वफ़ादारी की अदालत में मज़हब का कटघरा

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हर बार जब सरहद पार से कोई ख़बर आती है, इस मुल्क़ का मुसलमान सांस थाम लेता है। दिल की धड़कनें तेज़ हो जाती हैं, और आंखों में एक पुराना ख़ौफ़ फिर से जाग उठता है-कहीं फिर से उसकी मोहब्बत को शक़ की अदालत में ना घसीटा जाए, कहीं फिर से उसकी वफ़ादारी पर तंज़ न कस दिया जाए।

न कोई राब्ता, न कोई रिश्ता, फिर भी जब पाकिस्तान के किसी साए से धुआं उठता है, उसकी बू हिंदुस्तानी मुसलमान की दहलीज़ तक पहुंचा दी जाती है। और फिर शुरू होता है एक पुराना मंज़र- जहां उसकी मोहब्बत को ग़द्दारी का लिबास पहनाने की कोशिश होती है। गोया यह सरज़मीन उसकी नहीं, गोया उसके सीने में धड़कता दिल तिरंगे से अजनबी हो गया हो।

हक़ीक़त यह है कि इस वतन का मुसलमान इस ख़ाक से बेपनाह मोहब्बत करता है-बिना शर्त, बेदाग़, बेतज़ाकुर। उसकी वफ़ा नारों की गूंज में नहीं, खेतों की मिट्टी में बहते हुए पसीने में झलकती है; सरहद पर जान लुटाते हुए जवानों में दिखाई देती है; और उस ख़ामोश तहरीर में दर्ज होती है जो हर बार वह अपने ज़ख़्मों के साथ जीता है-बिना शोर, बिना फरियाद।

मगर अफ़सोस, इस मुल्क़ में उसके हिस्से सिर्फ़ शक़ आता है। हर दंगा, हर धमाका, हर सरहदी तनाज़ा उसके दरवाज़े पर दस्तक देता है। उसे फिर कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है-बिना किसी गवाही, बिना किसी सुनवाई। भीड़ उसकी गलियों में उतरती है, बुलडोज़र उसके घरों को रौंदते हैं, और अदालतें उसके लिए अक्सर ख़ामोश रहती हैं।

क्या हमसे यही तवक़्क़ो है कि हम लहू भी दें और सब्र भी रखें?

क्या मुसलमान इस मुल्क़ में महज़ एक तमाशबीन है जिसे सिर्फ़ ज़रूरत के वक़्त याद किया जाता है?

सियासी पार्टियों के लिए मुसलमान महज़ एक वोट है-एक सियासी ‘तेज़पत्ता’ जो जब तक ज़ायका दे, कढ़ाही में डाला जाए, फिर किनारे फेंक दिया जाए। न आवाज़ उठाने की इजाज़त है, न हिस्सेदारी की उम्मीद। मस्जिदें शक़ के घेरे में हैं, मदरसे निगरानी में, इमाम सियासी मोहरे हैं, और उनकी तकलीफ़ें सियासत के हाशिये पर दर्ज हैं।

जबकि हक़ ये है कि इस वतन की फिज़ा में मुसलमान का लहू भी घुला है और लोरी भी। इस मिट्टी में उनकी तहज़ीब की सांसें भी दफ़्न हैं और तक़रीरें भी। मगर अफ़सोस, उनकी वफ़ादारी को हर बार परखने वाले वही लोग हैं जो वतन को इक़्तिदार का औज़ार समझते हैं, न कि अमानत।

सबसे बड़ा सानिहा तब होता है जब हमारे ही रहनुमा ज़ुल्म पर चुप रहते हैं-क्योंकि कुर्सियां चीख़ने नहीं देतीं। हमारी सियासी तंज़ीमें हमें सौदे की शै बना चुकी हैं। इंसाफ़ का सौदा, बराबरी का सौदा, यहां तक कि ज़मीर का सौदा भी सियासी मुनाफ़े की चकाचौंध में खो गया है।

अब सवाल यह नहीं कि हमें शक़ की निगाह से क्यों देखा जाता है, सवाल यह है कि आख़िर कब तक?

हम इस मुल्क़ की पेशानी पर उगती पहली अज़ान से लेकर उसकी झुकी हर पेशानी के साजिद हैं। हमारी मोहब्बत टोपी या दाढ़ी में नहीं, इस ख़ाक से वाबस्ता रूह की ख़ामोश तहरीर में है।

हमें किरायेदार समझने की ग़लती न कीजिए-हम इस घर के वजूद में शामिल हैं। इसकी नींव में हमारे बुज़ुर्गों की कब्रें हैं और दीवारों में हमारे बच्चों की हंसी।

इस मुल्क़ की असली ताक़त उसकी रंग-बिरंगी जामा है-जहां हर मज़हब, हर ज़ुबान, हर शक्ल एक सुरीला सुर बनकर इसकी रूह को सजाता है। अगर उस जामा से एक रंग छीनने की कोशिश की गई, तो न ताना बचेगा, न बाना।

अगर हर बार मुसलमान की मोहब्बत को सर्टिफिकेट की ज़रूरत पड़े, तो समझ लीजिए-मुल्क़ का आईना नहीं टूटा, उसकी पहचान ज़ख़्मी हो चुकी है।

अब वक़्त आ गया है कि वफ़ादारी के तमाशे बंद हों और इंसाफ़ के दरवाज़े सबके लिए बराबर खुलें।

हमें सर्टिफिकेट नहीं चाहिए-हमें वो हक़ चाहिए जो एक इंसान को, एक शहरी को, और एक वतन-परस्त को वाजिब है।

हम अपने हिस्से की धूप, अपने हिस्से की हवा और अपने हिस्से की इज़्ज़त मांगते हैं-क्योंकि हमने इस सरज़मीन से मोहब्बत की है, सौदा नहीं।

(जौवाद हसन स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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