‘छिपी हुई अर्जियों’ वाले बुद्धिजीवी

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वैसे तो 2014 के बाद अंग्रेजी और हिंदी (और शायद दूसरी भाषाओं) के भी कुछ ”बुद्धिजीवियों” ने अपनी विचार-पीठिका से पाला-बदल किया है। जिस विचारधारा के लिए लंबे समय से वे खून-पसीना बहा रहे थे और अपनी विचारावली के पक्ष में चौबीसों घंटे खड्ग-हस्त रहते थे, अचानक उन्हें इलहाम हुआ कि सही मायनों में भाजपा के दिल्ली में गद्दीनशीन होने के बाद भारत आजाद हुआ है। 

हिंदी में लिखने वाले ऐसे दो प्रमुख लोगों में शामिल हैं- दिलीप मंडल और बद्री नारायण। बद्रीनारायण तो अपनी प्रगतिशीलता के कारण कभी अपना सरनेम तिवारी नहीं लिखते थे। क्योंकि, उनका मानना था कि इससे उनकी प्रगतिशीलता कलंकित होती है। 

दिलीप मंडल के पुराने लेख और टिप्पणियां निकाल कर देख लीजिए, वे निरंतर ओबीसीवाद और कई बार दलितवाद के इतने हाहाकारी प्रवक्ता दिखते हैं, लगता है कि सुबह उठते ही ब्राह्मणवाद में आग लगा देंगे। यह जानते हुए भी कि उनके तथ्यों और तर्कों में अतिरंजना होती थी, तमाम प्रगतिशील और उदारमना लोग भी दिलीप मंडल की तारीफ करते थे। माना जाता था कि जो भी हो, मंडल एक शक्तिशाली और सर्वभक्षी विचारधारा, जिसका नाम ब्राह्मणवाद है, से लोहा ले रहे हैं। 

अचानक जाने क्या हुआ, पिछले कुछ महीनों से वह भाजपा के ”वैचारिक प्रवक्ता” हो गए। और स्मिता प्रकाश समेत तमाम गोदी मीडिया के पत्रकारों से विचार-विमर्श करने लगे और नेहरू-इंदिरा से लेकर कांग्रेस, वामपंथी यहां तक समाजवादियों को भी निशाने पर लेने लगे। इसका ‘प्रसाद’ दिलीप मंडल को मिलना ही था। हाल ही में वह मोदी सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय के मीडिया सलाहकार नियुक्त हो गए हैं। यह हृदय-परिवर्तन दुर्लभ है। दिलीप मंडल की नियुक्ति पर उनके ही एक साथी और समर्थक रहे एक सज्जन ने टिप्पणी की कि,” दिलीप मंडल अब भाजपा के दूसरे रामदास अठावले हो गए हैं।”

न कुछ तेरा-न कुछ मेरा, चिड़िया रैन बसेरा है। 

दूसरे बुद्धिजीवी बद्री नारायण हैं। इलाहाबाद में कभी वामपंथ के गर्भ से उपजे उनके पांव, पालने में ही दिखने लगे थे। वे वामपंथी बैठकों से निकल कर सीधे जीसी पांडे (गोविन्दचंद्र पांडेय) से हिल-मिल लेते थे। यानी वामपंथी अगर उनके लिए रात्रिस्मरणीय थे तो जीसी पांडेय प्रात:स्मरणीय। बद्री नारायण को उनकी निकटता का लाभ मिला और वे झूंसी स्थित गोबिन्द वल्लभ पंत संस्थान (जीबीपीएसएसआई) के निदेशक बने । बीच में कुछ समय के लिए वह जेएनयू भी गए, लेकिन फिर वापस आकर निदेशक की कुर्सी पर विराजमान हैं। यूपी में जब मायावती की सरकार बनी थी तो बद्री नारायण दलित मामलों के विश्लेषक और विचारक-समर्थक हो गए थे। 

