मोदी चौकीदार हैं ज़रूर लेकिन अडानी और अंबानी के!

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किसानों के साथ बातचीत का जो भ्रम था वह भी कल टूट गया। सरकार ने जो बातें लिखकर दी हैं उसमें अभी तक हुई बातचीत से न तो कुछ अलग था और न ही उसमें कुछ ऐसा है जिसको लेकर किसान फिर से अपने फैसलों पर विचार करें। उसमें जो चीजें कही गयी हैं वह पहले से ही किसानों को हासिल हैं लेकिन यह सरकार कितनी निर्लज्ज है कि उसे ही नये प्रस्ताव के तौर पर पेश कर दे रही है। मसलन किसान पहले भी अपना अनाज कहीं ले जाकर बेच सकते थे। उनके लिए कोई रोक-टोक नहीं थी। लेकिन लेकर जाएं क्यों जब बाहर बाजार की कीमत मंडियों में एमएसपी पर बिकने वाले अनाज से कम हुआ करती है। पिछले एक पखवाड़े से लाखों की तादाद में किसान अपने परिवारों के साथ इस गलन भरी रात में खुले आसमान के नीचे जीटी रोड जाम किए हुए हैं। उन्होंने ‘भारत बंद’ तक करके अपनी ताकत दिखा दी बावजूद इसके सरकार अपनी जिद पर अड़ी हुई है।

मोदी जी, अमित शाह जी लोकतंत्र क्या होता है? किसी भी लोकतंत्र के भीतर किसी कानून को बनाने के लिए उसका बुनियादी उसूल होता है कि जिसके लिए कानून बनाया जा रहा है उसमें उसकी भागीदारी या फिर मर्जी शामिल हो। आपको अगर लोकतंत्र की यह बुनियादी परिभाषा नहीं पता है तो कम से कम जो संविधान में लिखा है उसी का पालन कर लेते। अमूमन तो कृषि राज्य का मसला है और उस पर कानून बनाने का अधिकार राज्यों को है। लेकिन आप ने उस अधिकार को छीन कर सीधे संसद से कानून बनाने का फैसला लिया। और उसमें भी जो जरूरी औपचारिकताएं हैं उसको भी पूरा करना मुनासिब नहीं समझा। मसलन किसी कानून को बनाने के लिए जो बिल का ड्राफ्ट होता है उसको उसके तमाम स्टेकहोल्डरों के सामने पेश किया जाता है उस पर उनकी राय ली जाती है। उसके बाद ही संसद के पटल पर उसे रखा जाता है। लेकिन आप ने न तो यहां सूबों से पूछा। न किसानों से पूछा। न किसी कमेटी में समीक्षा के लिए भेजा। सीधे संसद के पटल पर उसे रख दिया। और वहां भी जिस धोखे से राज्य सभा के उप सभापति हरिवंश ने उसे पास कराया। उसको पूरा देश ही नहीं पूरी दुनिया ने देखा। और उस पूरे प्रकरण पर हरिवंश की मजम्मत हो रही है।

लिहाजा एक धोखे से और गलत तरीके से पास कराए गए कानून पर आप अड़ गए हैं। क्योंकि उसमें आपके चंद पूंजीपतियों का हित छुपा हुआ है। सरकार क्यों अपनी जिद पर अड़ी हुई है और एक कदम भी पीछे जाने के लिए तैयार नहीं है। उसकी असलियत अब सामने आ गयी है। दरअसल कानून पारित कराने के बहुत पहले ही अडानी और अंबानी के साथ इसकी रणनीति तैयार हो चुकी थी। जिसके तहत अडानी और अंबानी ने बड़े स्तर पर जमीनों की खरीद-फरोख्त करनी शुरू कर दी थी। जिसमें गोदामों के निर्माण से लेकर फार्म हाउस और दूसरे आधार भूत ढांचों के निर्माण का काम शुरू हो गया था। अंबानी ने तो बाकायदा जीओ मार्ट के जरिये रिटेल का अपना नेटवर्क तैयार कर लिया है। और इस कड़ी में उन्होंने फार्च्यून ग्रुप को भी खरीद लिया। अडानी ने जमीनें खरीद कर गोदामों का निर्माण शुरू कर दिया। हरियाणा और पंजाब से इससे जुड़ी ढेर सारी खबरें आ रही हैं। यानी पूरी तरह से न केवल किसानों के खेतों पर कब्जे की तैयारी हो गयी थी बल्कि उनसे जुड़े बाजार और मंडियों के सामानांतर अपना ढांचा खड़ा कर लिया गया था।

