भागवत उवाच: राजनैतिक स्वतंत्रता बनाम सच्ची प्राण-प्रतिष्ठा स्वतंत्रता!

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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के छठे सरसंघ चालक मोहन भागवत के उवाच में भारत को वास्तविक स्वतंत्रता अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के पश्चात ही मिली है। उनके शब्दों में “भारत की सच्ची स्वतंत्रता, जिसने कई शताब्दियों तक उत्पीड़न का सामना किया था, उस दिन (राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के दिन 22 जनवरी 2024) स्थापित हुई थी। भारत को स्वतंत्रता मिली (15 अगस्त,’47 )थी, लेकिन इसकी स्थापना नहीं हुई थी।”।

इसका अर्थ यह है कि संघ परिवार की दृष्टि में ‘राजनैतिक स्वतंत्रता’ का कोई महत्व नहीं है; 15 अगस्त,’47 की स्वतंत्रता सच्ची नहीं थी, भारत को असली तो करीब 77 वर्ष प्राप्त हुई है। भागवत जी का यह कथन चौंकाने वाला है भी और नहीं भी। लेकिन, इसे अर्थहीन समझ कर खारिज़ कर देना भी गलत रहेगा। इस पर गंभीर बहस की ज़रुरत है, जिससे कि वास्तविक स्वतंत्रता के चरित्र का वांछित हल निकल सके।

देश की स्वतंत्रता और संविधान के प्रति संघ की दृष्टि आरम्भ से ही स्पष्ट रही है। इस विराट चक्रव्यूही संस्था ने कभी भी इसे स्वीकार नहीं किया था। इसके नेता और सदस्यों ने आज़ादी के आंदोलन से हमेशा स्वयं को दूर रखा था। संघ की स्थापना से पहले इसके संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार कुछ समय के लिए आंदोलन में शामिल हुए और जेल भी गए थे। लेकिन, इसके बाद हेडगेवार के उत्तराधिकारी नेतृत्व ने आज़ादी के आंदोलन से दूरी ही बनाये रखी थी।

इतना ही नहीं, जनसंघ (1980 से पहले भाजपा की पूर्व पहचान) के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को कुचलने की सलाह ब्रिटिश सरकार को दी थी। तब डॉ. मुखर्जी हिन्दू महासभा के नेता की हैसियत से बंगाल की मुस्लिम लीग सरकार में मंत्री हुआ करते थे और आज़ादी के आंदोलन के विरोधी थे।

हिन्दू महासभा के प्रखर नेता सावरकर ने भी आंदोलन में भाग नहीं लिया था। पोर्टब्लेयर में कालापानी की सज़ा से मुक्त हो कर भारत की मूल भूमि लौटने के बाद उन्होंने आंदोलन से दूरी ही बनाये रखी थी। संघ की स्थापना नागपुर में 27 सितम्बर 1925 को हुई थी।

संघ परिवार की आस्था हमेशा ‘एकात्मतंत्र’ में रही है। वह संघीय ढांचे को स्वीकार नहीं करता है। दिवंगत सरसंघचालक गोलवकर उर्फ़ गुरुजी ने अपनी पुस्तक ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ में साफ-साफ़ शब्दों में कहा है “हमारे देश के संविधान के अंतर्गत संघीय ढांचे पर सभी प्रकार की चर्चा को गहरे से दफना दिया ….. ‘एक देश, एक राज्य, एक विधायिका, एक कार्यपालिका” रहेगी।

गुरूजी के मत में संविधान को फिर से देखने और व्याख्यायित करने की ज़रूरत है जिससे कि “सरकार की एकात्मक शासन व्यवस्था” को स्थापित किया जा सके। (पृ. 227 )। और इसी मार्दर्शन में प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी का उवाच है “एक राष्ट्र -एक चुनाव”। इस दिशा में मोदी सरकार काफी आगे बढ़ चुकी है। अतः भागवत – उवाच नया नहीं है, अपितु 2014 से केंद्र में भाजपा की राजनैतिक सत्ता की स्थापना के दौर में नई पीढ़ी की संतानों को आश्चर्यजनक लग सकता है जो संघ के चिंतन व कार्य शैली और भारत की जनता के स्वतंत्रता संघर्ष से अपरिचित हैं।

