Wednesday, April 17, 2024

वी दि पीपुल बनाम सत्ता प्रतिष्ठान

कल किसानों के मामले में सुप्रीम कोर्ट के रवैये को लेकर लोगों में अचरज का ठिकाना नहीं रहा। लोग समझ ही नहीं पा रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट का यह कायापलट है या फिर इसके पीछे कोई और कहानी है। ज्यादातर लोग एक दूसरे से आश्चर्य मिश्रित सवालों के साथ ही रूबरू थे। जिस तरह से कोर्ट ने सरकार को फटकार लगायी वह अपने आप में अभूतपूर्व था। यहां तक कि उसने इस कानून के पारित किए जाने पर संसद के तरीके तक पर सवाल खड़ा कर दिया। और केंद्र को न सिर्फ गैरजिम्मेदार बताया बल्कि अपने तरीके से अक्षम करार दे दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस क्रांतिकारी रूप को तो किसी ने देखा ही नहीं था। और खास कर मौजूदा चीफ जस्टिस के कार्यकाल में जिन्हें जाना ही जा रहा है प्रतिबद्ध न्यायपालिका के चीफ जस्टिस के तौर पर। और उन्होंने इस बात को एक नहीं कई बार साबित किया है।

जब-जब सरकार को जैसी जरूरत पड़ी उसके मुताबिक उन्होंने काम किया। अयोध्या से लेकर कश्मीर और सीएए से लेकर अर्णब गोस्वामी तक यही देखने को मिला। और उसमें भी एक न्यायिक संस्था से ज्यादा पंचायती रूप इसका सामने आया। अब किसानों के मसले पर जब एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया है तो इसे किस नजरिये से देखा जाए? क्या इसमें पुरानी तारतम्यता है या फिर उसको तोड़कर कोर्ट ने कोई स्वतंत्र रुख अख्तियार कर लिया है? और वह सरकार की मुखालफत की हद तक जा सकता है। ये तमाम सवाल हैं जो लोगों को मथ रहे हैं।

दरअसल इसमें सुप्रीम कोर्ट के किसी क्रांतिकारी रुख की तलाश करने की कोई जरूरत नहीं है। इस समय एक बार फिर वह सरकार का ही काम कर रहा है। पूरा देश ही नहीं दुनिया इस बात को देख रही है कि किसानों ने सरकार को चारों तरफ से घेर लिया है। और वह घेरेबंदी भौतिक स्तर पर कर ली गयी है। जिसमें सरकार के पास न तो बल प्रयोग करके उन्हें पीछे धकेलने का रास्ता है और न ही वह ऐसा कोई कदम उठा सकती है जिससे किसान भड़क जाएं। और उससे पहले जितने तरीके हो सकते हैं वह सबको आजमा चुकी है।

इसमें आंदोलनों को बदनाम करने के अपने पुराने रवैये के तहत कभी उनको खालिस्तानी तो कभी पाकिस्तानी और कभी माओवादी करार दिया गया। किसान संगठनों को आपस में बांटने का मामला हो या फिर समानांतर समर्थन में किसानों को खड़ा करने की बात। सरकार हर रास्ता अपना चुकी है। वार्ता भी इतनी लंबी हो चुकी है कि उसे अब और नहीं खींचा जा सकता था। सामने 26 जनवरी के गणतंत्र दिवस का कार्यक्रम है। और उसमें भी किसानों ने दिल्ली के अंदर घुसकर समानांतर ट्रैक्टर मार्च का जो आह्वान किया है वह न केवल सरकार पर भारी पड़ने जा रहा है बल्कि उसने अगर सूझ-बूझ से काम नहीं लिया तो पूरे इतिहास पर भारी पड़ जाएगा।

लिहाजा किसी भी हालत में उसे 26 जनवरी के पहले इस मामले को निपटा देना है और किसानों को भी उनके घरों को वापस भेज देना है। अब इस मामले में एक ही रास्ता था कि सरकार अपने कदम पीछे खींचती और तीनों कृषि कानूनों को रद्द करती। लेकिन वह अभी भी उसके लिए तैयार नहीं है। वह किसी भी कीमत पर तीनों कानूनों को लागू करना चाहती है। लेकिन इसके साथ ही वह इस पर किसी भी रूप में पीछे हटते हुए नहीं दिखना चाहती है। क्योंकि सरकार जानती है कि वह बाघ की सवारी कर रही है और एकबारगी उससे उतर गयी तो वह उसे खा जाएगा। इसके साथ ही मोदी अपने कड़े प्रशासनिक सरबरा की छवि को भी धूमिल नहीं करना चाहते हैं जिसमें यह बात कही जाती है कि वह अपने फैसले खुद लेते हैं और एक बार अगर आगे बढ़ जाते हैं तो फिर उससे किसी भी कीमत पर पीछे नहीं हटते। और एक बारगी अगर सरकार किसानों के मसले पर पीछे हटती दिख गयी तो फिर उसे रेल से लेकर बैंक समेत आने वाले दिनों में तमाम दूसरे क्षेत्रों में संभावित सुधारों के कार्यक्रम से पीछे हटना पड़ेगा।

