नई दिल्ली के इंडियन सोसाइटी आफ़ इंटरनेशनल लॉ में इसी 8 सितंबर को एक ‘जन पंचायत’ बैठी जिसमें असम में नागरिकता के सवाल पर भारत के कई प्रमुख पूर्व न्यायाधीशों और क़ानून जगत के विद्वानों ने हिस्सा लिया। विचार का विषय था नागरिकता को लेकर इस विवाद की संवैधानिक प्रक्रिया और इसकी मानवीय क़ीमत। वहां सभी उपस्थित कानूनविदों ने एनआरसी के वर्तमान उपक्रम को न सिर्फ संविधान-विरोधी बल्कि मानव-विरोधी कहने में ज़रा भी हिचक नहीं दिखाई। इस विमर्श में सेवानिवृत्त जस्टिस मदन लोकुर, कूरियन जोसेफ़, एपी शाह, प्रोफेसर फैजान मुस्तफ़ा, श्रीमती सईदा हमीद, राजदूत देब मुखर्जी, गीता हरिहरन आदि कई प्रमुख व्यक्तित्व शामिल थे।
दरअसल, किसी भी कारण और क्रिया के बीच नियम की तरह कारक की भूमिका हुआ करती है, जो अदृश्य होने पर भी वास्तव में क्रिया के निरूपण में नियामक होता है। अदालत की इमारत और न्यायाधीश की सूरत मात्र न्याय विचार को कोई ठोस शक्ल नहीं देती है। न्याय की प्रक्रिया में ये सब होकर भी नहीं होते हैं। फिर भी, न्याय को किसी भी अघटन से सुरक्षित करने के लिये ही इस प्रक्रिया को एक सुनिश्चित सांस्थानिक रूप देने की कोशिश जारी रहती है।
क़ानून यथार्थ के बहुरंगी स्वरूपों के प्रति संवेदनशील बना रहे, इसीलिये कारण और क्रिया के इस उपक्रम में कारक तत्व में लचीलापन काम्य होता है। पर यही लचीलापन कई बार न्याय की जगह अन्याय का हेतु भी बन जाता है ; प्रगति की जगह प्रतिक्रिया का। असम में एनआरसी के मामले में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका भी कुछ ऐसी ही रही है।
भारत में हर दस साल पर होने वाली जनगणना स्वयं में एक नागरिक रजिस्टर तैयार करने का ही उपक्रम है। 1951 की जनगणना के तथ्यों से ही असम में नागरिक रजिस्टर का जन्म हुआ था। असम में सन् 1971 के बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध के काल में बड़ी संख्या में शरणार्थियों का आगमन हुआ था जो बांग्लादेश के उदय के साथ ही वापस अपने देश चले गये थे, लेकिन अपने पीछे वे असम की राजनीति में काल्पनिक आशंकाओं पर आधारित विवाद का एक स्थायी विषय छोड़ गए। इसने ग़रीबी और पिछड़ेपन से पैदा होने वाली ईर्ष्या और नफरत की तरह की अधमताओं पर टिकी राजनीति को जन्म दिया। तभी असम में असमिया और बांग्ला भाषी लोगों के बीच भ्रातृघाती दंगों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जिसने बांग्ला और असमिया भाषा तक को परस्पर के विरुद्ध खड़ा कर दिया था।
असम गण परिषद इसी समग्र अधमता का एक प्रतीक रही है। व्यापक रूप से यह झूठी धारणा बनाई गई कि वहां से बड़ी संख्या में शरणार्थी वापस नहीं गये और उन्होंने असम की आबादी के स्वरूप को बदल दिया है ; वे असम के सारे संसाधनों को हड़प ले रहे हैं। आरएसएस इस पूरे विवाद को हिंदू-मुस्लिम रूप देने की कोशिश में अलग से लगा रहा।
1985 में केंद्र सरकार और असम के आंदोलनकारियों के बीच एक समझौते के बाद ही असम गण परिषद के प्रफुल्ल कुमार महंता की पहली सरकार (1985-89) बनी। फिर 1991 से 1996 तक उनकी दूसरी सरकार भी बनी। लेकिन असम में विदेशी नागरिकों के बसने के बारे में वास्तव में कोई ठोस तथ्य सामने नहीं आएं। पर आरएसएस वालों ने इस झूठी अवधारणा को जरूर ज़िंदा रखा। खास तौर पर मुसलमानों की आबादी के बारे में वे शेष भारत की तरह ही यहां भी लगातार झूठे तथ्य प्रचारित करते रहे।
