वर्ष 1857 में वह दस मई, दिन रविवार का था। उस रोज जब हमारे देश ने अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी की गुलामी के विरुद्ध अपने पहले स्वतंत्रता संग्राम का आगाज किया। इस आगाज की अगुवाई देश की राजधानी दिल्ली से 60-70 किलोमीटर दूर स्थित मेरठ की छावनी में कम्पनी के देसी सैनिकों ने बगावत करके की।
उस दिन इन सैनिकों के खून में उबाल आया तो उन्होंने सबसे पहले मेरठ की जेल पर हमला किया और वहां बंद अपने उन 85 साथियों को छुड़ा लिया। जिन्होंने कुछ दिन पहले गाय व सुअर की चर्बी वाले बहुचर्चित नये कारतूस (बन्दूकों में भरने से पहले दांतों से जिनका खोल उतारना पड़ता था) इस्तेमाल करने से इनकार कर अपने अंग्रेज अफसरों की नाराजगी मोल ली थी। जिसके चलते वे निर्मम कोर्ट मार्शल व अपमान झेल रहे थे।
जेल पर इस हमले में जिस भी अंग्रेज फौजी ने बाधा डालनी चाही, बागी सैनिकों ने उसे मौत के घाट उतार दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने उन सारे बंगलों को आग के हवाले कर दिया, जिनमें अंग्रेज अफसर रहते थे। फिर अपनी जीत का परचम लहराते हुए राजधानी दिल्ली पहुंचे और अंग्रेजों द्वारा जबरन अपदस्थ कर दिये गये देश के आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को फिर से गद्दीनशीन कर दिया। लाचार जफर ने उनसे कहा कि उनका तो उन्हें तनख़्वाह देने का भी बूता नहीं है, तो बागी सैनिकों ने उनसे कहा, ‘आप हुक्म भर दे दें, हम ईस्ट इंडिया कम्पनी का सारा खजाना आपके कदमों में डाल देंगे।’
फिर तो बूढ़े बहादुरशाह जफर में ही नहीं, बकौल सुभद्राकुमारी चौहान, बूढ़े भारत में भी फिर से नई जवानी आ गई थी और उसका स्वतंत्रता संग्राम उसके बड़े हिस्से में फैल गया था। अलबत्ता, वह अंग्रेजों को देश से निकाल बाहर करने की अपनी मंजिल नहीं पा सका था, लेकिन जैसा इतिहासकार कहते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम कभी विफल नहीं होते। वह भी इंग्लैंड की तत्कालीन महारानी विक्टोरिया को इतना विवश करने में सफल रहा था कि वे भारत की सत्ता ईस्ट इंडिया कम्पनी से छीनकर अपने नियंत्रण में ले लें।
जाहिर है कि यह सब एक-दो दिन में नहीं हुआ था। बागी सैनिक ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेनाओं को अगले दो वर्षों तक पश्चिम में पंजाब, सिंध व बलूचिस्तान से लेकर पूर्व में अरुणाचल व मणिपुर और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में केरल व कर्नाटक तक छकाते रहे थे। अलबत्ता अलग-अलग वक्त पर खुले अलग-अलग मोर्चों पर, जिनमें कभी वे मुंह की खा जाते थे तो कभी अंग्रेज। मैदानी इलाकों में हल जोतने वालों से लेकर छोटा नागपुर-रांची की पर्वतीय जनजातियों, हिन्दुओं से लेकर मुसलमानों, सिखों, जाटों, मराठों व बंगालियों, शिक्षितों से लेकर अंगूठा छाप किसानों व मजदूरों, सिपाहियों से लेकर राजमिस्त्रियों, राजे-रजवाड़ों से लेकर मेहतरों और रानियों-बेगमों से लेकर उनकी दासियों-बांदियों तक ने भी अपनी-अपनी तरह से अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था।
