किताब की समीक्षा: वियुक्का यानि अनजान दुनिया की एक नई समझ

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विरसम द्वारा प्रकाशित और पी अरविंद और बी अनुराधा द्वारा संपादित किताब ‘वियुक्का’ जिसका गोंडी में अर्थ है ‘सुबह का सितारा’, एक ऐसी दुनिया की कहानी है जिसके बारे में बोलना, लिखना और जानना तक प्रतिबंधित है। वह दुनिया कोई और नहीं बल्कि भारत में मध्यवर्ती हिस्से में चल रहे माओवादी आंदोलन का इलाका है। यह विस्तृत दुनिया हमारे भारत के बड़े हिस्से में मौजूद होते हुए भी हमसे ओझल है क्योंकि भारतीय राज्य नहीं चाहता कि उसके नागरिकों को पता चले कि इस लूट-खसोट और मुनाफे पर आधारित समाज के बरक्स कोई दूसरी दुनिया बनाने का प्रयोग जारी है, वह दुनिया जो बराबरी पर आधारित हो, और उस पर कुछ चंद लोगों का राज न हो। ‘वियुक्का’ किताब भारतीय राज्य द्वारा ‘इस पार’ और ‘उस पार’ की दुनिया के बीच बनाई गई दीवार में एक खिड़की खोलने का काम करती है।

इस किताब में कुल बीस कहानियां हैं और कहानीकार है- माओवादी आंदोलन में शामिल हथियारबंद महिला योद्धाएं, जो भारतीय राज्य से दो-दो हाथ कर रही हैं, जल जंगल जमीन बचाने की लड़ाई लड़ रहीं है, साथ-साथ शानदार साहित्य का सृजन भी कर रही हैं। कुछ लेखिका लड़ते हुए मारी जा चुकी हैं, कुछ ने जेलों में इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया, और कुछ अभी भी युद्ध के मैदान में डटी हुई हैं। इस किताब को पढ़ते हुए फिलिस्तीन कवि मरवान मखूल की कविता बरबस याद आ जाती है…सियासी न हो, ऐसी कविता लिख सकूं

उसके लिए मुझे पंछियों को सुनना चाहिए

और पंछियों को सुन सकूं

इसके लिए जंगी जहाज़ों को ख़ामोश होना ही चाहिए।

जैसा कि इस कविता से स्पष्ट है कि कोई भी साहित्य अपने आस-पास परिस्थितियों से ही निकलता है इसलिए इस किताब का कथानक भी युद्ध के गिर्द-गिर्द ही है। वह युद्ध जो भारतीय राज्य ने चंद पूंजीपतियों के लालच के कारण आदिवासियों पर थोपा है। 

ऐसे तो माओवादी आंदोलन पर पहले भी किताबें प्रकाशित हुई हैं जिसने आंदोलन के बीच की कई चीजों को जनता के बीच लाया है। इस कड़ी में मुख्य रूप से ‘सलाम बस्तर’, ‘जंगलनामा’, ‘भूमकाल’, ‘दिन और रात: युद्ध के अन्तस स्थल में’ शामिल है लेकिन यह किताब माओवादी आंदोलन के द्वंद्वों को ज्यादा शानदार तरीके से बाहर लाती है। इन सब आयामों पर इतनी पैनी नज़र से लिखना शायद एक ऐसे व्यक्ति के लिए संभव ही नहीं है जो इस आंदोलन में शामिल न हो।

इस किताब में माओवादी जीवन, उसकी चुनौतियां, माओवादी पार्टी की संरचना, वहां के नियम- अनुशासन, हर स्तर के कॉमरेडों के बीच जनवादी रिश्ते, महिला- पुरुष संबंध आदि का बेहतरीन विवरण है। इसके अलावा राज्य द्वारा छेड़े गए भयंकर दमन चक्र और यातनाओं का जिक्र जगह-जगह कहानियों में दिखता है। इन यातनाओं का भुक्तभोगी एक छोटे बच्चे से लेकर बंदूक थामे हुए गुरिल्ला तक है।  

