‘‘हरे-भरे हैं खेत
मगर खलिहान नहीं;
बहुत महतो का मान
मगर दो मुट्ठी धान नहीं।
भरा है दिल पर नीयत नहीं;
हरी है कोख-तबीयत नहीं।
भरी हैं आंखें पेट नहीं;
भरे हैं बनिए के कागज
टेंट नहीं।
हरा-भरा है देश
रूंधा मिट्टी में ताप
पोसता है विष-वट का मूल
फलेंगे जिसमें आप।
मरा क्या और मरे
इसलिए अगर जिए तो क्या।
जिसे पीने को पानी नहीं
लहू के घूंट पिये तो क्या,
पकेगा फल, चखना होगा
उन्हीं को जो जीते हैं आज
जिन्हें है बहुत शील का ज्ञान
नहीं है लाज।
तपी मिट्टी जो सोख न ले
अरे, क्या है इतना पानी?
कि व्यर्थ है उद्बोधन, आह्वान
व्यर्थ कवि की बानी?’’
‘‘सांप बेरोजगार हो गए…
अब आदमी काटने लगे…
कुत्ते क्या करें?
जब ‘तलवे’ आदमी चाटने लगे!!
कहीं चांदी के चमचे हैं…
तो कहीं चम्मचों की चांदी है…’’
कोरोना काल में बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान होते हुए मेरी ऊपर वर्णित दो काव्य-अंशों पर नजर गई। पहला काव्य अंश कविता के रूप में कालजयी हिंदी रचनाकार अज्ञेय की है जिसे उन्होंने 1957 में लिखा था और दूसरा अंश किसका है, मुझे नहीं मालूम; मगर इसे मैंने एक मित्र के फेसबुक वाॅल पर पाया। हो सकता है कि यह गुलजार की हो! पहला काव्य-अंश राजनीतिक आर्थिकी और प्रभु-वर्ग के स्वांग की कलई खोल देता है, वहीं दूसरे अंश में अगर ‘आदमी’ की जगह ‘नेता’ लिख दें, तो यह भारी मारक हो सकता है।
साठ लाख से ज्यादा हिंदुस्तानियों को अपनी गिरफ्त में लेने वाली महामारी कोरोना के इस दौर में बिहार का यह चुनाव होने जा रहा है। राज्य की अधिकांश पार्टियां अभी इस चुनाव के पक्ष में नहीं थीं, मगर दिल्ली सल्तनत की अधिनायकवादी राजनीति के सामने तथाकथित संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की क्या औकात! चुनाव का ऐलान हो गया है – यह चुनाव राज्य-पोषित और संचालित और लूट-गबन-भ्रष्टाचार की भीषण संभावनाओं वाला चुनाव है। इसमें पिछले पांच साल पहले हुए चुनाव के 270 करोड़ रुपये खर्च के मुकाबले कम से कम 625 करोड़ रुपये खर्च होंगे। इसका अर्थ है कि 243 विधानसभा क्षेत्रों में होने वाले इस चुनाव में प्रति क्षेत्र पर कम से कम ढाई करोड़ बहेंगे।
इस भारी खर्च का वहन राज्य सरकार को करना होगा क्योंकि नियम यह है कि केंद्र सरकार केवल संसदीय चुनाव का खर्च वहन करती है, विधानसभा चुनावों का नहीं। चौंकिए नहीं, इस बिहार चुनाव के संचालन और प्रबंधन के अनेक दुष्परिणाम सामने आयेंगे जिन्हें पीएम केयर्स फंड की तरह गुप्त रखा जाएगा। यों आज के दौर में कुछ भी गुप्त थोड़े ही रह पायेगा।
हां, एक बेहद मजेदार बात यह होगी कि पिछले दिनों जैसे काॅरपोरेट घरानों के इशारे पर मोदी-शाह के प्यादे एक स्वनामधन्य तथाकथित संवैधानिक शख्स ने जिस तरह किसान विरोधी काले कानूनों को जबरन पारित करवाने के लिए संसद के उच्च सदन राज्य सभा में प्रतिवादी-प्रतिरोधी स्वरों को ‘म्यूट’ कर दिया, उसी तरह बिहार विधानसभा चुनाव में भी कोरोना के नाम पर मतदाताओं को बूथ तक पहुंच को पुलिस व अर्ध-सैन्य बलों द्वारा बाधित किया जाएगा और बेहद धीमी गति से मतदान कराकर सत्ता हथियाने की साजिश रची जाएगी। जब राज्यसभा में इतनी बेशर्म तानाशाही, तब चुनाव के मैदान में तो इससे ज्यादा तानाशाही की संभावना तो प्रबल दिखती ही है।
