मंगलेश डबराल : करुणा में डूबी धीमी भरोसेमंद आवाज़

Estimated read time 1 min read

उम्मीद की थरथराती लौ आख़िर बुझ गई। वरिष्ठ कवि-गद्यकार और पत्रकार मंगलेश डबराल नहीं रहे। उन्होंने बुधवार देर शाम 7 बजकर 10 मिनट पर ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट (एम्स) में आखिरी सांस ली। कोरोना संक्रमण के कारण उन्हें क़रीब 15 दिनों पहले वसुंधरा (गाज़ियाबाद) के एक प्राइवेट अस्पताल में ले जाया गया था। बाद में उन्हें एम्स में भर्ती कराया गया। हिन्दी के इस 72 वर्षीय महबूब कवि के देश और दुनिया भर में फैले चाहने वाले उनके अस्पताल से लौटने की कामना कर रहे थे।

मंगलेश डबराल को कोविड-19 और निमोनिया की वजह से ग़ाज़ियाबाद के एक प्राइवेट अस्पताल में के आईसीयू में ऑक्सीजन पर रखा गया था। हालत में सुधार की धीमी गति के बावजूद इस बात की पूरी उम्मीद थी कि वे स्वस्थ होकर घर लौटेंगे। बाद में उन्हें एम्स में भर्ती कराया गया तो भी उम्मीद की यह लौ रौशन रही। एम्स से उन्होंने एक दिन फेसबुक पर अबूझ से कुछ शब्द पोस्ट किए तो उनके मित्र और प्रशंसक चिंता और उम्मीद में बेकल हो उठे।

उन्होंने अस्पताल से अपने मित्रों से फोन पर बात की तो सब की उम्मीदों को बल मिला। लेकिन, चार दिन पहले उन्हें वेंटिलेटर पर ले जाने की नौबत आई तो उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरता चला गया। बीमारी का असर गुर्दों पर भी आ जाने के बाद उन्हें डायलेसिस पर ले जाना पड़ा। बुधवार शाम को उनके कवि-मित्र असद ज़ैदी की चिंता में डूबी पोस्ट से पता चला कि डायलेसिस के दौरान उन्हें दो बार दिल के दौरे पड़े हैं। कुछ सालों पहले भी दिल की बीमारी की वजह से उनका ऑपरेशन हो चुका था।

कवि के रूप में मंगलेश डबराल अपने बहुत से अग्रज और प्रसिद्ध कवियों के रहते हुए काफ़ी पहले एक अतुलनीय व्यक्तित्व अर्जित कर चुके थे। इस वाक्य को उनके निधन के अवसर पर की गई भावुक टिप्पणी न समझा जाए कि हिन्दी में उनके जैसा कोई दूसरा कवि नहीं था। उनका जन्म 18 मई, 1948 को उत्तर प्रदेश (अब उत्तराखंड) के टिहरी-गढ़वाल के काफलपानी गाँव में एक साधारण परिवार में हुआ था।

बहुत से युवाओं की तरह वे पहाड़ से अपने सपने लेकर नीचे उतरे और देखते-देखते हिन्दी की वाम प्रगतिशील-जनपक्षीय पत्रकारिता और साहित्य का एक ज़रूरी नाम बन गए। उनकी कविता में पहाड़ के कठोर जीवन में बसे पानी के सोतों की धार हमेशा बनी रही। इसे आद्रता और करुणा में डूबे उनकी कविता के स्वर में हमेशा महसूस किया जाता रहा।

मंगलेश डबराल के बहुत से समकालीनों के लेखन पर देश में चल रहे क्रांतिकारी संघर्षों ख़ासकर नक्सल आंदोलन या फिर माकपा के असर वाले जनवाद का असर रहा है। मंगलेश का जुड़ाव अपेक्षाकृत क्रांतिकारी संगठन से ही रहा लेकिन उनकी कविता का स्वर रेटेरिक के बजाय धीमा पर आश्वस्तकारी रहा। उन पर अवसाद में ले जाने वाली कविता लिखने के आरोप भी लगाए पर वास्तविकता यह थी कि उनकी कविता उनके असंख्य चाहने वालों के लिए घनघोर निराशा के पलों में सहारा देने वाली बनी रही।

उनकी कविता साधारण लोगों, हाशिये की जगहों और मनुष्यता से ओतप्रोत रही। सेकुलर मूल्यों के प्रति समर्पित मंगलेश की कविता देश पर बढ़ते फ़ासिज़्म और पूंजीवाद के भयानक शिकंजे की शिनाख़्त और इसका प्रतिरोध करते हुए अपने शिल्प और कथन में असरदार ढंग से विकसित होती गई। इस लिहाज से वे उन विरले कवियों में से थे जिनकी रचनाशीलता अंतिम समय तक निखरती गई।

मंगलेश डबराल का गद्य भी उनकी कविता की तरह अनूठा था और उसमें विचारों की प्रखरता व कविता की सी लय थी। अनुवादक के रूप में भी उन्हें यही शोहरत हासिल रही। उन्हें दुनियाभर में विभिन्न भाषाओं में अनुवाद के जरिये पढ़ा गया और पसंद किया जाता रहा। दुनियाभर में विभिन्न भाषाओं के बड़े रचनाकारों से उनकी गहरी मित्रता थी। मंगलेश साहित्य के अलावा सिनेमा और संगीत के भी गहरे पारखी थे। सिनेमा और संगीत पर उन्होंने जब भी लिखा, यादगार लिखा।

पहाड़ पर लालटेन, घर का रास्ता, हम जो देखते हैं, आवाज़ भी एक जगह है, नये युग में शत्रु (सभी कविता संग्रह), लेखक की रोटी, कवि का अकेलापन (गद्य) और एक बार आयोवा (यात्रा वृत्तांत) उनकी प्रमुख किताबें हैं। उन्हें हिन्दी साहित्य का सर्वोच्च सम्मान साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था जिसे उन्होंने देश में बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में साहित्यकारों की मुहिम में शामिल होते हुए 2015 में लौटा दिया था। उन्हें इसके अलावा भी विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कारों से नवाज़ा गया था। 

मंगलेश डबराल हिन्दी पैट्रिओट, प्रतिपक्ष, आसपास, पूर्वग्रह, अमृत प्रभात, जनसत्ता, सहारा समय, पब्लिक एजेंडा आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से बतौर पत्रकार-संपादक जुड़े रहे। उन्होंने नेशनल बुक ट्रस्ट के संपादकीय सलाहकार के रूप में भी सेवा दी।

(लेखक धीरेश सैनी जनचौक के रोविंग एडिटर हैं।)      

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author