2024 के लोकसभा चुनावों में उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक देश के हर हिस्से में जिस समुदाय ने धर्मनिरपेक्षता, संविधान और लोकतंत्र के पक्ष में वोट निर्णायक दिया, वह मुस्लिम समुदाय है। इस बार इंडिया गठबंधन के पक्ष में 80 प्रतिशत मुसलमानों ने वोट किया। 2019 के चुनावों में सिर्फ 52 प्रतिशत मुसलमानों ने कांग्रेस और सहयोगियों को वोट दिया था। 2019 के लोकसभा चुनावों के बरक्स 2024 में कांग्रेस और सहयोगियों के पक्ष में इस बार 28 प्रतिशत अधिक मुसलमानों ने वोट दिया।
कांग्रेस को इस बार 38 प्रतिशत मुसलमानों ने वोट दिया, 2019 में 33 प्रतिशत मुसलमानों ने वोट दिया था। कांग्रेस के मुस्लिम वोट में 5 प्रतिशत का इजाफा हुआ, लेकिन कांग्रेस के सहयोगी ( इंडिया गठबंधन) दलों के पक्ष में 42 प्रतिशत मुसलमानों ने वोट दिया, जबकि 2019 में सिर्फ19 प्रतिशत ने वोट दिया था। कांग्रेस के सहयोगी दलों के मुस्लिम वोटों में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
97 प्रतिशत मुसलमानों ने भाजपा और उसके सहयोगियों (NDA) के खिलाफ वोट किया। सिर्फ 3 प्रतिशत ने NDA को वोट किया। 2019 के लोकसभा चुनावों में सिर्फ 92 प्रतिशत मुसलमानों ने भाजपा और सहयोगियों (NDA) के खिलाफ वोट किया किया था। 8 प्रतिशत ने NDA को वोट दिया था। इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ 1 प्रतिशत मुसलमानों का वोट मिला है, जबकि 2019 में 3 प्रतिशत ने वोट दिया था। भाजपा के सहयोगियों को पिछली बार 5 प्रतिशत मुसलमानों ने वोट दिया था, इस बार सिर्फ 2 प्रतिशत ने वोट दिया।
सवाल यह कि शेष 17 प्रतिशत मुसलमानों ने किसको वोट किया। 17 प्रतिशत मुसलमानों ने उन दलों को वोट दिया, जो न तो इंडिया गठबंधन में थे और न एनडीए गठबंधन में थे। जैसे बीजू जनता दल (बीजेडी) वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (वाई. एस. जगनमोहन रेड्डी), ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (ओवैसी), एआईएडीएमके पार्टी, ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (असम, मौलाना बदरुद्दीन अजमल ), बसपा और आजाद समाज पार्टी (चंद्रशेखर आजाद) आदि। कुछ स्वतंत्र उम्मीदवारों को।
मुसलमानों ने धर्मनिपेक्षता और संविधान के पक्ष में वोट के लिए उन चीजों को किनारे लगाकर दिया, जिसका ध्यान हिंदू वोटरों के एक बडे़ हिस्से ने रखा। जैसे हिंदू वोटरों के एक बड़े हिस्से ने भाजपा को इस आधार पर वोट दिया कि वह हिंदुओं की पार्टी है। भाजपा को मिले 36.57 प्रतिशत वोटों में बड़ा हिस्सा उसे इसी आधार पर मिला है कि वह हिंदुओं की पार्टी हैं। हिंदुओं के बरक्स मुसलानों ने मुस्लिम पार्टी के नाम पर वोट नहीं दिया। इसकी सबसे बड़ी मिसाल मुसलमानों ने असम में ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के सशक्त उम्मीदवार और उस पार्टी के सुप्रीमो मौलाना बदरुद्दीन अजमल को हरा कर पेश किया। यहां कांग्रेस के उम्मीदवार रकीबुल हसन ने देश में सर्वाधिक मतों से जीतने वाले सांसद हैं, उन्होंने बदरूद्दीन अजमल को 10 लाख 12 हजार 476 वोटों से हराया।
यहां गौर करने की बात यह है कि पिछले 2019 और 2014 दोनों लोकसभा चुनावों में बरूद्दीन अजमल भारी मतों से जीते थे। असम में मुस्लिम पार्टी के नाम पर तेजी से उभर रही इस पार्टी को मुसलमानों ने लोकसभा के इस चुनाव में करीब किनारे लगा दिया और उस पार्टी को चुना जिससे वे धर्मनिपेक्षता, संविधान और लोकतंत्र की उम्मीद करते हैं। असम में करीब 30 प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं।
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (ओवैसी) तेजी से मुस्लिम नेतृत्व और उनकी मुस्लिम पार्टी के रूप में उभर रही थी, लेकिन मुसलमानों ने उस पार्टी को 2024 के इस चुनाव में हैदाराबाद की ओवैसी की सीट को छोड़कर हर जगह हरा दिया। ओवैसी ने देश भर में कुल 10 उम्मीदवार खड़े किए थे। ओवैसी के अलावा बाकी सभी उम्मीदवार बुरी तरह हार गए हैं। ओवैसी के उम्मीदवारों को मिले वोट प्रतिशत बता रहे हैं कि मुसलमानों ने उन्हें पूरी तरह नकार दिया। ओवैसी ने मुस्लिम बहुल वोटरों वाले संसदीय क्षेत्र में ही अपने उम्मीदवार खडे़ किए थे।