अब जबकि मोदी के दोनों यार अंबानी और अडानी इतना आगे बढ़ गए हैं तो फिर उन्हीं की पूंजी पर टिकी यह सरकार भला कैसे पीछे हट सकती है। शायद इस ऐतिहासिक दबाव और इतने बड़े आंदोलन के बाद भी सरकार अगर पीछे नहीं हट रही है तो उसका यही एक मात्र कारण है कि कारपोरेट के पैर में मोदी की गर्दन फंस गयी है। लेकिन मोदी नहीं जानते कि वह आग से खेल रहे हैं। यह किसी एक कानून का मसला नहीं है बल्कि किसानों की पूरी जिंदगी दांव पर लगी हुई है। और इस मामले में सबसे खास बात यह है कि किसान इस बात को अच्छी तरह से समझ रहा है। इसीलिए उसने अपना घर-द्वार छोड़कर राजधानी में डेरा डाल लिया है। उसके सामने अपनी मौत दिख रही है। लिहाजा भविष्य में इस तरह के किसी शिकंजे में जाने से पहले उससे निकलने की उसने ठान ली है। उसी कड़ी का हिस्सा है सिंघु बार्डर पर अंगदी जमावड़ा। इस आंदोलन ने मोदी के राष्ट्रवाद की भी कलई खोल दी है।

देश की आबादी के 60 फीसदी हिस्से का निर्माण करने वाले किसान अगर उसमें नहीं आते हैं। दलित अगर उससे अछूते हैं। रही मुसलमानों की बात तो मोदी की राजनीति ही उसके विरोध पर खड़ी है। और लव जिहाद लेकर हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना में अगर कोई एक तबका सबसे ज्यादा प्रभावित होने जा रहा है या फिर जिसकी आजादी सबसे ज्यादा खतरे में है तो वह महिलाएं हैं। लिहाजा देश की यह आधी आबादी भी अगर उसका हिस्सा नहीं है तो फिर किसके लिए है मोदी का राष्ट्र और उनका राष्ट्रवाद। अभी तक अगर कोई इस बात को नहीं समझ पाया है तो उसे सिर्फ भोला ही करार दिया जा सकता है। यह सरकार शुद्ध रूप से देश के पूंजीपतियों और कारपोरेट घरानों के लिए है। और उसमें भी उसका पूरा समर्पण अडानी और अंबानी के लिए है। लिहाजा दो पूंजीपतियों के लिए पूरे देश को कुर्बान करना ही अगर राष्ट्रवाद है तो ऐसे राष्ट्रवाद पर सिर्फ लानत ही भेजी जा सकती है। और पिछले छह सालों में यही साबित हुआ है।

जंगल से लेकर पहाड़ और खेत से लेकर बाजार तक सभी क्षेत्रों में इन्हीं दो पूंजीपतियों को कब्जा दिलाने की मोदी ने कवायद की है। वीएसएनएल को खत्म करके किस तरह से जीओ को स्थापित किया गया। उसको पूरे देश ने देखा। इस काम के लिए मोदी ने उसकी ब्रांड अंबेसडरी तक स्वीकार की। एयरपोर्ट बेचे गए तो अडानी को दिए गए। एक-एक कर सार्वजनिक क्षेत्र के सभी प्रतिष्ठानों की नीलामी हो रही है। और लेने-वाले यही मोदी के दोनों यार हैं। आस्ट्रेलिया से अडानी को कोयला लेना हो तो स्टेट बैंक से लोन की व्यवस्था मोदी सरकार कराती है। छत्तीसगढ़ से लेकर झारखंड तक पहाड़ों और खनिजों पर कब्जे की दौड़ में अडानी और अंबानी सबसे आगे हैं। ऊर्जा के क्षेत्र में तो अडानी का एकछत्र राज स्थापित किया जा चुका है।

