन पाने में सफल नहीं दिख रही है। हार के बाद भी भाजपा का हरियाणा में मजबूत सामाजिक आधार बना रहेगा।

(हरियाणा के विभिन्न इलाकों का दौरा कर के लौटे लेखक और पत्रकार डॉ. सिद्धार्थ की रिपोर्ट।)

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