खैर, जो होगा, उसे देखा जायेगा, समझा जायेगा और याद रखा जायेगा। फिलवक्त हम इस मौजूदा सूरते-हाल का जायजा लेते हुए बिहार की वर्तमान जनसांख्यिकी, राजनीतिक आर्थिकी, प्रदेश पर दशकों पुराने राजनीतिक इतिहास की काली छाया के असर और उन बेहद बुनियादी सवालों से टकराते हैं जो हमें बिहार की राजनीति के ‘बहुआयामी सत्य’ को समझने में मदद कर सकते हैं।
अभी बिहार की अनुमानित आबादी साढ़े बारह करोड़ से ज्यादा है। इनमें से सात करोड़ बीस लाख लोग मतदान करने के हकदार हैं – तीन करोड़ अस्सी लाख पुरुष और तीन करोड़ चालीस लाख महिलाएं। इन मतदाताओं में 20 से 30 साल के बीच के लोगों की संख्या डेढ़ करोड़ है और इतनी ही संख्या उन लोगों की है जो 40 से 50 साल के बीच की उम्र के हैं। 30 से 40 साल के बीच के मतदाताओं की संख्या करीब दो करोड़ है। आइए, जरा इस आबादी/मतदाताओं की जातिबद्धता की बात करें।
यों तो कुछ अर्थशास्त्री और समाज विज्ञानी कहते हैं कि जाति व्यवस्था मरणासन्न है और इसका आर्थिक आधार टूट चुका है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक वस्तुओं के बढ़ते प्रवाह और उनकी उपलब्धता ने कृषि-शिल्प-कारीगरी-सेवा-श्रम की परस्पर अंतर्निभरता को तोड़ दिया है और विकास की गति ने अपने आप में ‘संतुष्ट’ गांवों की संरचनाओं और सामाजिक संबंधों को अप्रासंगिक बना दिया है, मगर जमीनी स्तर के अध्ययन इन अकादमिक निष्कर्षों को झूठा साबित करते हैं।
जमीनी हकीकत यह है कि जाति व्यवस्था जिंदा थी, जिंदा है और जिंदा रहेगी क्योंकि मौजूदा व्यवस्था में उसका राजनीतिक आधार कभी भी ध्वस्त नहीं होगा। कहने के लिए भले ही कोई कह ले कि राजनीति जाति व वर्ग आधारित समाज की सेविका व परिचारिका है, मगर सच्चाई ठीक पलट है। दरअसल जाति ही राजनीति की दासी और दुल्हनिया है। मेरे एक मित्र हैं जो कहते हैं कि दरअसल जाति को अप्रासंगिक बताना अथवा उसे विमर्श में अदृश्य कर देना एक नापाक राजनीति-वैचारिक साजिश है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेशों में आए दिनों सुनने को भी मिलता है कि जाति एक ऐसी खाल है, जो मौत के बाद भी खाक नहीं होती।
अगर ऐसा है तो ऊपर वर्णित बिहार के तमाम मतदाता तकरीबन 350 जाति समूहों में बंटे हुए हैं। करीब 50 प्रतिशत मतदाता यादव, कोयरी और कुर्मी समेत उन सूचीबद्ध 110 जातियों के हैं जिन्हें ‘ओबीसी’ यानी ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ कहा जाता है। इस ‘ओबीसी’ नाम के वृहद जाति संजाल के अलावा करीब 130 जाति समूहों की एक अन्य ‘सरकारी छतरीनुमा जमात भी है जिसे ‘अत्यंत पिछड़ा वर्ग’ (ईबीसी) कहते हैं। इसमें ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ की विभिन्न बेहद पिछड़े रह गए जाति-समूह भी शामिल हैं। कहते हैं कि यह जमात 22 प्रतिशत के करीब है। बाकी बचे मतदाता अनुसूचित जाति (15-16 प्रतिशत के आस-पास अल्पसंख्यक समुदाय (15-17 प्रतिशत के बीच) और सवर्ण समुदाय/ब्राह्मण-भूमिहार-राजपूत-कायस्थ (14-16 प्रतिशत के बीच) के जाति-आधारित मेडल अपने-अपने सीने पर टांके हुए हैं।
करीब दो दर्जन से ज्यादा विधान सभाई क्षेत्र ऐसे हैं जहां अल्पसंख्यकों की आबादी पच्चीस प्रतिशत से भी अधिक है। ऐतिहासिक तौर पर ऐसा भी नहीं है कि प्रदेश की सभी जाति-बिरादरियां सुगठित व एकताबद्ध हैं। हर किसी में वर्गीय विभेद की अनेक परते हैं और सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक दर्जा बंदियां हैं। हर जाति-जमात में संसाधनों और अवसरों को हड़पने वाले और अपने से कमजोर पर अतिचार-अत्याचार करने वाले दबंग और दलाल हैं, वहीं ऐसे संघर्षरत गरीब-मेहनतकश भी हैं जो न केवल प्रतिद्वंदी जाति समूहों, बल्कि अपनी-अपनी जाति के भी दमनकारी व वर्चस्वशाली तत्वों का प्रतिरोध कर रहे हैं।