सौर ऊर्जा तो पूरा का पूरा अडानी के हवाले है। गूगल करके कोई देख सकता है जितनी देश में ऊर्जा से जुड़ी कंपनियां नहीं होंगी उससे ज्यादा अडानी ने बना रखी हैं। अब अगर इन दो पूंजीपतियों के पक्ष में ही काम करना राष्ट्रवाद है तो मोदी जी, भागवत जी और तमाम तमाम जी यह आप लोगों को ही मुबारक। अब इस देश की व्यापक जनता उसकी खरीदार नहीं है। मैंने ऊपर क्यों कहा कि मोदी जी आग से खेल रहे हैं। इस पर आगे बढ़ें उससे पहले एक चीज बतानी जरूरी है। पंजाब और हरियाणा सिर्फ राज्य नहीं हैं। देश का एक बड़ा हिस्सा जब भूखा था और उसकी जनता शाम को बगैर रोटी खाए सोती थी तब उसका पेट भरने की जिम्मेदारी इन सूबों ने उठायी थी। अपनी मेहनत और मशक्कत तथा सरकार के सहयोग से हरित क्रांति का जो आंदोलन खड़ा हुआ उसने न केवल भूख और विपन्नता से लोगों को आजादी दिलाई बल्कि अन्न के क्षेत्र में इस देश को आत्मनिर्भर बना दिया। और यही नहीं देश से अनाज निर्यात तक होने लगा। लेकिन अब जब उनकी जिम्मेदारी पूरी हो गयी है तो सरकार उनके हिस्से का हक और लाभ पूंजीपतियों की झोली में डाल देना चाहती है।

लेकिन इससे एक बार फिर देश में अन्न का संकट खड़ा होने का अंदेशा पैदा हो गया है। कल को अगर खेती पर कब्जे के बाद अडानी और अंबानी ने अपने मुनाफे के लिए अनाज की जगह दूसरी चीजों का उत्पादन करने में जुट गए तो फिर क्या होगा? इस बात को किसी ने सोचा है? मोदी जी सिख वह कौम है जिसने हमेशा इस देश पर आयी विपत्ति से लड़ने का काम किया है। इतिहास में तमाम रूपों में यह दर्ज है उसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर उसकी जमीन से ही उसे बेदखल करने की कोशिश की जाएगी तो वह किसी भी हद तक जा सकता है। और हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह सूबा अलगाववाद के एक खौफनाक दौर से गुजर चुका है। ऐसे में अगर उनको किसी भी रूप में निराश किया गया या फिर उनके हितों से खिलवाड़ किया गया तो यह पूरे देश पर भारी पड़ सकता है।

किसी को भी यह बात जरूर समझनी चाहिए कि निराशा और हताशा के क्षणों में इंसान के गलत रास्ते पर जाने की आशंका और बढ़ जाती है। लिहाजा सरकार अपने किन्हीं निहित स्वार्थों में अगर पूरे सूबे को इस मन:स्थिति में जाने के लिए मजबूर कर देती है तो वह न केवल पंजाब के लिए बल्कि पूरे देश के लिए विध्वंसक साबित होगा। इसी बात में एक चीज जोड़ना बेहद मुनासिब होगा। जिन जवानों पर मोदी सबसे ज्यादा गर्व करने का दावा करते हैं (हालांकि वह कितना सच है वह जवान ही जानते हैं जो उनकी नीतियों के मारे हैं। नया तोहफा उन्होंने रिटायर जवानों की पेंशन काट कर दी है।) उसका एक बड़ा हिस्सा इन्हीं दोनों सूबों से आता है। लिहाजा सीमा पर तैनात जवानों के पिताओं को अगर परेशान किया जाएगा तो सरहदें भी खामोश नहीं रहेंगी। और आखिर में उसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ सकता है।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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