धर्मनिपेक्षता, संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए मुसमलानों ने केवल खुद को मुसलमानों की पार्टी के रूप में पेश करने वाली पार्टियों को नकारा, इसके साथ उन पार्टियों को भी नकार दिया, जो बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार खड़ी करके मुसलमानों का वोट हासिल करने की कोशिश की। बसपा ने देश में सबसे ज्यादा संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को प्रत्याशी बनाया। उसने देश भर में 35 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए। जिसमें 20 मुस्लिम उम्मीदवार तो उसने उत्तर प्रदेश में खड़ा किया। लेकिन मुसलमानों ने उसके सभी मुस्लिम उम्मीदवारों को न केवल हरा दिया, बल्कि बुरी तरह हरा दिया।
बसपा को उत्तर प्रदेश में इतने सारे मुस्लिम उम्मीदवार खड़े करने के बाद भी सिर्फ 4 प्रतिशत मुसलमानों का वोट मिला। जबकि इंडिया गठबंधन ने सिर्फ 6 उम्मीदवार खड़े किए थे। जिसमें 5 ने जीत हासिल की। सपा ने 4 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे, चारों जीत गए। कांग्रेस ने 2 उम्मीदवार खड़े किए थे। एक उम्मीदवार की जीत हुई। सपा के मुस्लिम उम्मीदवारों का स्ट्राइक रेट 100 प्रतिशत रहा। कांग्रेस का 50 प्रतिशत। लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश में 92 प्रतिशत मुसलमानों ने वोट दिया इंडिया गठबंधन को वोट दिया। यूपी के परिणाम बताते हैं कि मुसलमानों ने वोट देते समय सिर्फ धर्मनिपेक्षता, संविधान और लोकतंत्र का ध्यान रखा। उम्मीदवार मुस्लिम है, पार्टी मुस्लिम है या मुस्लिम नेता है, इसके बारे में कुछ भी नहीं सोचा।
सवाल बसपा के उम्मीदवारों का नहीं, जहां कम्युनिस्ट पार्टी इंडिया (मार्क्सवादी) का कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस से सीधा मुकाबला था, वहां मुसलमानों ने कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस को वोट किया। कम्युनिस्ट पार्टी इंडिया ( मार्क्सवादी) ने देशभर में कुल 11 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे। सभी हार गए, ज्यादात्तर केरल और पश्चिम बंगाल में थे। क्योंकि केरल में मुसलमानों ने वामपंथी गठबंधन की जगह कांग्रेस को जिताना धर्मनिपेक्षता और संविधान के लिए ज्यादा जरूरी समझा, भले बहुत कम उम्मीदवार मुस्लिम थे। इसी तरह पश्चिम बंगाल में मुसलमानों ने कांग्रेस और वामपंथियों के गठजोड़ की जगह तृणमूल कांग्रेस को वोट किया, क्योंकि वहां उसके जीतने की संभावना और उम्मीद थी। वहां मुसलमानों ने कांग्रेस और वामपंथियों के गठबंधन को वोट नहीं दिया।
मुसलमानों ने वोट देते समय मुस्लिम पार्टी या मुस्लिम उम्मीदवार को वरीयता नहीं दी, बात सिर्फ इतनी नहीं, मुसलमानों यह भी नहीं देखा की धर्मनिपेक्षता, संविधान और लोकतंत्र के पक्ष में खड़ा इडिया गठबंधन ने कुल कितने मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने 115 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे थे। इस बार सिर्फ 78 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे गए। लेकिन मुसलमानों ने इस बात कोई महत्व नहीं दिया, उन्होंने इस बार इंडिया गठबंधन को पिछली बार की तुलना में 28 प्रतिशत अधिक वोट दिया।
