Friday, March 29, 2024

टाइम की शख्सियतों में शाहीन बाग का चेहरा

कहते हैं आसमान में थूका हुआ अपने ही ऊपर पड़ता है। सीएएए-एनआरसी के खिलाफ देश में चलने वाले शाहीन बाग समेत सैकड़ों आंदोलनों को बदनाम करने का सरकार ने जो रवैया अपनाया था उसका नतीजा उसे कुछ इसी रूप में मिला जब शाहीन बाग की 82 वर्षीय सबसे बुजुर्ग महिला बिलकिस बानो को टाइम मैगजीन ने 2020 की दुनिया की 100 प्रभावशाली शख्सियतों में शामिल किया। इस अकेली घटना ने मोदी सरकार द्वारा इस आंदोलन पर लगाए जा रहे दंगों के दाग के साजिशों की कलई खोल दी है। यह आंदोलन कितना साफ और पाक था और कितना लोकतांत्रिक और मानवता का पक्षधर यह बात किसी से छुपी नहीं है। यह देश और दुनिया का पहला ऐसा आंदोलन था जिसकी अगुआई महिलाओं ने की और शुरू से लेकर अंत तक पूरा आंदोलन उन्हीं के नेतृत्व में चला।

मजाल क्या थी कि मंच से कोई नफ़रत या फिर घृणा की बात कर दे या फिर कोई ऐसा बयान दे दे जो संविधानेतर हो और समाज के मुश्तरका ताने-बाने को किसी तरह का चोट पहुंचाता हो। ऐसा कुछ कहने पर मंच पर बैठी महिलाएं उस शख्स का मुंह पकड़ लिया करती थीं और नहीं मानने पर मंच से उसे नीचे उतार देती थीं। यह अपने किस्म का अलहदा आंदोलन था जिसे अल्पसंख्यक समुदाय की उन महिलाओं ने नेतृत्व दिया जिन्होंने या तो अपनी जिंदगी बुर्के में गुजारी था या फिर ताज़िंदगी चारदीवारी के भीतर रहकर परिवार की सेवा की थी। लेकिन जरूरत पड़ने पर उन्होंने भावी पीढ़ी के प्रति अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को समझा और उसे शिद्दत के साथ पूरा किया। 

दरअसल शाहीन बाग पैदा ही हुआ अन्याय और प्रतिकार के खिलाफ था। महिलाओं ने जब जामिया मिल्लिया में अपने बच्चों को सुरक्षाबलों की लाठियों से बेवजह पिटते देखा तो उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ और उसी का नतीजा शाहीन बाग के तौर पर सामने आया। ओखला की महिलाओं ने कसम खा ली थी कि जब तक अपने बच्चों को न्याय नहीं दिला लेती हैं वे अपने घरों को वापस नहीं जाएंगी। इस कड़ी में उनके न्याय का यह संकल्प सीएए के खात्मे तक चला गया। उसका नतीजा यह रहा कि शाहीन बाग अब महज केवल आंदोलन नहीं बल्कि अन्याय के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक बन गया। और फिर देश के अलग-अलग हिस्सों में देखते ही देखते हजारों शाहीन बाग खड़े हो गए। इस तरह से सरकार के हाथ-पांव फूलने लगे। उसके पास उनसे निपटने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।

बिलकिस इसी शाहीन बाग की पैदाइश हैं। 82 वर्षीय बिलकिस समेत शाहीन बाग की तीन दादियां सबसे ज्यादा मशहूर हुईं। वह अखबार से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया से लेकर आम अवाम तक घर-घर चर्चे का चेहरा बन गयीं। नवंबर और दिसंबर की गलन भरी उन रातों को भी इन बूढ़ी महिलाओं ने अपने जज्बे से मात दिया। ऐसे समय में जबकि लोग घर के भीतर रजाइयों से भी बाहर निकलना मुनासिब नहीं समझते इन महिलाओं ने सड़कों पर खुले आसमान के नीचे अपने बच्चों के भविष्य के लिए रातें काटीं।

इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए तब बिलकिस ने कहा था कि “हम तो बुड्ढे हो गए हैं और यह सब हम अपने लिए नहीं कर रहे हैं……यह हमारे बच्चों के लिए है। वरना इस गलन भरी रात में हम क्यों खुले आसमान के नीचे अपने दिन और रातें काटेंगे?” जब 26 जनवरी देश का गणतंत्र दिवस आया तो शाहीन बाग ने झंडा फहराने के लिए अपनी इसी दादी और रोहित वेमुला की मां को चुना। इस तरह से बिलकिस उस आंदोलन की पहचान बन गयीं। 

बिलकिस उस घटना की भी गवाह रहीं जब सत्ता के संरक्षण में आंदोलन को किसी भी तरीके से उखाड़ने की कोशिश की गयी और उसके तहत वहां अराजकता फैलाने की साजिश रची गयी। इसके तहत कुछ गुंडों और अपराधी तत्वों को वहां भेजा गया। जिसमें एक शख्स ने आंदोलन के पास पहुंच कर फायरिंग तक कर डाली। घटना के समय बिल्किस वहां मौजूद थीं। उन्होंने बताया कि यह घटना उनसे महज 50 मीटर की दूरी पर घटी थी। लेकिन स्टेज पर बैठी महिलाएं उससे डरी नहीं और बिल्कुल शांत बनी रहीं। उन्होंने बताया कि “कुछ देर के लिए टेंट के भीतर अफरा-तफरी जरूर मची लेकिन फिर लोग शांत हो गए। हम वहां तक गए थे जहां गोलियां बरामद की गयी थीं। हमने प्रार्थना की…..बुलेट हम लोगों को डराती नहीं हैं।”

