दिल्ली में प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण करने के लिए लाया गया भारत सरकार का अध्यादेश हद दर्जे की बेशर्मी भरा क़दम है। यह लोकतंत्र के भविष्य के लिए घातक है। थोड़ी देर के लिए आप अपनी पक्षपातपूर्ण निष्ठा से बाहर निकल कर इस मामले के तकनीकी रूप से सही-ग़लत होने से परे जाकर इस पर विचार करें।
2015 की शुरुआत में ही सरकार ने दिल्ली में प्रशासनिक सेवाओं का नियंत्रण अपने हाथ में लेने की कोशिश की थी। यह दिल्ली को नियंत्रित करने का एक प्रयास था जो कानून में निर्दिष्ट केंद्र सरकार की वर्तमान शक्तियों में शामिल नहीं था। जाहिर है कि दिल्ली के शासन में केंद्र सरकार के वैध हित हैं। लेकिन इन हितों की रक्षा के प्रावधान तो पहले से ही मौजूद हैं। इसके बजाय, केंद्र सरकार, लोकतंत्र की भावना और दिल्ली में लंबे समय से सुनिर्धारित प्रथा के खिलाफ जाकर सभी प्रशासनिक अधिकारियों को अपने नियंत्रण में रखना चाहती है।
आठ साल तक मुकदमा चला। इसके बाद काफी राजनीतिक ड्रामा हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने पहले तो इस सवाल को टाल दिया, फिर अजीबो-गरीब विरोधाभासी फैसले दिए। मामले का फैसला आखिरकार पांच जजों की संविधान पीठ ने सुनाया। न्यायालय का सुविचारित निर्णय मौजूदा कानून के तहत, सार्वजनिक व्यवस्था आदि से संबंधित निर्दिष्ट क्षेत्रों को छोड़कर, अन्य सभी मामलों में प्रशासनिक सेवाओं को नियंत्रित करने का अधिकार दिल्ली सरकार को देता है।
लेकिन केंद्र सरकार ने क्या किया? फैसले के कुछ दिनों के भीतर ही, और सुप्रीम कोर्ट की छुट्टी के शुरू होते ही, इसने एक अध्यादेश पारित करके प्रशासनिक सेवाओं का नियंत्रण दिल्ली से छीन लिया है। यह कानून, संवैधानिकता, लोकतंत्र और संघवाद सबको नष्ट कर देने वाला क़दम है। इससे भी आगे बढ़कर यह एक ज्यादा अशुभ आशंका की ओर इशारा करता है कि केंद्र सरकार किसी भी परिस्थिति में सत्ता नहीं छोड़ेगी।
हालांकि संविधान पीठ ने तकनीकी रूप से, इस मामले में दिल्ली की शासन-प्रणाली को बदलने के लिए विकल्प खुले छोड़ रखे थे। यदि संसद दिल्ली की शासन-प्रणाली को बदलने और सभी प्रशासनिक सेवाओं को केंद्र सरकार के नियंत्रण में लाने के लिए कोई कानून पारित करती है, तो भले ही वह मूर्खतापूर्ण क़दम हो, लेकिन ऐसा कानून वैधानिकता की कसौटी पर खरा उतर सकता है। लेकिन अध्यादेश का रास्ता अपनाकर सरकार ने जानबूझकर एक भारी-भरकम संवैधानिक संकट खड़ा कर दिया है।
यह सच है कि अतीत में भी सरकारों ने संसद के ऊपर पहले से ही अपना निर्णय थोपने के लिए अध्यादेश के रास्ते का इस्तेमाल किया है। लेकिन यह रास्ता अपनाकर सरकार सुप्रीम कोर्ट का मजाक उड़ा रही है। जैसे कि कह रही हो कि “दिल्ली में एक निर्वाचित सरकार की शक्तियों की हिफाजत के पक्ष में आपके द्वारा कही गयी हर बात को नकारने के लिए हम पूरी तरह से तकनीकी रास्ते अपना रहे हैं।”
अब हालत यह है कि अगर सुप्रीम कोर्ट इसके खिलाफ कुछ करता है तो उसकी निन्दा होगी और यदि नहीं करता है तो भी उसकी निंदा होगी। यदि वह इस अध्यादेश के इस्तेमाल पर प्रतिक्रिया नहीं करता है, तो इससे दो संकेत निकलेंगे। पहला, कि केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेश शक्ति के दुरुपयोग को रोकने में अदालत का विफल होना। अध्यादेश लाने का कोई औचित्य भी नहीं था, क्योंकि सरकार कुछ ही हफ्तों में आसानी से कानून पारित करा सकती थी (हालांकि यह भी एक अनुचित क़दम होता)। दूसरा, प्रतिक्रिया न करने का अर्थ होगा दिल्ली के लाखों नागरिकों के मताधिकार को अर्थहीन बना देने की इस कार्रवाई पर मुहर लगा देना।
कहने की जरूरत नहीं, कि यह अध्यादेश लाकर सरकार उसी रास्ते पर चल रही है जो इसने जम्मू और कश्मीर में किया। मतलब कि किसी राज्य के वैधानिक दर्जे को किसी जवाबदेही के बिना ही बदल देना। कश्मीर मामले पर कोर्ट और अन्य सभी राजनीतिक दलों की चुप्पी का खामियाजा अब दिखने लगा है। अनुच्छेद 370 पर किसी का जो भी विचार हो, लेकिन एक राज्य को एकतरफा केंद्र शासित प्रदेश में बदल देने का न्यायिक परीक्षण और राजनीतिक विरोध तो होना ही चाहिए था। “संघवाद मुझको तो चाहिए, लेकिन तुमको नहीं मिलेगा,” यह कोई सिद्धांत नहीं होता है। अदालतों और राजनीतिक व्यवस्था ने मिलकर इस हालत की साजिश रची है।