फिर भी भारत ईस्ट इंडिया कम्पनी का नहीं तो महारानी विक्टोरिया का गुलाम और ब्रिटिश उपनिवेश बना रह गया था। इसलिए दस मई अगले पचास साल तक स्वतंत्रता संग्राम के आगाज का दिन होने से श्रेय से वंचित रही। क्योंकि इन पचास सालों में इस संग्राम को स्वतंत्रता संग्राम के रूप में पहचाना ही नहीं गया और उसे ‘सिपाही विद्रोह’ अथवा ‘गदर’ ही कहा जाता रहा। भले ही कार्ल मार्क्स ने उन्हीं दिनों ‘ट्रिब्यून’ में अपनी टिप्पणियों में लिखा था कि यह भारतवासियों का राष्ट्रीय विद्रोह है और बागी सैनिक उसे रूप देने के माध्यम भर हैं।
लेकिन आगे चलकर वह जागरूक देशप्रेमियों की कोशिशों से उस दौर का राष्ट्रीय त्योहार बनी तो जब भी आती, यह गीत देशवासियों का कंठहार बन जाता: ‘ओ दर्दमंद दिल दर्द दे चाहे हजार, दस मई का शुभ दिन भुलाना नहीं। इस रोज छिड़ी जंग आजादी की, बात खुशी की गमी लाना नहीं।’
लेकिन उसके अच्छे दिन, सच पूछिये तो, 1907 में आये, जब अंग्रेजों ने इस स्वतंत्रता संग्राम की पचासवीं वर्षगांठ पर उसमें अपनी विजय का जश्न मनाने की सोची और उसके भारतीय नायकों को कोसने लगे। तब लंदन में रह रहे हिन्दुस्तानी युवाओं व छात्रों को संगठित करके ‘1857 के शहीदों की इज्जत और लोगों को उसका सच्चा हाल बताने के लिए’ अभियान शुरू किया गया। 1909 में विनायक दामोदर सावरकर ने ‘दि हिस्ट्री आफ इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस’ नामक पुस्तक लिखी, जिसमें 1857 को ‘भारतीय स्वतंत्रता का पहला संग्राम’ बताया तो अंग्रेजों ने उसे जब्त करके ही चैन पाया।
लेकिन तब तक बात बहुत दूर चली गई थी। भारत में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन व नौजवान भारत सभा से सम्बद्ध प्रख्यात क्रांतिकारी चिन्तक भगवतीचरण वोहरा (जिनका 28 मई, 1930 को लाहौर में रावी के तट पर बम का परीक्षण करते हुए निधन हो गया और चंद्रशेखर आजाद व भगत सिंह के मशवरे से लिखे गये जिनके ‘बम का दर्शन’ शीर्षक निबंध ने उन्हें क्रांतिकारी आन्दोलन का सिद्धांतकार बना दिया था।) ने अप्रैल, 1928 में ‘किरती’ में ‘दस मई का शुभ दिन’ शीर्षक अपने लेख में लिखा कि 1857 में जो कुछ हुआ, वह भारतवासियों द्वारा अपनी गुलामी की जंजीरें तोड़ने का प्रथम प्रयास था। भारत के दुर्भाग्य से यह प्रयास सफल नहीं हुआ, इसलिए हमारे दुश्मन इस ‘आजादी की जंग’ को गदर और बगावत के नाम से याद करते और इसके नायकों को गालियां देते हैं।
इसी लेख में उन्होंने आगे लिखा कि विश्व के इतिहास में ऐसी कई घटनाएं मिलती हैं, जहां ऐसी जंगों को इसलिए कई बुरे शब्दों में याद किया जाता है कि वे जीती नहीं जा सकीं। आज दुनिया गैरीबाल्डी और जॉर्ज वाशिंगटन की बड़ाई व इज्जत करती है क्योंकि उन्होंने आजादी की जंग लड़ी और उसमें सफल हुए। सफल न हुए होते तो वे भी बागी और गदरी आदि भद्दे शब्दों से याद किये जाते। इसी तरह तांत्या टोपे, नाना साहिब, झांसी की महारानी, कुंवर सिंह और मौलवी अहमदउल्ला शाह आदि वीर जीत हासिल कर लेते तो आज वे हिन्दुस्तान की आजादी के देवता माने जाते।
बाद में भारतीयों द्वारा दस मई का त्योहार मनाने का सिलसिला टूट गया, तो इसकी क्षतिपूर्ति यों हुई कि अमेरिका में हिन्दुस्तान गदर पार्टी बनी और उसने वहां हर साल इसे मनाना शुरू कर दिया।
अफसोस की बात है कि अब स्वतंत्र भारत में दस मई को रस्मी आयोजन भी नहीं होते, जबकि यह ऐसी तारीख है, जिसकी यादें हमें अपनी भविष्य की लड़ाइयों के लिए बल दे सकती है।
(कृष्ण प्रताप सिंह जनमोर्चा के संपादक हैं। आजकल फैजाबाद में रहते हैं।)