इसी बीच 2013 में, जब देश की राजनीति में सांप्रदायिक ताकतें उठान पर थी, नागरिक रजिस्टर के मसले पर अचानक ही सुप्रीम कोर्ट की एक खास भूमिका सामने आई। वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगई और आर एफ नरीमन की दो जजों की बेंच ने एक मामले में केंद्र और राज्य सरकार को निर्देश जारी करके खुद की देख-रेख में पूरे असम में नागरिक रजिस्टर को अद्यतन बनाने का विशाल उपक्रम शुरू कर दिया। आज इस विषय पर जो भारी उथल-पुथल दिखाई दे रही है,यह सुप्रीम कोर्ट के उसी मनमाने फ़ैसले का परिणाम है।
सुप्रीम कोर्ट की राय में सबसे बुरी टिप्पणी वह थी जिसमें लोगों के बाहर से आकर बसने की प्रक्रिया को राष्ट्र के खिलाफ आक्रमण तक कह दिया गया था। इससे असम में पहले से चली आ रही नफरत की झूठी राजनीति को भी बल मिला। आज जब एनआरसी की एक अंतिम सूची जारी की गई है, लगभग 19 लाख लोगों को सिर्फ नागरिकता की सिनाख्त की प्रक्रियाओं की त्रुटियों की वजह से राज्य-विहीनता की दुश्चिंता में डाल दिया गया है। इस पूरे प्रकरण में यदि असम की स्थानीय राजनीति और आरएसएस की राजनीति की भूमिका थी तो समान रूप से इसमें सुप्रीम कोर्ट की क़ानूनी भूमिका भी कम ख़राब नहीं रही है।
आज का सच यह है कि एनआरसी के पीछे के कारण कुछ भी क्यों न रहे हो, इस एक कदम ने कश्मीर के मसले से जुड़ कर भारत को दुनिया के सबसे घृणित जातीय संहारकारी राष्ट्रों की क़तार में खड़ा कर दिया है। यह लाखों मासूम लोगों को ज़लील और अपमानित करने का और देश में जातीय घृणा को सुनियोजित ढंग से फैलाने का एक जघन्य उपक्रम साबित हो रहा है। हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की उदार विरासत पर इसने कालिख पोत दी है।
सुप्रीम कोर्ट इस प्रक्रिया को उसके तार्किक अंजाम तक पहुंचाने के चक्कर में परिस्थिति को जटिल से जटिलतर करता जा रहा है। इसमें शामिल बाक़ी सारे तत्व आंख मूंद कर बस अदालत के आदेश के पालन में, अथवा अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। इन सबकों इसके अंतिम परिणामों का उसी प्रकार ज़रा भी ख़याल नहीं है जैसा हिटलर के आदेशों पर अमल करने वाले नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों को नहीं था।
विस्थापन और आप्रवासन की मानवीय त्रासदियों पर संयुक्त राष्ट्र के कई मूल्यवान अध्ययन उपलब्ध हैं।2009 की मानव विकास रिपोर्ट में इसे मनुष्यों की गतिशीलता के सकारात्मक नज़रिये से देखा गया था।पूरा मानव इतिहास ही मनुष्यों की इसी गतिशीलता का इतिहास रहा है।इसके पीछे प्राकृतिक आपदा कारण हो सकती है और बेहतर अवसरों की तलाश भी।
संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य को नोट किया था कि यदि इस प्रकार के आवागमन के प्रति अनावश्यक रूप में डर पैदा किया जाता है तो इसके परिणाम अत्यंत त्रासद और दुखजनक होते हैं। अन्यथा आप्रवासियों ने ही अब तक तमाम राष्ट्रों को आबाद और विकसित किया है, और आज भी कर रहे हैं।भारत में न्याय का प्रहरी ही न्याय के अघटन का कारण साबित हो रहा है।
(अरुण माहेश्वरी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और कोलकाता में रहते हैं।)
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