मीडिया की खबरों के अनुसार समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने ब्राह्मण नेताओं के साथ बैठक में यह तय किया है कि समाजवादी पार्टी प्रत्येक जिले में भगवान परशुराम की प्रतिमा स्थापित करेगी। सबसे ऊंची प्रतिमा लखनऊ में लगाई जाएगी, जो 108 फीट ऊंची होगी। खबर यह भी है कि सपा के कुछ ब्राह्मण नेता प्रतिमा लेने के लिए जयपुर भी पहुंच गए हैं। पार्टी प्रतिमाएं लगाने के लिए चंदे जुटाएगी।
अखिलेश जी भगवान परशुराम की प्रतिमा लगाने से पहले क्या आपने परशुराम के बारे में जानने की कोशिश, यदि नहीं तो परशुराम के बारे में थोड़ा जान तो लीजिए ही। मैं सोच रहा हूं कि आपको परशुराम के बारे में बहुजन पुनर्जागरण के जनक ज्योतिबा फुले की जुबानी ही, बता दूं। वैसे आपकी पार्टी और आपका ज्योतिबा फुले या अन्य बहुजन नायकों से अतीत में कोई लेना-देना नहीं रहा है, लेकिन इस वर्ष आपने उनके जन्मदिन पर उन्हें याद किया था। तो आइए देखते हैं, बहुजन पुनर्जागरण के जनक ज्योतिबा फुले परशुराम के बारे में क्या लिखते हैं-
अपनी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक गुलामगीरी (1973) की प्रस्तावना में ज्योतिबा फुले (11 अप्रैल 1827 से 29 नवंबर 1890) लिखते हैं कि “ ब्राह्मणों की राजसत्ता में हमारे पूर्वजों पर जो भी ज्यादतियां हुईं, उनकी याद आते ही हमारा मन घबराकर थरथराने लगता है। मन में इस तरह के विचार आने शुरू हो जाते हैं कि जिन घटनाओं की याद भी इतना पीड़ादायी है, तो जिन्होंने उन अत्याचारों को सहा है, उनके मन की स्थिति किस प्रकार की रही है, होगी, यह तो वे ही जान सकते हैं।” फुले लिखते हैं कि ब्राह्मण अत्याचारियों में सबसे निर्दयी, क्रूर और निर्मम अत्याचारी परशुराम था। इसका साक्ष्य खुद ब्राह्मणों के धर्मग्रंथ (स्कंद पुराण का सह्याद्रिखंड, शिवपुराण, मार्कण्डेय पुराण, देवी पुराण) प्रस्तुत करते हैं।

फुले उन सभी समुदायों को क्षत्रिय का दर्जा देते हैं, जो इस देश ( विशेषकर पश्चिमोत्तर भारत) के शासक रहे हैं। यह एक स्थापित ऐतिहासिक तथ्य है कि इस देश के अधिकांश शासक आज के अर्थ में क्षत्रिय (राजपूत) नहीं रहे हैं। अखिल भारतीय महान साम्राज्यों की स्थापना करने वाला नंद वंश, मौर्य वंश, अशोक, गुप्त वंश, मुगल और ब्रिटिश रहे हैं। इनमें से कोई भी क्षत्रिय नहीं था। अधिकांश वर्ण-व्यवस्था के अनुसार देखें तो शूद्र वंश के रहे हैं या विदेशी मूल ( शक-हूण, मुगल आदि) आदि रहे हैं। आज जिसे महाराष्ट्र के रूप में जानते हैं, वहां आज भी राजपूत क्षत्रिय नहीं के बराबर हैं।
महाराष्ट्र में सबसे बड़ा साम्राज्य स्थापित करने वाले क्षत्रपति शिवाजी (1630-1680) मराठा रहे हैं, जिन्हें वर्ण-व्यवस्था में शूद्र का दर्जा दिया गया था, जिसके चलते ब्राह्मणों ने उनका राजतिलक करने से इंकार कर दिया था। यही घटना उनके वंशज शाहू महाराज के साथ भी दुहराई गई थी, ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र कहकर वैदिक विधि से उनका तथा उनके परिवार का धार्मिक अनुष्ठान करने से इंकार कर दिया था।
ज्योतिबा फुले का यह कहना ऐतिहासिक तथ्यों से मेल खाता है कि परशुराम ने जिन क्षत्रियों का विनाश किया था, सभी पश्चिमोत्तर भारत के शासक थे। जिन्हें बाद में ब्राह्मणों ने पराजित करके शूद्र-अतिशूद्र घोषित कर दिया। फुले का कहना था कि परशुराम ने इन्हीं मूल निवासी राजाओं ( क्षत्रियों) और उनके बाल-बच्चों एवं पत्नियों का कत्लेआम किया था। वे ब्राह्मण धर्मग्रंथों को हवाला देकर बताते हैं कि “ उसने (परशुराम ने) क्षत्रियों को मौत के घाट उतार दिया था और उस ब्राह्मण परशुराम ने क्षत्रियों की अनाथ हुई नारियों से उनके छोटे-छोटे निर्दोष मासूम बच्चों को जबर्दस्ती छीनकर अपने मन में किसी प्रकार की हिचकिचाहट न रखते हुए बड़ी क्रूरता से मौत के हवाले कर दिया था।