आईए, अब बिहार की उस आर्थिकी और सामाजिक विकास की तस्वीर पर एक नजर डालें जो जातीय जकड़बंदियों में फंसे लोगों के जीवनाधिकारों को गहरे प्रभावित कर रही है। आजादी के समय बिहार देश के कुल खाद्यान उत्पादन में आठ प्रतिशत का योगदान देता था और औद्योगिक उत्पादन के मामले में देश में चौथे स्थान पर था। उस समय का यह प्रदेश कोयला और स्टील का सबसे बड़ा उत्पादक था। मगर इन सबके बावजूद प्रति व्यक्ति आय के मामले में सबसे नीचे था। भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की जनवरी, 2020 की एक रिपोर्ट के मुताबिक बिहार अभी भी प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश में सबसे नीचे है। कई अर्थशास्त्री और समाज विज्ञानी बिहार को केंद्र का ‘आंतरिक उपनिवेश’ बताते आए हैं। आमतौर पर यह बात सही ही है, मगर यह अर्ध-सत्य है।
पूर्ण सत्य यह है कि बिहार न केवल देश के आर्थिक-कारोबारी-राजनीतिक निजाम का ‘आंतरिक उपनिवेश’ है, बल्कि यह दशकों से अपने यहां मौजूद सामंती और कुलक ताकतों की जागीर भी बना हुआ है। यह ताकतें न सिर्फ मरकजी निजाम से लड़ने से परहेज करती हैं, बल्कि अपने प्रदेश के भीतर की उत्पादक शक्तियों की कमर को भी रोगग्रस्त बनाकर रखना चाहती हैं। पिछले 73 वर्षों से यही ताकतें बिहार को अवरूद्ध विकास की चपेट में लिए हुए हैं और कमोवेश सारे के सारे राजनीतिक नेता इन्हीं के रहमोकरम पर जिंदा हैं।
चंद शब्दों में कहें तो यही वह सामंती- कुलक- माफिया- अपराधी- भ्रष्ट- अवसरवादी गठजोड़ है जो पिछड़ेपन और बदहाली की राजनीतिक आर्थिकी रचता है। बिहार की हर जाति-बिरादरी और पंथ-मजहब के बच्चे-बच्चियों, नौजवानों और महिलाओं को यह राजनीतिक आर्थिकी सौगात-दर-सौगात देती रही है। 1990 के पहले भी सौगात मिलते रहे, 1990 से 2005 तक भी मिले और 2005 से अब तक मिल रहे हैं। सौगातों का यह विशेष पैकेज है – गरीबी-रोजगारविहीनता-बेरोजगारी, लूट-जोर-जुल्म-दमन-अनाचार-अत्याचार-बलात्कार और न्याय का प्रहसन।
आज की तारीख में जब प्राथमिक तौर पर इस राजनीति आर्थिकी और आकस्मिक तौर पर कोरोना प्रकोप के कारण बिहार में बेरोजगारी दर अप्रैल, 2020 के बाद 31.2 प्रतिशत की छलांग लगाकर 46.6 प्रतिशत तक पहुंच गई है, कृषि क्षेत्र में लगे 75 प्रतिशत लोगों की क्रय शक्ति कम हो गई है, लाखों-लाख सीमांत किसान तबाह हो गए हैं और करीब दो करोड़ भूमिहीन खेतिहर मजदूरों पर आफत आ गयी है, सवाल यह नहीं है कि कौन सा राजनीतिक गठबंधन चुनावी जीत हासिल करेगा। अभी तो स्वच्छंद परागमन का राजनीतिक तिलिस्म शुरू ही हुआ है। असली सवाल यह है कि क्या सचमुच इस चुनाव में बेरोजगार नौजवान, बदहवास मजदूर, बदहाल किसान और बदन की इज्जत को बचाने के लिए संघर्ष कर रही महिलाएं जातीय सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उन राजनीतिक ताकतों की कब्र खोदेंगे, जो बिहार को न्याय, शांति, प्रगति और परिवर्तन के रास्ते पर आगे बढ़ने नहीं देतीं।
(रंजीत अभिज्ञान सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
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