लेकिन, अब बद्री नारायण भी खुले-खजाना मोदी सरकार के समर्थक हैं। और बहुरीति-बहुविधि अहर्निश मोदी सरकार के गुणगान में लगे रहते हैं। मोदी की विचारधारा को वे लगातार एक वैचारिक आधार देने में लगे हैं। आज (19 सितंबर, 2024) ही अमर उजाला में उनका एक लेख छपा है, ” विकास की राजनीति और मुफ्त की रेवड़ी।” लेख पढ़ते ही यह समझ में आ जाता है कि ढिंढोरा पीटने में और किसी चीज को वैचारिक आधार देने में कितना अंतर होता है। जब बुद्धिजीवी लोग अपनी जेब में ”छिपी हुई अर्जियां” लेकर चलते हैं तब इसी तरह के लेख पैदा होते हैं। अपने इस लेख में बद्री नारायण बताते हैं–”भारत, आज विकास की आकांक्षाओं वाला देश है। अत: भारत को आज ”विकास की राजनीति’ चाहिए।‘’

बद्री नारायण से पूछा जाना चाहिए कि दुनिया में कौन सा ऐसा देश है, जो ‘विकास की आकांक्षाओं’ वाला नहीं होता। क्या भारत जब आजाद हुआ था तब नेहरू जी का भारत विकास की आकांक्षाओं वाला नहीं था या इंदिरा गांधी या दूसरे प्रधानमंत्री का भारत विकास नहीं चाहता था। बद्री नारायण की समस्या यह है कि वे जबरदस्ती किसी बेडौल चीज को सुडौल दिखाने की जिद कर रहे हैं। क्योंकि, उन्हें ऐसा करना है, क्योंकि उन्हें जल्द ही भाजपा के खेमे का ‘बुद्धिजीवी ‘ दिखने की झख सवार है। और जल्द ही अपने लिए कोई परमपद (कहीं कुलपति जैसा कुछ) चाहिए। इसलिए, वे फटाफट भगवा चोला ओढ़ लिए हैं। लेकिन उसका सार्वजनिक प्रदर्शन भी जरूरी है। वर्ना, सरकारे-दोजहां (लखनऊ-दिल्ली)  के (नानबायोलोजिकल सर) की नजर उन पर कैसे पड़ेगी?

इसी लेख में बद्री नारायण यह स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि विकास के विरोध में कोई बड़ी चीज बाधा है तो वह है मुफ्त की रेवड़ी ( फ्रीबीज)। और, इसके लिए वे कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को गुनाहगार मानते हैं। वे कहते हैं,’’  भारतीय राजनीति में आम आदमी पार्टी एवं कांग्रेस के विकास मॉडल में यह समस्या देखी जा सकती है। इन दलों का विकास मॉडल यों भी तात्कालिक एवं जाति की राजनीति से बार-बार बाधित होता रहता है।‘’

उनके इस तर्क में सबसे हास्यास्पद है कि आम आदमी पार्टी का नाम। यह पार्टी सात-आठ साल पुरानी है। इसके बाद उनका दावा है कि उसने भारत का विकास रोक रखा है। कुल दो राज्यों में आम आदमी पार्टी की सरकार है। कांग्रेस को लेकर भी बद्रीनारायण की समझ सतही और ओछी है। कमाल यह है कि बद्री नारायण मोदी सरकार द्वारा पूंजीपतियों के 16 लाख करोड़ रुपये कर्ज माफी की कोई चर्चा नहीं करते। उन्हें इसमें कोई मुफ्त की रेवड़ी नहीं नजर आती। उन्हें सिर्फ और सिर्फ मोदी-सरकार में ‘विकास की राजनीति’ के तत्व नजर आते हैं। 

दिक्कत यह है कि जब कोई व्यक्ति यह तय कर लेता है कि उसे ठकुरसुहाती ही गानी है, तो फिर उसकी तर्कावली उसी ‘दुर्गंधालय’ से आने लगती है, जहां वह विचरता है। तर्कशास्त्र में एक उक्ति है कि आदमी जब कुतर्क करता है, तब भी तर्क ही करता है। समझदार और संवेदनशील लोगों को ऐसे लोगों से सतर्क रहना चाहिए। किसी ने ठीक कहा कि दिलीप मंडल अगर भजापा के लिए ‘रामदास अठावले’ हो गए हैं तो शायद बद्री नारायण जी ‘ओमप्रकाश राजभर’ हैं। सत्ता बदलते ही, ये भी कोई नया रूप-रंग ले लेंगे। 

बहरहाल, गुस्ताखी माफ हो।

(राम जन्म पाठक जनसत्ता में वरिष्ठ पद पर काम कर चुके हैं।)

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  1. 1
    Nishant Anand

    it is really important to demystify the word ‘progressive’. it is as vague as growth in the economy. important article. there must be a thorough analysis of the intellectuals who have changed their side and must see through the historical lens.

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