हाल ही में भारतीय राज्य द्वारा यातनाएं देकर मार दी गई माओवादी नेता रेणुका ने ‘मिड़को’ नाम से दो कहानियां लिखी हैं। एक कहानी इस बात से पर्दा उठाती है कि कैसे सलवा जुडूम के नाम पर भारतीय राज्य ने आदिवासियों के ही बीच के सामंती ठेकेदार वर्ग के लोगों की मदद से गांव के सामान्य लोगों को कुछ पैसे और पुलिस की लालच देकर स्पेशल पुलिस ऑफिसर बनाया जिन्होंने पुलिस और सीआरपीएफ सहित अन्य बलों को गांव के गांव जलाने, महिलाओं के साथ बलात्कार करने और पूरे गांव को लूटने में मदद की। माओवादी पार्टी का इस वर्ग के प्रति क्या रुख था, और किस तरह जनताना कोर्ट लगाकर इन पर ट्रायल चलाया गया। 

कुछ एक कहानियां राजकीय दमन के बीच उभरते मानवीय संवेदनाओं को बहुत बारीकी से दिखाती हैं। किताब यह जगह जगह दिखाती है कि माओवादी इंसान हैं, जिसमें हर तरह की भावनाएं हैं। माओवादियों के गुरिल्लाओं के इस लड़ाई का तात्कालिक अंजाम मौत होना है, यह जानते हुए भी लड़ते जाना और लड़ते हुए अपने साथियों को खोना, अपने पति/ पत्नी को खोना और दोबारा उस लड़ाई में जुट जाने की कोशिश का बहुत भावनात्मक विवरण है। 

इसके अलावा इस युद्ध में मारे गए गुरिल्लाओं को जब मीडिया के सामने पेश किया जाता है और उनके परिजनों का यह कयास लगाना कि क्या मरने वालों में उनके बच्चे/ भाई/ बहन हैं क्या और फिर उनके शव को घर वापस ले जाने की जद्दोजहद, उनके उमड़ते दुख-दर्द और गर्व का बहुत सजीव वर्णन दो कहानियों में है- एक मिड़को द्वारा लिखी गई है तो दूसरी पद्मकुमारी द्वारा। 

कुछ कहानियों में आदिवासी महिलाओं के संघर्ष का बेहतरीन चित्रण है। यह संघर्ष कई परतों में है। गांव में जब सीआरपीएफ की टीम आती है तो किस तरह बलात्कार व उत्पीड़न को युद्ध के हथियार की तरह उनके द्वारा प्रयोग किया जाता है और कैसे महिलाएं इससे लड़ती भिड़ती हैं। इस मुद्दे पर दो कहानियां हैं। कहानियां इतनी शानदार हैं कि इसे पढ़ते हुए सनसनाहट और गुस्से के कारण आपके शरीर का तापमान बढ़ जाता है, वहीं महिलाओं का जबरदस्त विरोध आपको उनको सलाम करने को मजबूर भी कर देगा। 

कुछ कहानियां महिला माओवादी की जीवन पर आधारित भी हैं। एक कहानी में रंजीता नाम की गुरिल्ला का जिक्र है जो सुरक्षा बलों से लड़ते हुए मारी जाती है और इस अकेली महिला के लिए सरकार को 600 सुरक्षा बल के जवान, दसियों हेलीकॉप्टर, हजारों गोलियां और सैकड़ों ग्रेनेड लगते हैं। इस पूरी किताब में कहीं भी महिलाएं कमजोर किरदार के रूप में नहीं दिखती हैं….हर जगह प्रतिरोध करती, माओवादी आंदोलन का नेतृत्व करते हुए, नए समाज के भ्रूण में अपनी बराबर की भूमिका लेते हुए दिखती हैं।

