देश में मजदूरों का लांग मार्च शुरू हो गया है। सुबह खबर आई कि सोलह मजदूर रेल की पटरी पर सोए थे उनके ऊपर से वह रेल निकल गई जो उन्हें घर ले जाने के लिए नहीं मिल पाई थी। शाम को लखनऊ से छत्तीसगढ़ साइकिल से जा रहे एक परिवार पर गाड़ी चढ़ा दी गई। दो बच्चे गंभीर हैं। मां बाप गुजर गए।
लॉकडाउन के बाद से पैदल, साइकिल, ट्रक और मोटर से चले मजदूरों से कितने चले और कितने रास्ते में गुजर गए यह पता नहीं। चीन में 16 अक्टूबर 1934 से शुरू होकर 20 अक्टूबर 1935 तक चलने वाले लांग मार्च में एक लाख लोग निकले थे पर अंत में बीस हजार ही बचे। वह माओ का लांग मार्च था। बदलाव का मार्च था। पर यह मजदूरों का मार्च है, मज़बूरी का मार्च है। यह एक नहीं कई लाख लोगों का मार्च है।
यह शहर से निकल कर अपने गांव पहुंचने का मार्च है। वे यह जानते हैं कि वे हो सकता है न बचें। पर मरे तो गांव की मिट्टी तो नसीब हो। इसलिए वे चलते जा रहे हैं। रेल रोकी गई फिर बस भी रोकी गई। अब तो सड़क भी रोक दी गई। इसलिए वे रेल की पटरी पर चल रहे हैं। तपती धूप में टूटी चप्पल पहने। खाना नहीं है। पानी भी कहीं मिलता है तो कहीं नहीं मिलता है। ऐसा नहीं कि ये सिर्फ मुंबई दिल्ली से ही अपने अपने गांव लौट रहे हैं। यह पलायन कई राज्यों से हो रहा है।
यह सौ किलोमीटर से लेकर दो हजार किलोमीटर की दूरी तक का पलायन है। राज्यों के भीतर भी हो रहा है। हमने कालाहांडी से लेकर छत्तीसगढ़ के महासमुंद से पलायन को देखा और लिखा भी। पर वह रोजी रोटी का पलायन था। यह जान बचाने का पलायन है। यह भूखे पेट का पलायन है। लोग चलते-चलते पस्त हो जा रहे हैं। रोने लगते हैं। पर फिर भी चलते रहते हैं।
कोई मुंबई से सीतामढ़ी तो कोई दिल्ली से गोंडा बस्ती तक चला जा रहा है। सुबह रेल दुर्घटना में मजदूर मारे गए। उनकी रोटियां रेल पटरी के बीच में बिखरी हुई थीं। वे रोटी लेकर चल रहे थे। वे चले गए। रोटियां बिखर गईं। ये रोटियां हमारी फाइव ट्रिलियन अर्थव्यवस्था पर बहुत भारी पड़ेंगी। यह सरकार को भी समझना चाहिए और समाज को भी। दिक्कत यह है कि इन मजदूरों की बेबसी को समझने वाला समाज भी नहीं है। और सरकार के एजेंडा में तो यह मजदूर नजर भी नहीं आ रहा। विदेश से जहाज भर-भर कर लोग आ तो रहे हैं। उन्हें देखिए और रेल पटरी पर चलने वालों को देखिए। उसे चाहिए थाली, घंटी और घड़ियाल बजाने वाली जमात। कोरोना से मरते हुए लोगों की बढ़ती संख्या में भी दिवाली मनाने वाली जमात।
सरकार के मानवीय नजरिए के दायरे में मजदूर कहां हैं? हर राज्य सरकार ने कहने को तो प्रवासी मजदूर के लिए नोडल अफसर बनाए हैं। इनका फोन नंबर भी है पर वह नंबर बंद मिलेगा। पर बिचौलियों का नंबर हमेशा चलता रहता है जो मजदूरों से पैसा लेकर फर्जी दस्तावेज बनवा कर बस में बैठा देते हैं। बस किसी भी सीमा पर रोक दी जाती है और फिर पुलिस का काम शुरू होता है। किसी भी नोडल अफसर ने ऐसी किसी भी समस्या का समाधान किया हो यह नजर नहीं आया। रेलगाड़ी से जाने पर यह सब समस्या नहीं होती। पर सरकार ने राज्यों की एनओसी के नाम पर लालफीताशाही का बड़ा रास्ता खोल दिया। साथ ही दुष्प्रचार करने वाली टीम को भी तैनात कर दिया जो टिकट को लेकर समूचे देश को गुमराह करती रही।
अगर मजदूर को लेकर उनकी चिंता होती तो पिचासी बनाम पंद्रह फीसदी रियायती टिकट की बहस में सरकार क्यों उलझाती? ये जो रेल पटरी पर चल रहे मजदूर हैं वे किसी और देश के नहीं हैं। इसी भारत देश के हैं। इनका पैसा खत्म हो गया है, राशन खत्म हो गया है। शहर में चार से छह घंटे लाइन में लग कर एक कटोरा दाल भात मिलता है। कैसे इससे भूख मिटे। कोरोना और संक्रमण तो आगे की बात है।
इन्हें किस तरह रहना पड़ रहा है यह अगर कोई देखना चाहेगा तो दिख सकता है वर्ना इस त्रासदी में भी आप पाकिस्तान मुसलमान के खेल में फंसे रहिए। पर ये जो मजदूर अपने घर लौट रहे हैं इनसे देश की आर्थिक तरक्की भी रुक जाएगी यह ध्यान रखना चाहिए। मजदूरों के बाद अगला नंबर मध्य वर्ग का ही है। ध्यान रखना चाहिए मजदूरों का यह मार्च हमारी अर्थव्यवस्था में पलीता लगा सकता है। इसलिए समय रहते ही चेत जाएं।
(अंबरीश कुमार शुक्रवार के संपादक हैं और 26 वर्षों तक इंडियन एक्सप्रेस समूह से जुड़े रहे हैं। आजकल लखनऊ में रहते हैं।)
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