दूसरी ओर, यदि न्यायालय अध्यादेश को खारिज कर देता है, तो कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच खुला संघर्ष छिड़ जाएगा। न्यायपालिका के क़दम को अवैध सिद्ध करने के लिए कार्यपालिका लोकप्रिय राष्ट्रीय इच्छा के जनादेश का हवाला देगी। यह भी हो सकता है कि इस अध्यादेश का उद्देश्य दिल्ली पर तुरंत नियंत्रण करना न हो, बल्कि हो सकता है कि सरकार इसी बहाने न्यायिक शक्ति को उसकी औकात बताना चाह रही हो और उसके हस्तक्षेप से हमेशा के लिए पिंड छुड़ा लेने की योजना पर काम कर रही हो। चाहे जो भी हो, मगर हमारे सामने एक संवैधानिक संकट खड़ा हो चुका है जो नियंत्रण से बाहर भी जा सकता है।
यह भी स्पष्ट है कि यह अध्यादेश संघवाद के संकट का पूर्वाभास देता है। आप समझ सकते हैं कि यह अध्यादेश लाना, और दिल्ली के नागरिकों को प्रतिनिधि सरकार से इनकार कर देना, पूरी तरह से केंद्रीकरण की ओर जाने के रास्ते हैं। खास तौर पर इसलिए भी, कि दिल्ली को राज्य का दर्जा देने के पीछे इसे स्वशासन का अधिकार सौंपने की मंशा थी। ‘आप’ के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार, चाहे उसकी सीमाएं कुछ भी हों, वास्तव में एक लोकप्रिय सरकार है। दिल्ली में उनके शासन को खत्म करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा अपनी सभी शक्तियों का उपयोग कर लेने के बावजूद ‘आप’ ने जीत हासिल की है।
लेकिन दिल्ली के मुद्दे से परे, लोकतंत्र पर एक बड़ा संकट मंडरा रहा है। लोकतंत्र के लिए बड़े जोखिमों में से एक यह है कि हारे हुए लोग हार के फैसले को स्वीकार नहीं कर रहे हैं और इसे उलटने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं। ऊपरी तौर पर यह कोशिश क़ानूनी दांव-पेंच के रूप में दिख सकती है, लेकिन दरअसल यह लोकतंत्र की भावना के साथ विश्वासघात है।
एक सरकार कुछ धड़ों पर दबाव बनाने और विपक्षी राजनीतिक दलों को तोड़ने के लिए राज्य शक्ति का उपयोग कर सकती है। तकनीकी तौर पर ये तरीक़े क़ानून-सम्मत लग सकते हैं, भले ही उनका इस्तेमाल खुलेआम भेदभावपूर्ण हो। सरकारी अधिकारी सत्तारूढ़ दल की मदद करने के लिए अपने ओहदे का दुरुपयोग कर सकते हैं।
यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वीकार किया कि महाराष्ट्र में राज्यपाल और स्पीकर ने ठीक ऐसा ही किया। उन्होंने एक वैध सरकार को गिराने के लिए अपने संवैधानिक पदों के साथ विश्वासघात किया। न्यायपालिका से भी उन्हें मदद मिली, जिसने गलत तरीके से विपक्ष के एक नेता को अयोग्य घोषित कर दिया। बल्कि उन्होंने भी वही किया जो केंद्र सरकार अभी दिल्ली में कर रही है।
यानि अध्यादेश की शक्तियों और कानून में अस्पष्टता का उपयोग इस तरह से किया जाए कि कानून का समग्र उद्देश्य ही खत्म हो जाए। दिल्ली के मामले को एक बड़े पैटर्न के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें भाजपा एक दृढ़ संकल्प के साथ काम कर रही है ताकि विपक्ष के लिए काम करने की परिस्थितियां ही न बचें, और गैर-बीजेपी दलों के लिए शासन चलाना और प्रतिस्पर्धा करना बिल्कुल मुश्किल हो जाए।
अब यह सवाल अपने आप से बहुत ईमानदारी से पूछिए। भाजपा ने दिखा दिया है कि वह दिल्ली में किसी अन्य राजनीतिक दल का शासन बर्दाश्त नहीं कर सकती। वह दिल्ली की सरकार को गिराने के लिए हर हथकंडा अपना रही है। क्या ऐसी राजनीतिक पार्टी, जब एक आसन्न हार की संभावना का सामना करेगी, तो क्या उसके आसानी से सत्ता छोड़ने की संभावना है?
कश्मीर के साथ जो किया गया वह पूरे संघीय ढांचे के ऊपर आसन्न खतरे की एक चेतावनी था। दिल्ली में जो कुछ हो रहा है वह पूरे भारतीय लोकतंत्र पर आसन्न खतरे की एक चेतावनी है। हमारे पास केंद्र में सत्ता में एक ऐसी पार्टी है जो कानून, संवैधानिकता, समझबूझ वाले प्रशासनिक आचरण और चुनावी राजनीति के निष्पक्ष नियमों का सम्मान नहीं करेगी। इसकी यह निर्लज्जता इस बात का संकेत है कि यह किसी भी कीमत पर सत्ता पर काबिज रहने की कोशिश करेगी।
(प्रताप भानु मेहता का लेख ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार; अनुवाद: शैलेश)