एक अरसे बाद उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी कि “हमारा संविधान अदालतों को मूक दर्शक बने रहने की परिकल्पना नहीं करता है, जब नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन कार्यकारी नीतियों द्वारा किया जा रहा हो” उन सभी लोगों, एक्टिविस्टों और कानून के शासन में विश्वास रखने वालों को बहुत सुखद लगी जो पिछले चार चीफ जस्टिस के कार्यकाल में राष्ट्रहित के नाम पर संविधान और कानून के शासन की न्यायपालिका द्वारा की जा रही आपराधिक अनदेखी से क्षुब्ध थे।
आपातकाल के बाद एक समय ऐसा आया जब देश की न्यायपालिका जनसरोकार के मुद्दों पर अतिसक्रियता के लिए जानी जाती थी। न्यायिक अतिसक्रियता की सत्ताधारी दल और सरकारें यह कहकर आलोचना करती थीं कि न्यायपालिका सरकार चलाने की परोक्ष कोशिश कर रही है और नीति विषयक मामलों में अनुचित हस्तक्षेप कर रही है। इसके बाद एक के बाद एक एक चार चीफ जस्टिस जस्टिस खेहर, जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस एसए बोबडे का कार्यकाल गुजरा जिसमें न्यायपालिका में विशेष वैचारिक प्रतिबद्धता की पृष्ठभूमि से आये एक न्यायाधीश जस्टिस अरूण मिश्रा ने अधिकांश महत्वपूर्ण मामलों में सरकार के पहरुए की भूमिका निभाई और कार्यकारी नीतियों द्वारा नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन को राष्ट्रहित की संज्ञा देकर संवैधानिक प्रावधानों और कानून के शासन की जमकर अनदेखी की।
इसका अनुसरण अधिकांश माननीयों ने की तो यह तथ्य उभर कर आया कि कॉलेजियम प्रणाली से चयनित अधिकांश रीढ़ विहीन हैं। इन चरों चीफ जस्टिस के कार्यकाल में कतिपय न्यायाधीशों को उन महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई से जानबूझकर अलग रखा गया जिसमें विपरीत फैसले सरकार के लिए परेशानी का कारक बन सकते थे। जब से जस्टिस एन वी रमना ने चीफ जस्टिस का पदभार सम्भाला है तब से कानून के शासन की अवधारणा फिर से बलवती हुई है और न्यायपालिका राष्ट्रवादी मोड से बाहर निकलती दिख रही है। पिछले चार चीफ जस्टिस के कार्यकाल को देखने वालों ने कल्पना भी नहीं किया था कि वर्तमान चीफ जस्टिस रमना देश के हनक और खनक वाले महाबली प्रधानमन्त्री के सामने नियमों का हवाला देकर उनके द्वारा सीबीआई प्रमुख के लिए चयनित दो नामों को सूची से बाहर कर देंगे। लेकिन चीफ जस्टिस रमना ने ऐसा ही किया।
पीठ ने कहा कि न्यायिक समीक्षा और कार्यपालिका द्वारा तैयार की गई नीतियों के लिए संवैधानिक औचित्य की याचना एक आवश्यक कार्य है, जिसे अदालतों को सौंपा गया है। पीठ ने आदेश में केंद्र सरकार द्वारा तैयार की गई उदार टीकाकरण नीति में कई मुद्दों पर प्रकाश डाला। आदेश में कहा गया है कि दुनिया भर की अदालतों ने उन कार्यकारी नीतियों को दी गई संवैधानिक चुनौतियों का जवाब दिया है, जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता का उल्लंघन किया है। आदेश में कहा गया है कि अदालतों ने प्रायः सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के प्रबंधन में कार्यपालिका की विशेषज्ञता पर जोर दिया है, हालांकि महामारी से लड़ने के लिए आवश्यक बताकर कार्यपालिका के विस्तृत अक्षांश की आड़ में मनमानी और तर्कहीन नीतियों के खिलाफ चेतावनी भी दी है।