शायद नई पीढ़ी की मासूमियत व अज्ञानता को ध्यान में रख कर भागवत जी ने ‘सच्ची स्वतंत्रता’ का शगूफ़ा उछाला है। यदि उनकी अवधारणा या आख्यान को स्वीकार कर लिया जाता है तो 1857 से 1947 तक चला स्वतंत्रता संघर्ष स्वतः ही अर्थहीन बन जाता है। 90 साल की अवधि में हुई शहादतें ( झाँसी की रानी, बहादुरशाह जफ़र, जलियांवाला बाग़, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला खान, भगत सिंह, सुखदेव, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गांधी आदि) निरर्थक या मिथ बन जाएंगी।

भाजपा की ही एक अभिनेत्री सांसद का कहना है कि 1947 की आज़ादी 90 साल की लीज पर अंग्रेज़ों ने भारतियों को दी थी। इसका अर्थ यह हुआ कि 2047 से पहले ही आज़ादी को वापस ले लिया जायेगा! ऐसे बेतुके व हास्यास्पद उवाचों से राष्ट्र की स्वतंत्रत -अस्मिता कलंकित ही होती है। बॉलीवुडी अभिनेत्री और संघ प्रमुख एक ही पलड़े में खड़े नज़र आते हैं।

संघ के लिए यह स्थिति शोभाजनक तो नहीं है

संघ सुप्रीमों को मालूम होना चाहिए कि राजनैतिक स्वतंत्रता से शेष स्वतंत्रताएं प्राप्त होती हैं। राजनैतिक स्वतंत्रता की उपलब्धि के बाद ही राज्य ‘सर्वप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र’ बनता है। भागवत जी को याद होना चाहिए कि पूर्ण आज़ादी के बाद ही गुजरात में सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण हो सका था। उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि आज़ाद भारत की न्यायायिक व्यवस्था के अंतर्गत ही विवादास्पद बाबरी मस्ज़िद का फैसला हुआ और रामलला मंदिर बन सका। भागवत जी कल्पना करें, यदि भारत आज़ाद नहीं होता तो ‘तीन तलाक़’ समाप्त हो सकता था? गुलाम भारत में संघ ने मथुरा+काशी +अयोध्या +संभल जैसे विवादों को क्यों नहीं सुलझाया?

जब कोई देश राजनैतिक रूप से स्वतंत्र होता है तभी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताएं प्राप्त की जा सकती हैं। क्या अंग्रेजी शासन में हिंदी समेत भारतीय भाषाओं को राष्ट्रीय महत्व मिल सका था? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी ? क्यों दुनिया में बीती सदियों में आज़ादी के संघर्ष और आंदोलन चलते रहे हैं और कुछ जगह आज भी चल रहे हैं। ज़रा इतिहास पर नज़र डालें; क्या अमेरिका, इंडोनेशिया, श्रीलंका, वियतनाम, क्यूबा, दक्षिण अफ्रीका सहित दर्जनों ब्रिटिश, फ्रेंच, इटली, डच कॉलोनियों आदि में पहले धार्मिक स्वतंत्रता के संघर्ष चले थे या राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए? राजनैतिक स्वतंत्रता से ही ‘राष्ट्र राज्य’ अस्तित्व में आते हैं जिसके अंतर्गत अन्य प्रकार की स्वतंत्रताएं दी जाती हैं। इतिहास में राजनैतिक स्वतंत्रता मानव इयत्ता की क्रांतिकारी कार्रवाई या हस्तक्षेप होती है।

इस सच्चाई को भी याद रखें, भागवत जी। यदि भारत आज़ाद नहीं होता तो क्या जनसंघ वज़ूद में आता ? क्या संघ नेता अटलबिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन सकते थे? स्वतंत्र भारत के संविधान के विभिन्न प्रावधानों के अंतर्गत ही भाजपा की सरकारें स्थापित हो सकी हैं। क्यों भूल जाते हैं की संविधान की शपथ खाकर ही संघ परिवार के नेता सत्ता में पहुँच सके हैं।

यदि अगस्त- स्वतंत्रता सच्ची नहीं थी, तो भाजपा के सांसदों और विधायकों को संविधान की शपथ लेनी नहीं चाहिए थी। उन्हें घोषणा करनी चाहिए थी कि महात्मा गाँधी के नेतृत्व में प्राप्त राजनैतिक स्वतंत्रता सच्ची नहीं है और हम इसे अस्वीकार करते हैं। संघ परिवार ने ऐसा क्यों नहीं किया? क्या इस सवाल पर भागवत प्रकाश डालेंगे? याद रखें, राजनैतिक स्वतंत्रता से ही संविधान व मताधिकार प्राप्त हुए हैं , किसी धार्मिक आंदोलन या अनुष्ठान से नहीं। यदि राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होती तो क्या आज मोदी+शाह के लाड़ले कोर्पोरेटपति (अम्बानी व अदानी) देश के सबसे बड़े धन कुबेर बन सकते थे?