इस आंदोलन को बदनाम करने के लिए केंद्र की सत्ता ने क्या कुछ नहीं किया। एक साजिश नाकाम हुई कि दूसरी पर काम शुरू हो गया। उसके पास दिल्ली चुनाव का जो लक्ष्य था और उसके पहले उसे किसी भी तरह से उसे बदनाम कर माहौल को अपने पक्ष में करना था। फिर क्या था उसने नार्थ-ईस्ट में कपिल मिश्रा सरीखे अपने गुर्गों को आगे कर दिया और फिर सत्ता प्रायोजित जो दंगा हुआ उसको देश और पूरी दुनिया ने देखा। राजधानी दिल्ली में केंद्रीय सत्ता की आंख के नीचे इस नरसंहार को अंजाम दिया गया।

इसने गुजरात के बाद मोदी के दामन पर निर्दोषों और मासूमों की मौत के एक और दाग को चस्पा कर दिया। लेकिन अब उसी दंगे को उन आंदोलनकारियों के सिर मढ़ने की कोशिश की जा रही है जिन्होंने शाहीन बाग सरीखे उन पाक आंदोलनों का नेतृत्व किया था या फिर उसमें शामिल रहे थे। इसमें सफूरा जरगर से लेकर देवांगना कलिता और सीपीएम नेता सीताराम येचुरी से लेकर प्रोफेसर अपूर्वानंद तक सबको घसीट लेने की कोशिश की जा रही है। और अब ताजा नाम एडवोकेट प्रशांत भूषण और एक्टिविस्ट एवं ऐपवा नेता कविता कृष्णन का जुड़ा है। 

लेकिन बलकिस को मिले इस तमगे ने सरकार के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। इसने इस आंदोलन पर वह मुहर लगा दी है जिसे लाख कोशिशों के बाद भी संघी जमात नहीं मिटा सकती है। दरअसल आंदोलन तो बेहद पवित्र चीज होती है। इतिहास में जब-जब मानवता ने करवट ली है उसके पीछे कोई न कोई बड़ा आंदोलन रहा है। दुनिया में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की स्थापना के लिए फ्रांस की क्रांति हो या फिर जारशाही के खिलाफ रूसी जनता का विप्लव या फिर दास प्रथा के खिलाफ राष्ट्रपति लिंकन तक का पद पर रहते गृहयुद्ध में शामिल हो जाना।

इतिहास में एक नहीं हजारों ऐसी मिसालें हैं। नेल्सन मंडेला ने जीवन के अपने 27 कीमती साल इसलिए जेलों में काट दिए क्योंकि उन्हें अपनी जनता को अंग्रेजों की गुलामी और रंगभेद से मुक्त करना था। खुद हमारे देश में जब संघी अंग्रेजी हुकूमत के तलवे चाट रहे थे तो एक बूढ़ा आदमी बगैर किसी हथियार के उन्हें बाहर निकालने के संकल्पों को पूरा कर रहा था। इसलिए आंदोलन तो बेहद कुदरती और पवित्र होता है और उससे निकलने वाला हर फलसफा इतिहास और मानवता की धरोहर हो जाती है। भला उसको कोई कैसे बदनाम कर सकता है? 

लेकिन यह बात देश, समाज और दुनिया में नफरत तथा घृणा का कारोबार करने वाले लोग नहीं समझ सकते हैं। उनके पास आंदोलन के नाम पर अभी तक राम मंदिर का आंदोलन है जिसके रथ के खूनी पहियों ने न केवल हजारों-हजार निर्दोष और मासूम लोगों की जान ली। बल्कि देश में नफरत और घृणा के स्थायी वजूद का जरिया बन गया। और अंत में 450 साल पुराने एक ऐसे पवित्र स्थल के ध्वंस का कारण बना जिसके लिए उसके कर्ताधर्ताओं को अदालतों का सामना करना पड़ रहा है और वो देश तथा दुनिया के सामने आज मुजरिम बनकर खड़े हैं। लिहाजा इनसे किसी आंदोलन की गरिमा और उसके सम्मान की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। हां यह बात अलग है कि इन लोगों ने दूसरों के आंदोलनों का ज़रूर फायदा उठाया। वह आज़ादी की लड़ाई के चेहरे उधार लेने का मामला हो या फिर इमरजेंसी के नेताओं का इस्तेमाल उन्होंने हर मौके को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश की।

क्या किसी ने आज तक सोचा कि एक संगठन जो 1925 से स्थापित है उसने अपना एक भी कोई सर्वमान्य चेहरा क्यों नहीं बना सका? उसे बार-बार उधार के चेहरों की क्यों जरूरत पड़ती है? आज तक उसके भीतर से कोई बिलकिस क्यों नहीं निकल सकी? इसका बहुत सरल उत्तर है। क्योंकि यह जमात अपने कंटेंट में मानवता विरोधी है। यह समाज में नफरत और घृणा की वाहक रही है।

इनके पास करने के नाम पर केवल दंगे और उसकी साजिशें रही हैं। अब उसके बल पर कोई समाज का आदर्श तो नहीं बन सकता है। यही इनकी सच्चाई है। और आज जब एक बार फिर उन्हीं दंगों के जरिये एक पूरे पवित्र आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की जा रही थी तो बिलकिस ने अकेले ही इनके पूरे घृणित मंसूबों पर पानी फेर दिया है। बिलकिस ने इसके जरिये पूरी दुनिया को बता दिया कि आज मोदी सत्ता कहां खड़ी है और शाहीन बाग तथा उसका आंदोलन कहां है।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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