यह उस ब्राह्मण परशुराम का कितना जघन्य अपराध था। वह चंड इतना ही करके चुप नहीं रहा, उसने अपने पति की मौत से व्यथित कई नारियों को, जो अपने पेट के गर्भ की रक्षा करने के लिए बड़े दुखित मन से जंगलों-पहाड़ों में भागी जा रही थीं, उनका कातिल शिकारी की तरह पीछा करके, उन्हें पकड़कर लाया और प्रसूति के पश्चात जब उसे यह पता चला कि पुत्र की प्राप्ति हुई है, तो वह चण्ड आता और प्रसूत (बच्चे) का कत्ल कर देता था।……खैर उस जल्लाद ने उन नवजात शिशुओं की जान उनकी माताओं के आंखों के सामने ली होगी।….इस तरह का वर्णन ब्राह्मण ग्रंथों में मिलता है। ( ज्योतिबा फुले, संपादक डॉ. नामदेव, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ( एनबीटी) 2012, पृ.75)। फुले लिखते हैं, ब्राह्मणों ने अपने धर्मग्रंथों ( पुराणों) में जितना लिखा है, परशुराम उससे अधिक अत्याचारी और क्रूर रहा होगा, लेकिन जो लिखा है, वह भी दिल दहला देने वाला है। परशुराम के इन अत्याचारों का वर्णन फुले अपनी किताब गुलामगीरी में की प्रस्तावना में विस्तार से करते हैं।

परशुराम का गुणगान करने वाले ब्राह्मण धर्मग्रंथकारों पर टिप्पणी करते हुए ज्योतिबा फुले लिखते हैं कि “ इस तरह ब्राह्मणों-पुरोहितों के पूर्वज, अधिकारी परशुराम ने सैकड़ों क्षत्रियों को जान से मारकर, उनके बीवी बच्चों का भयंकर बुरा हाल किया और उसी को (परशुराम) आज के ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों का सर्वशक्तिमान परमेश्वर, सारी सृष्टि का निर्माता कहने के लिए कहते हैं, यह कितने बड़े आश्चर्य की बात है!” (ज्योतिबा फुले, संपादक डॉ. नामदेव, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ( एनबीटी) 2012, पृ.78)
ज्योतिबा फुले ने जो कुछ भी लिखा है, वह सब कुछ विभिन्न पुराणों में लिखा हुआ है। यह वही परशुराम है, जिसने अपने पिता जमदग्नि के कहने पर अपनी मां रेणुका का अपने फरसे से गला काटकर हत्या कर दी थी। उनका अपराध यह था कि वह पानी भरने गई थीं और उन्हें वहां देर हो गई थी। वह जल क्रीड़ा देखने में लग गई थीं। परशुराम जैसे नृशंस, क्रूर, जालिम, निर्दयी और हत्यारा व्यक्ति जिस समाज, धर्म, जाति एवं व्यक्ति का आदर्श होगा, वह समाज, धर्म, जाति और व्यक्ति कैसे होंगे?
इसका अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। शिवपुराण, मार्कण्डेय पुराण, देवी पुराण, स्कंद पुराण आदि में परशुराम के चरित्र का वर्णन है। स्कंद पुराण के सह्याद्रिखंड में परशुराम और उसके क्षेत्र का वर्णन है। सह्रााद्रिखंड़ को कोंकड़ क्षेत्र के रूप में जाना जाता रहा है। इस क्षेत्र में चितपावन ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई है। सावरकर, तिलक और गोडसे इन्हीं चितपावन ब्राह्मणों के यहां पैदा हुए थे। ये लोग परशुराम को अपना पूर्वज मानते हैं। ऐसे ही क्रूर, निर्मम, निर्दयी और अमानवीय चरित्र को नायक बनाकर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने परशुराम की प्रतीक्षा खंड काव्य लिखा।
अब तथाकथिक सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले माननीय अखिलेश यादव जी परशुराम को भारतीय समाज के नायक के रूप में स्थापित करने के लिए हर जिले में उनकी मूर्तियां और लखनऊ में 108 फीट ऊंची मूर्ति लगाने की घोषणा कर रहे हैं। अखिलेश जी काश आपने फुले की गुलागीरी पढ़ी होती, तो शायद यह ऐसी घोषणा करने में थोड़ी सी शर्म आती, लेकिन शर्म क्यों आती है, ऐसे समय में जब किसी भी तरीके से सत्ता पाने की कोशिश ही मूल लक्ष्य है, तो आपने भी ब्राह्मणों को पटाने का एक दांव परशुराम के रूप में खेला है, हो सकता है, इसका कुछ फायदा आपको और आपकी पार्टी को मिले। वैसे मुश्किल है कि ब्राह्मण संघ-भाजपा का राम राज छोड़कर आपके पास आएं, लेकिन यह दांव खेलकर आपने भारतीय समाज को वैचारिक एवं मूल्यगत पतन की पराकाष्ठा की ओर ले जाने में अपनी ओर से एक और मदद तो कर ही दी।
(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)