भागवत -उवाच की कोख से कई और जटिल सवाल भी पैदा हो सकते हैं। संघ सुप्रीमो का मत है कि रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से ही वास्तविक आज़ादी प्राप्त हुई है। यदि देश के दलित डॉ. भीमराव आम्बेडकर के उस कथन को याद दिलाएं कि सामाजिक स्वतंत्रता के बग़ैर राजनैतिक स्वतंत्रता अधूरी है। दलितों की दृष्टि में प्राण-प्रतिष्ठा सवर्ण मूल्य व्यवस्था का हिस्सा है। भागवत जी से पूछा जा सकता है कि कितने दलित पुजारी अयोध्या, काशी, मथुरा, तिरुपति, रामेश्वरम, आदि शंकराचार्य -मठों में हैं?

दलित भी आंदोलन चला सकते हैं कि जब तक सामाजिक स्वतंत्रता नहीं मिलती है, तब तक उनके लिए राजनैतिकी और प्राणप्रतिष्ठा की स्वतंत्रता नितांत अर्थहीन है। तब क्या होगा। क्या यह सच नहीं है कि आज भी दलित भेदभाव के शिकार होते हैं।दलितों को आधुनिक अपार्टमेंटों में सहजता से फ्लैट नहीं मिलते हैं। पुलिस के संरक्षण में ही वे घोड़ी पर चढ़ कर बारात निकाल सकते हैं। संघ की जीवन यात्रा के सौ साल पूरे होने जा रहे हैं।

क्या भागवत जी बतलायेंगे कि इस अवधि में कितने ग़ैर -सवर्ण सरसंघचालक बने हैं? रज्जु भैया या राजेंद्र सिंह जी छोड़ कर कोई गैर -ब्राह्मण संघ- शिखर तक नहीं पहुंच सका है। ऐसा क्यों है? सो, दलित और वंचित वर्गों की दृष्टि से भी दोनों प्रकार की स्वतंत्रताएं ‘मिथ्या’ हैं। क्या भागवत जी के पास इसका कोई उत्तर है?

दक्षिण में डीएमके नेता गाहे -बगाहे द्रविड़ संस्कृति की बात उठाते रहते हैं। पिछले दिनों के मुख्यमंत्री स्टालिन के पुत्र मंत्री उदयनिधि ने द्रविड़ संस्कृति को लेकर काफी संवेदनशील वक्तव्य दिया था। एक प्रकार से उत्तर भारत के वर्चस्व को अस्वीकार करने वाला था। दक्षिण में हिंदी का विरोध होता ही रहता है। यदि, भविष्य में असली -नकली स्वतंत्रता का मुद्दा जोर पकड़ता है और तमिलनाडु की जनता मांग करती है कि उसे भी असली आज़ादी चाहिए। वह द्रविड़ संस्कृति में विश्वास करती है। तब क्या होगा? भागवत जी, खालिस्तान -आंदोलन में भी असली-नकली स्वतंत्रता की अंतर्धारा है।

फिलहाल सुप्त निहित शक्तियां स्वतंत्रता को रामजन्मभूमि मंदिर निर्माण व प्राण-प्रतिष्ठा से जोड़ने की अवधारणा को कालांतर में उपराष्ट्रीयताओं के स्वतंत्र अस्तित्व के सन्दर्भ में भी देखने की कोशिशें कर सकती हैं। आज उत्तर-पूर्व भारत में क्या हो रहा है? मणिपुर अशांत बना हुआ है। नागालैंड में भी वास्तविक स्थायी शांति कहां है? केंद्र ने राज्य – शक्ति के बल पर वहां शांति स्थापित की हुई है।

मूलतः श्रीलंका विजेता राम उत्तर भारत के ‘आराध्य देवता या भगवान’ हैं। शेष भारत की स्वतंत्रता के परिप्रेक्ष्य में मंदिर निर्माण से जनित स्वतंत्रता को देखना तर्क संगत नहीं होगा। इससे भविष्य में भारतीय राष्ट्र राज्य के अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा हो सकती हैं। ऐसी चुनौतियों की आशंकाओं से संघ प्रमुख कितने सतर्क व सावधान हैं, वे ही जानें। लेकिन, इतना तय है कि संकीर्ण अवधारणों और आख्यानों से विशुद्ध हिन्दू राष्ट्र का स्वप्न सत्य में परिवर्तित हो सकेगा, इसमें संदेह है!

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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