लिहाजा सरकार ने अपने स्तर पर इस फैसले को लेने की जगह सुप्रीम कोर्ट को आगे कर दिया है। इससे कहा जाए तो सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी। कारपोरेट को यह दिखाने के लिए भी हो जाएगा कि यह सरकार का नहीं सुप्रीम कोर्ट का फैसला है। इसके साथ ही मोदी के अपने व्यक्तित्व का बचाव भी हो जाएगा। और पूरा काम सरकार का ही हो रहा होगा। भले ही उसमें थोड़ी देर लगे। अगर किसी को याद हो तो किसानों के साथ बातचीत में सरकार सिर्फ दो चीजों पर जोर दे रही थी। पहला कि इस मामले में एक एक्सपर्ट कमेटी बना दी जाए जो किसानों को इस कानून के फायदे समझा सके। और दूसरा हल के लिए एक कमेटी बनाने की वह बात कह रही थी जिसमें विभिन्न पक्षों के लोगों के साथ ही कुछ विशेषज्ञ और नौकरशाही के लोग शामिल हों और विचार-विमर्श के बाद उसके जो भी नतीजे निकलें दोनों पक्ष उसके लिए तैयार हो जाएं। लेकिन किसान सरकार के इन प्रस्तावों से कभी सहमत नहीं हुए। उनकी बस एक ही मांग थी। वह थी किसानों के कानूनों को रद्द करना।

अब सरकार की उसी मंशा को सु्प्रीम कोर्ट पूरा कर रहा है। उसने भी एक कमेटी बनाने का सुझाव दिया है। अब वह किस तरह की कमेटी होगी उसका क्या काम होगा। कौन लोग उसमें शामिल होंगे यह सब कुछ भविष्य के गर्भ में है। और उससे पहले कानून को होल्ड पर रखकर किसानों को उनके घरों को वापस करने की तैयारी जरूर कर ली गयी है। एक तरह से एक कदम पीछे जाकर फिर उन नीतियों को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ने का तरीका है। जिसको सरकार का समर्थन हासिल है। और सुप्रीम कोर्ट अपने तरीके से एक बाईपास दे रहा है।

वैसे भी सु्प्रीम कोर्ट का यह काम नहीं होता है। किसान ठीक ही कह रहे थे कि वे कोर्ट में नहीं जाने वाले। क्योंकि इस मामले में उसकी कोई भूमिका बनती नहीं है। देश के संविधान ने सभी संस्थाओें की भूमिका को परिभाषित कर रखा है। जिसमें कोर्ट की भूमिका कानूनों की इस आधार पर समीक्षा तक सीमित है कि वह संवैधानिक है भी या नहीं। जहां तक नीतिगत मसलों की बात है तो वह सरकार और जनता के बीच का मामला होता है। और नीतिगत संबंधी कोई कानून अगर सरकार ने संसद से पास किया है तो उसकी सीधी जवाबदेही जनता के प्रति होती है। और इस मामले में उसे जनता को ही उसका जवाब देना होगा। इस जिम्मेदारी से वह बच नहीं सकती है। ऐसे में सरकार अगर अपनी जिम्मेदारी की इस कसौटी पर खरी नहीं उतर रही है तो उसे जरूर अपने सत्ता में बने रहने के बारे में सोचना चाहिए।

लेकिन चूंकि सरकार अपनी भूमिका से पीछे हट गयी है और उसने सुप्रीम कोर्ट को आगे कर दिया है। लिहाजा किसानों के पास उसको सुनने के अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं दिख रहा है। और वैसे भी कानूनों को होल्ड पर रखने की बात उस दिशा में एक बेहतर कदम है। लेकिन साजिशन यह रचा गया एक जाल है जिसमें किसानों के फंस जाने की पूरी आशंका है। हालांकि अभी तक किसान सरकार के किसी भी झांसे में नहीं आए हैं और पूरा नेतृत्व बेहद सूझ-बूझ और परिपक्वता से काम किया है। लेकिन जब देश की सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं और कारपोरेट मिलकर देश के सबसे सीधे-साधे समझे जाने वाले किसान को शिकस्त देने में जुट जाएं तो फिर उसको क्या कहा जा सकता है। हालांकि यह वह कौम है जिसकी धमक 1857 से लेकर 1947 की आजादी की लड़ाई में सुनी गयी थी। या फिर देश में जब भी कोई बड़ा बदवाल हुआ इसने धुरी का काम किया। ऐसे में एक बार फिर अगर उसने ठान लिया तो यह निजाम क्या पूरी व्यवस्था को बदलने की वह क्षमता रखता है।

हालांकि किसानों ने सुप्रीम कोर्ट के कमेटी बनाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है लिहाजा उसमें भागीदारी का सवाल ही नहीं उठता है। ऐसे में देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट अब किस नतीजे पर पहुंचता है।

चलते-चलते यहां एक संवैधानिक पक्ष को स्पष्ट कर देना बेहतर रहेगा। जहां तक संप्रभुता की बात है तो वह न संविधान में निहित है, न संसद में और न ही न्यायपालिका में। सरकार और कार्यपालिका तो महज कारिंदे हैं। इस देश की संप्रभुता अगर कहीं निहित है तो वह जनता में है। वी दि पीपुल। इसलिए किसी मसले पर नीति के स्तर पर अगर वहां से कोई एतराज हो जाए तो फिर सरकार को पीछे लौट जाना चाहिए। और अगर ऐसा नहीं होता है तो वह न केवल मैंडेट का अपमान कर रही होगी बल्कि पूरी संप्रभुता के साथ भी यह खिलवाड़ माना जाएगा।  

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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