कांग्रेस ने भी इस बार 2019 के 34 की तुलना में सिर्फ 19 मुस्लिम समुदाय के लोगों को टिकट दिया। तृणमूल कांग्रेस ने सिर्फ 6 को टिकट दिया, जबकि 2019 में 13 को टिकट दिया था। सपा ने सिर्फ 4 को टिकट दिया, जबकि 2019 में 8 लोगों की टिकट दिया था। इसके बावजूद भी मुसलमान देश के स्तर पर कांग्रेस और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और सपा गठबंधन को और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में पूरी तरह लामबंद हो गए। जैसा ऊपर चर्चा की जा चुकी है कि यूपी में 92 प्रतिशत मुसलमानों ने सपा और कांग्रेस के गठबंधन को वोट दिया। पश्चिम बंगाल में करीब 80 प्रतिशत से अधिक मुसलमानों ने तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में वोट किया। जहां कोई उम्मीदवार इंडिया गठबंधन और एनडीए गठबंधन के उम्मीदवारों से अधिक धर्मनिपेक्षता, संविधान और लोकतंत्र के पक्ष में खड़ा था, वहां मुसलमानों ने दोनों गठबंधनों को पूरी तरह नकार कर उस प्रत्याशी के पक्ष में वोट दिया। इसका सबसे बेहतर उदाहरण नगीना से चंद्रशेखर आजाद और जम्मू-कश्मीर के बारामूला से शेख अब्दुल राशिद उर्फ इंजीनियर राशिद हैं। दोनों उम्मीदवारों को मुसलमानों के झार कर वोट दिया। इंजीनियर राशिद तो जेल से चुनाव जीत गए, वह भी पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कांफ्रेंस को सबसे बडे़ नेता उमर अब्दुला को हराकर।
इतना ही नहीं मुसलमानों ने कांग्रेस और सपा की इस बात को नजरअंदाज करके उन्हें वोट दिया कि इन दोनों पार्टियों ने अपने घोषणा-पत्र में मुस्लिम शब्द का एक बार भी जिक्र तक नहीं किया है। इन पार्टियों ने दलित,आदिवासी और पिछड़े की चर्चा तो बार-बार की है, उनकी वंचना और उनके साथ होने वाले अन्यायों को भी बार-बार रेखांकित किया है, लेकिन भूल से भी कहीं इनके घोषणा-पत्र में मुस्लिम की कोई चर्चा नहीं, वे अन्याय के शिकार हैं या पिछले 10 वर्षों में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों से अधिक अन्याय और उत्पीड़न के शिकार हुए हैं, इस पर कोई बात नहीं की। फिर मुसलमानों ने देश और समाज के व्यापक हित में संविधान, लोकतंत्र और धर्मनिपेक्षता विरोधी पार्टी और उसके सहयोगियों को हराने के लिए उन विपक्षी दलों को वोट दिया, जो धर्मनिपेक्षता, संविधान और लोकतंत्र की पक्ष में कमजोर आवाज में सही खड़े दिखते हैं, भले ही हिंदू वोटरों के नाराज हो जाने के भय से मुस्लिमों के साथ न खुलकर खड़े होते हों।
इस बार संसद में 2019 की तुलना में पांच मुस्लिम सांसद कम चुने गए हैं। 2019 में 29 सांसद चुने गए थे, लेकिन इस बार सिर्फ 24 चुने गए हैं। यह मुसलमानों का कोई वाजिब प्रतिनिधत्व नहीं है। 1947 को बाद यह दूसरी कमतर संख्या है, 2014 में सिर्फ 22 चुने गए थे। इस बार भाजपा ने सिर्फ एक मुस्लिम उम्मीदवार उतारा, केरल के मालाबार से। NDA के हिस्सा जेडीयू ने ने भी एक उम्मीदवार उतारा था। दोनों हार गए। पूरे NDA गठबंधन से सिर्फ दो मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए गए थे। दोनों हार गए। NDA के कुल 293 सांसदों में कोई मुस्लिम नहीं है।
बात सिर्फ 2024 के लोकसभा की नहीं, आजादी के बाद जब भी चुनाव हुए हैं, मुस्लिम किसी मुस्लिम पार्टी को अपनी पार्टी मानकर वोट नहीं किया, न ही किसी मुस्लिम नेता को अपना नेता माना। उन्होंने हमेशा धर्मनिपेक्षता, लोकतंत्र, संविधान और देश-समाज के बेहतरी के लिए वोट किया। कभी नेहरू को नेता मान, कभी इंदिरा को , कभी जयप्रकाश को, कभी लोहिया को, कभी राजीव गांधी को, कभी वीपी सिंह को, कभी मुलायम सिंह यादव को, कभी लालू यादव को तो कभी मान्यवर कांशीराम को, कांशीराम की विरासत के तौर पर मायावती को। जहां वामपंथी पार्टियां मजबूत रहीं और धर्मनिपेक्षता, संविधान, लोकतंत्र और जनहित की रक्षा करने वाली ताकत रखती रहीं, वहां मुसलमान वामपंथियों के साथ मजबूती से खड़े रहे। पश्चिम बंगाल में वामपंथी शासन और देश के अन्य हिस्से इसके सबूत हैं।
आजादी के बाद मुसलमानों ने कभी सांप्रदायिक राजनीति को अपनी पसंद नहीं बनाया। उन्होंने कभी भी सांप्रदायिक दलों को वोट नहीं दिया, चाहे वे दल हिंदू के नाम पर सांप्रदायिक बातें कर रहे हों या मुस्लिम के दल नाम पर। 2024 के लोकसभा चुनावों में मुस्लिम वोटों को पैटर्न इसका सबसे खूबसूरत उदाहरण है।
(सिद्धार्थ स्वतंत्र लेखक व टिप्पणीकार हैं।)
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