Thursday, March 28, 2024

भूमि पूजन में मोदीः लोकतंत्र के गिरते स्वास्थ्य की खुली घोषणा

आने वाले पांच अगस्त को अयोध्या में हो रहे भूमि पूजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शामिल होने को लेकर उन लोगोें की आपत्ति जायज है जिन्हें यह भारत के संविधान के खिलाफ लगता है। उन्हें यह भी याद आना स्वाभाविक ही है कि उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1951 में सोमनाथ मंदिर में शिवलिंग की स्थापना करने से राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को रोकने की कोशिश की थी। इसके पहले महात्मा गांधी ने सोमनाथ मंदिर बनाने में सरकारी पैसा लगाने का विरोध किया था और सरदार पटेल से वायदा लिया था कि मंदिर बनाने में सरकार किसी भी तरह से शामिल नहीं होगी। आरएसएस वाले जवाहरलाल को निशाना तो बना रहे हैं, लेकिन गांधी जी के विरोध की चर्चा नहीं कर रहे हैं, अगर कर भी रहे हैं तो उसे अपने हिसाब से पेश कर रहे हैं। 

गांधी जी ने उसी मूल बात को उठाया था जिसके आधार पर नेहरू ने राजेंद्र बाबू को सेामनाथ मदिर के उद्घाटन से रोकने की कोशिश की थी। इस मुद्दे पर प्रार्थना सभा के उनके भाषण पर गौर करना चाहिए। उन्होंने इस मामले को खुद अपने ध्यान में लिया। किसी अखबार में छपे पत्र में एक ईसाई धर्म मानने वाले ने सवाल उठाया था कि क्या भारत सरकार अपने पैसे से किसी खास धर्म का पूजा स्थल बना सकती है ? गांधी जी को लगा कि इस सवाल का जवाब मिलना चाहिए। उन्होंने सरदार पटेल के सामने यह सवाल रखा तो पटेल ने कहा था कि उनके जीते जी ऐसा नहीं हो सकता है।

हिंदू अगर मंदिर अपने पैसे से बनाना चाहेंगे तो बनेगा नहीं तो नहीं बनेगा। दिलचस्प यह है कि गांधी जी ने अपनी प्रार्थना सभा में जब इस मामले का खुलासा किया तो उस ’सेकुलर‘ शब्द की परिभाषा भी की थी जिससे आरएसएस और उससे जुड़े संगठन चिढ़ते हैं। गांधी जी ने इस अंग्रेजी शब्द का प्रयोग करते हुए कहा था कि सरकार किसी एक धर्म की नहीं है और भारत धर्म के आधार पर चलने वाला राज्य नहीं है। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि यह संविधान के अमल में आने के पहले की बात है। इससे जाहिर होता है कि भारत को एक सेकुलर राज्य बनाने को लेकर गांधी जी, पटेल या नेहरू में किसी तरह की दुविधा में नहीं थे। बात सिर्फ इतनी थी कि गांधी, पटेल और राजेंद्र बाबू व्यक्तिगत जीवन में धार्मिक थे और नेहरू नहीं। 

लेकिन इस मामले पर नेहरू के पत्राचारों पर गौर करने पर कई महत्वपूर्ण बातें उभर कर आती हैं और पता चलता है कि देश के हित में अलोक प्रिय हो जाने का खतरा उठा कर भी उन्होंने इसका विरोध किया। उन्होंने अपने एक पत्र में कहा है कि इससे विदेश में भी हमारी छवि पर असर हो रहा है कि एक सेकुलर सरकार इन कार्यों से अपने को कैसे जोड़ सकती है। उन्होंने अपने पत्र में इसे लेकर भी सवाल उठाया कि सौराष्ट्र की सरकार सोमनाथ मंदिर के समारोह के लिए पांच लाख रूपया खर्च करने जा रही है। नेहरू का कहना था कि देश में भुखमरी की स्थिति है और हमने पैसे की कमी के नाम पर शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरे फायदेमंद खर्चों पर रोक लगा रखी है। ऐसे में, उन्होंने पूछा था, एक मंदिर के स्थापना समारोह पर एक राज्य सरकार इतना पैसा कैसे खर्च कर रही है। 

गांधी और नेहरू के सामने जो सवाल थे, क्या वे मिट गए हैं? हमारी विदेश नीति को हिंदुत्व की विचारधारा ने किस तरह नुकसान पहुंचाया है, यह साफ दिखाई दे रहा है। नागरिकता संशोधन काूनन और बार-बार मुसलमान-हिंदू करने का नतीजा यह हुआ कि बांग्लादेश की भारत समर्थक सरकार ने भी हमसे अपने संबंध शिथिल कर लिए हैं। चीन ने हमारी सीमा में प्रवेश कर रखा है और बांग्लादेश चीन से अपने संबंध मजबूत बनाने में लगा है। चीन से हमारी तनातनी के बीच ही उसने 19 जून को सिलहट हवाई अड्डे का काम चीन को सौंप दिया। यह हवाई अड्डा हमारी पूर्वोत्तर सीमा के करीब है। इसी दौर में ईरान ने चाबहार बंदरगाह को जोड़ने वाली रेल का काम हमसे छीन कर चीन को सौंपा है। धार्मिक ध्वज फहराने से भले ही भारत की समस्याओं से कोई मतलब नहीं रखने वाले विदेश में बसे हिदुओं को मजा आता हो, उससे  हमारा कूटनीतिक नुकसान जाहिर है। यहां तक कि कल तक विश्व का एकमात्र हिंदू राष्ट्र कहलाने वाला नेपाल भी हमसे दूर हो चुका है। 

इसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है कि विश्व-राजनीति में हिंदुत्व की विचारधारा बुरी तरह पिट रही है। सेकुलर भारत ने चीन से लड़ाई लड़ी थी तो हमसे दुश्मनी रखने वाले पाकिस्तान ने भी उसका साथ नहीं दिया था। पाकिस्तान से हमने तीन युद्ध किए और कोई मुस्लिम देश उसके साथ नहीं आया। लेकिन आज चीन के साथ जाने में किसी को कोई संकोच नहीं हो रहा है। टीवी चैनलों पर गाल बजाने का युद्ध जीत कर या चैनलोें में अच्छा दिखने वाले सीन बना देने से हम युद्ध नहीं जीत सकते हैं। 

नेहरू ने ऐसे समारोहों पर पर खर्च करने के बदले शिक्षा-स्वास्थ्य पर खर्च करने को लेकर जो चिंता जताई थी, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय थी। कोरोना महामारी में हम फंसे हैं। इस दौर में यह चिंता और भी जरूरी है। हम देख चुके हैं कि प्रवासी मजदूर किस तरह भूखे-प्यासे पैदल भाग रहे थे और सरकार खामोश बैठी थी। देश में अस्पतालोें की हालत कितनी खराब है और कोरोना मरीजों का कैसा इलाज हो रहा है, यह उन्हीं चैनलों पर आता रहता है जो सरकार के लिए भजन गाते रहते हैं। देश के कई इलाके बाढ़ की चपेट में हैं और सरकार अपना खर्चा चलाने के लिए सरकारी कंपनियां बेचने में लगी है।

लेकिन यहां हमें यह भी देखना चाहिए कि अयोध्या और सोमनाथ में एक बड़ा फर्क यह है कि मंदिर बनाना पटेल की राजनीति का आधार नहीं था। वह आजादी की लड़ाई लड़ कर आए थे, रथ दौड़ा कर और लोगों को भड़का कर नहीं। वे नैतिक ताकत से भरे थे और देश के हित में कुछ भी छोड़ सकते थे। यही वजह है कि वे गांधी जी को यह वादा कर सकते थे कि उनके जीते जी मंदिर बनाने में सरकारी पैसा खर्च नहीं होगा। उन्होंने लोगों से मंदिर बनाने का वायदा करने के बावजूद ऐसा किया था। दूसरी ओर, नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ राम मंदिर की राजनीति से ही सत्तासीन हुए हैं और इससे मिली सफलता ने उन पर ऐसा जादू कर दिया है कि इसी के जरिए वे हर सफलता पाना चाहते हैं और अपनी हर विफलता को ढंकना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था की हालत सामने है। देश विषम आर्थिक परिस्थितियों से जूझ रहा है और सीमा में घुस आई चीनी सेना को निकालने में सफल नहीं हो रहा है। इसके बावजूद योगी और मोदी को राम मंदिर समारोह कराने की जल्दी है। 

असल में, मोदी एक ऐसी राजनीति को लेकर आए हैं जिसमें संवाद की गुंजाइश नहीं है। अगर यह होती तो ऐसे समारोहों में छिपी क्रूरता पर ज़रूर बहस होती। अगर इस क्रूरता को देखना हो तो सोशल मीडिया पर आ रहे पोस्टों पर नजर डालिए और हिंदुत्व समर्थक अखबारों और वेबसाइटोें पर आ रही टिप्पणियों पर गौर कीजिए।  इसमें राम मंदिर के बहाने देश के मुसलमानों तथा विरोधी विचारों को निशाना बनाया जा रहा है। बाबरी मस्जिद ढहा देने और विवाद का फैसला ढहा देने वालों के पक्ष में आ जाने से आम मुसलमानों की बढ़ती निराशा को समझना मुश्किल नहीं है। इसे हमें नागरिकता कानून, गोहत्या के नाम पर लिंचिंग और दिल्ली के दंगों जैसी घटनाओं के कारण उनके बढ़ते अलगाव से जोड़ कर देखना चाहिए। ऐसे में, ये समारोह उन्हें और अलग-थलग करने की कोशिश ही है। इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि प्रधानमंत्री का इसमें शामिल होना लोकतंत्र के गिरते स्वास्थ्य को दिखाता है।  

नफरत की बुनियाद पर न तो लोकतंत्र खड़ा रह सकता है और न ही कोई सभ्यता बची रह सकती है। यह चिंता भाजपा और मोदी को नहीं, देशवासियों को होनी चाहिए।

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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