एनकाउंटर नाम की कहानी में एक माओवादी महिला सोचती है कि अपने पति के मौत के बाद सामान्य महिला दुख में इस कदर डूब जाती है कि आगे की जिंदगी अपने स्वास्थ्य को खराब करते हुए बस यादों में जीती है जबकि माओवादी महिला आगे बढ़ते हुए फिर से युद्ध में शामिल हो जाती है, इसका मतलब यह तो नहीं कि उसे अपने पार्टनर से प्रेम नहीं था…लेकिन यह औरतें सामान्य औरतें नहीं बल्कि मार्क्सवाद लेनिनवाद और माओवाद से लैस महिलाएं हैं…वो अच्छे से समझती हैं कि यह युद्ध मौत के खिलाफ एक निरंतर संघर्ष है..कुल मिलाकर महिलाओं का चित्रण कहीं भी एक अबला नारी की तरह नहीं है बल्कि क्रांति के मजबूत वाहक की तरह है।

आगे की  कुछ कहानियों में आदिवासी संस्कृति में महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार और उसे ठीक करने में माओवादी पार्टी की भूमिका पर जिक्र मिलता है। यह पढ़ना बड़ा आश्चर्यजनक था कि कुछ इलाकों में ऐसी स्थिति है कि अगर लड़कियां घर वालों की मर्ज़ी से शादी को तैयार नहीं होती हैं तो घर के पुरुष सदस्यों द्वारा तमाम तरीके के शारीरिक उत्पीड़न का सहारा लिया जाता है और उसे जबरदस्ती शादी करवा कर भेजा जाता है। ऐसी सामाजिक स्थितियों में माओवादी पार्टी के रुख और उनकी भूमिका को पढ़ना महत्वपूर्ण है। 

एक कहानी ‘लिटिल रेड गार्ड्स’ उन इलाकों में जारी शिक्षा व्यवस्था पर है। इस कहानी को पढ़कर आश्चर्य होता है कि पर्दे के ‘इस पार’ के बच्चे और ‘उस पार’ के बच्चों में कितना फर्क है। बच्चों में पढ़ाई के प्रति इतनी ललक, शिक्षा के महत्व को समझते हुए उस पर इतना जोर, यह आश्चर्यजनक लगता है। उन बच्चों में इतनी मानवीय संवेदनाएं कैसे हैं? आखिर युद्ध और यातनाओं के बीच भी बच्चे इतने संवेदनशील कैसे हैं? तो क्या फर्क सांचे का है जिसमें ढलकर बच्चे बड़े हो रहे हैं?

इसी कहानी में एक शिक्षक बच्चे के सवाल पर जवाब देते हुए कहते हैं.. “इस लूटने वाली सरकार की नज़र में तुम भले भविष्य के नागरिक नहीं हो लेकिन उनकी नज़र में तुम जरूर भविष्य के क्रांतिकारी हो।” यह पंक्ति कितना कुछ कह जाती है।

एक सवाल जो सब के मन में उठता है कि माओवादी पार्टी को जनता का कितना सपोर्ट है? कई कहानियों में इसका भी जवाब मिलता है। इस किताब ने भारतीय राज्य और लिबरल लोगों द्वारा दी गई ‘सैंडविच थ्योरी’ पर भी सवाल उठा दिया है। सभी कहानियों में माओवादी पार्टी के प्रति जनता का अटूट प्यार, सम्मान और कमिटमेंट दिखता है और खूबसूरत बात है कि यह प्यार और सम्मान एक तरफा नहीं है। 

कुल मिलाकर किताब साहित्य की एक नई धारा है जिस पर चर्चा करना जरूरी है। इस किताब में इतनी चीजें हैं जिस पर लंबी बातें की जा सकती हैं। किताब की खूबसूरती है कि हर कहानी कुछ अलग भाव जगाएगी और आपको सोचने पर मजबूर करेगी। निश्चित रूप से इस किताब का अनुवाद हिंदी समेत अन्य भाषाओं में होना चाहिए। अपनी झिल्लियों पर बैठकर हल्के उजालों में लिखती- रचती माओवादी महिलाओं ने इस दो दुनिया के बीच पुल बनाने का काम कर दिया है। उस दुनिया की परतों को समझकर उसके बारे में चर्चा छेड़ना बेहद जरूरी है।

(आकांक्षा झा स्वतंत्र लेखिका हैं।)

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