आदेश में गुजरात मजदूर सभा बनाम गुजरात राज्य (जिसने श्रम कानूनों को शिथिल करने की कारखाना अधिनियम अधिसूचना को रद्द कर दिया था) में दिए गए पिछले साल के फैसले का उल्लेख किया गया, जहां न्यायालय ने कहा था कि महामारी का मुकाबला करने के लिए नीतियों का मूल्यांकन आनुपातिकता की सीमा से जारी रखा जाना चाहिए ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि क्या उनका, अन्य बातों के साथ-साथ, उस वस्तु के साथ एक तर्कसंगत संबंध है, जिसे प्राप्त करने की मांग की गई है और उन्हें प्राप्त करने के लिए आवश्यक है।
आदेश में कहा गया कि महामारी की दूसरी लहर से जूझते हुए, यह न्यायालय दो प्रतिस्पर्धी और प्रभावोत्पादक नीति उपायों के बीच चयन करते समय कार्यपालिका के ज्ञान का दूसरा अनुमान लगाने का इरादा नहीं रखता है। हालांकि, यह निर्धारित करने के लिए अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना जारी रखता है कि क्या चुना गया नीति उपाय तर्कसंगतता के मानकों के अनुरूप है, प्रकट मनमानी के खिलाफ संघर्ष करता है और सभी व्यक्तियों के जीवन के अधिकार की रक्षा करता है।
केंद्र ने कहा कि जुलाई 2021 तक सीरम 5 से 6.5 करोड़ डोज प्रति महीने, भारत बायोटेक 90 लाख से दो करोड़ डोज प्रति महीने जुलाई से बनाएगी। साथ ही स्पुतनिक 1.2 करोड़ डोज तक बनाएगी। लिबरलाइज्ड वैक्सिनेशन पॉलिसी इसलिए लायी गई है ताकि और ज्यादा वैक्सीन निर्माता कंपनियां सामने आएं और जल्दी से जल्दी वैक्सिनेशन प्रक्रिया पूरी की जा सके। निर्माताओं को पहले बताना होगा कि खरीद की कीमत क्या होगी। यही नहीं केंद्र से यह बताने के लिए भी कहा गया है कि विदेशों में वैक्सीन किस कीमत पर मिल रही है और भारत में किस कीमत पर।
उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार से कोवैक्सिन, कोविशील्ड और स्पुतनिक वी सहित अब तक के सभी कोविड-19 टीकों के सरकार के खरीद इतिहास पर पूरा डेटा प्रस्तुत करने को कहा है। क्या पिछले 5-6 सालो के मोदी राज में उच्चतम न्यायालय ने कभी केंद्र सरकार से अप्रिय सवाल नहीं पूछे, लेकिन इस बार पीठ ने पूछा कि वैक्सीनेशन के लिए आपने 35 हजार करोड़ का बजट रखा है, अब तक इसे कहां खर्च किया। पीठ ने केंद्र से वैक्सीन का हिसाब भी मांगा और ये भी पूछा कि ब्लैक फंगस इन्फेक्शन की दवा के लिए क्या कदम उठाए गए हैं।
पीठ ने कोरोना टीकाकरण पर केंद्र सरकार की नीति पर भी सवाल उठा दिया है और उसे मनमाना बताया है। पीठ ने कहा है कि केंद्र ने 45 से अधिक उम्र के लोगों को मुफ्त टीका दिया। लेकिन 18 से 44 आयु वर्ग के लोगों के लिए राज्य सरकार और निजी अस्पताल को खरीद के लिए कहा। यह नीति तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। पीठ ने केंद्र सरकार को यह बताने को कहा है कि वैक्सिनेशन का फंड कैसे खर्च किया? केंद्र ने इस साल वैक्सिनेशन के लिए 35 हजार करोड़ का बजट रखा है। पीठ ने केंद्र यह स्पष्ट करने को कहा कि अब तक ये फंड किस तरह से खर्च किया गया है? केंद्र से यह भी बताने को पीठ ने कहा है कि 18-44 आयु वालों के मुफ्त टीकाकरण के लिए इसका इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया?
सोशल मीडिया पर तो यहाँ तक कहा जाने लगा है कि क्या उच्चतम न्यायालय सुप्तावस्था से बाहर निकल आया है? क्या वह गहरी नींद से जग गया है? देश में आज तक विपक्ष हो या मीडिया किसी ने वैक्सिनेशन के लिए 35 हजार करोड़ के बजट का कोई सवाल नहीं उठाया है। उच्चतम न्यायालय द्वारा वैक्सिनेशन का फंड को कैसे खर्च किया गया का सवाल उठाने से लोग अचम्भित हैं कि उच्चतम न्यायालय को अचानक क्या हो गया है?
(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह का लेख।)
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