किसी देश की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी के मुख्यत: दो स्रोत होते हैं- उत्पादन के साधनों पर मालिकाना और शिक्षा-कौशल। अन्य दो स्रोत राजनीतिक एवं धार्मिक सत्ता यह तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं कि किसका उत्पादन के साधनों पर मालिकाना हक होगा और कौन शिक्षा प्राप्त करेगा, और किस तरह की शिक्षा प्राप्त करेगा।
पश्चिमी यूरोप-अमेरिका और दुनिया के कुछ अन्य देशों में अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी के मामले में धार्मिक सत्ता की भूमिका अत्यन्त कमजोर हो गई है, लेकिन भारत में धार्मिक सत्ता संपत्ति पर नियंत्रण और हिस्सेदारी का अभी भी एक महत्वपूर्ण तत्व है।
हजारों वर्षों से भारत के आर्थिक संसाधनों में हिस्सेदारी का प्रश्न वर्ण-जाति व्यवस्था के भीतर किसी समुदाय विशेष की स्थिति से तय होता रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी के मामले में वर्ण-जाति व्यवस्था की सबसे मुकम्मल संहिता मनु स्मृति के आदेश का कमोबेश पालन होता रहा है और आज भी हो रहा है, जो वर्ण-जाति के श्रेणीक्रम के आधार पर अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी तय करने का आदेश देती है, जिसमें शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए जीविकोपार्जन का एकमात्र उपाय ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य की सेवा करना बताया गया है और उनका धार्मिक कर्तव्य भी घोषित किया गया और कहा गया है कि इसके अतिरिक्त शूद्र जो करता है, उसका कर्म निष्फल होता है-
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया (1/93)
इसके साथ ही साथ मनुस्मृति का यह भी आदेश है कि शूद्र को धन-संचय नहीं करना चाहिए, क्योंकि धन पाकर शूद्र ब्राह्मण को ही सताता है। मनुस्मृति शूद्र को शिक्षा ग्रहण करने के अधिकार से भी वंचित करती है। आर्थिक मामलों में मनु संहिता यह भी विधान करती है कि शूद्रों को ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य द्वारा दिए गए जूठे अन्न और फटे-पुराने वस्त्र पर जीना चाहिए (शूद्र को भोजन के लिए जूठा अन्न, पहनने को पुराने वस्त्र, बिछाने के लिए धान का पुआल और फटे-पुराने वस्त्र देना चाहिए (10/125-126)।
जो बात शूद्रों (पिछड़े वर्ग) के लिए कही गई, वही बात और ज्यादा कठोरता के साथ अतिशूद्रों या अन्त्यज (दलितों) के लिए भी लागू होती थी। उम्मीद की गई थी कि आजादी के बाद मनु संहिता की जगह आधुनिक लोकतांत्रिक संविधान के लागू होने के बाद वर्ण-जाति के श्रेणीक्रम के अनुसार अर्थव्यवस्था एवं जीवन के अन्य क्षेत्रों में हिस्सेदारी का स्वरूप बदलेगा और संविधान द्वारा समता एवं न्याय देने का वादा पूरा होगा, लेकिन अफसोस ऐसा नहीं हुआ और आज भी भारत में आर्थिक हिस्सेदारी वर्ण-जाति के श्रेणीक्रम के अनुसार ही तय होती है।
किसी समुदाय या वर्ग की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी दो रूपों में देखी जाती है, पहली यह कि निरपेक्ष तौर पर उसकी आर्थिक स्थिति में क्या फर्क पड़ा है, उसकी स्थिति बेहतर हुई है या बदत्तर। दूसरा सापेक्षिक तौर पर यानी पहले से ही वर्चस्वशाली समुदाय या वर्ग की तुलना में उसकी आर्थिक स्थिति पर क्या फर्क पड़ा है। पहली निरपेक्ष स्थिति के संदर्भ में मेरा यह कहना है कि जब किसी देश की अर्थव्यवस्था विकसित हो रही होती है, तो आमतौर पर कम या ज्यादा सबकी स्थिति थोड़ी बेहतर होती है और भारत में दलितों की भी हुई है। इससे इंकार करना तथ्यों से मुंह मोड़ना होगा।
इस आलेख में अर्थव्यवस्था में तथाकथित उच्च जातियों की तुलना में दलितों की हिस्सेदारी की तुलना करने की कोशिश की गई है। इससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि क्या आज भी दलितों की भारतीय अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी मनु के वर्ण-जाति के श्रेणीक्रम के अनुसार ही है, या इसमें कोई बुनियादी परिवर्तन आया है। यहां सिर्फ ऊपरी तीन वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कुछ अन्य उच्च जातियों की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी की तुलना दलित समुदाय से करेंगे। तथाकथित इन उच्च जातियों की आबादी 21 प्रतिशत है, जबकि दलितों की आबादी 18 प्रतिशत है (अनुसूचित जातियों की आबादी 16.2 प्रतिशत है, इनके इतर अन्य दलितों को इसमें शामिल करने पर 18 प्रतिशत)।
सबसे पहले जीवन के सबसे बुनियादी आधार मासिक खर्च को लेते हैं। 1992-2000 में ग्रामीण क्षेत्र में उच्च जातीय परिवारों के मासिक खर्च की तुलना में दलित परिवारों का मासिक खर्च 38 प्रतिशत कम था, यानी 38 प्रतिशत का अंतर था। करीब 10 वर्षों बाद 2011-12 में इस अंतर में सिर्फ एक प्रतिशत की कमी आई और यह अंतर 37 प्रतिशत हो गया।
1999-2000 में पांच सदस्यों वाले दलित परिवार का औसत मासिक खर्च 2,095 रुपये था, जबकि उच्च जातियों का 2,885 रुपये था। 2011 में दलित के संदर्भ 6,260 रुपये और उच्च जातियों के संदर्भ में 7,150 रुपये हो गया, जबकि शहरी क्षेत्रों में दलितों के संदर्भ में 1999-2000 में यह 3,455 रुपये और उच्च जातियों के संदर्भ में 5,025 रुपये था। 2011-12 में दलित के संदर्भ में यह खर्च 10,964 रुपये, जबकि उच्च जातियों के संदर्भ में 16,210 रुपये हो गया।
1999-2000 में शहरों में उच्च जातीय परिवारों की मासिक आय दलित परिवारों की तुलना में 65 प्रतिशत अधिक थी। 2011-12 में भी इस अंतर में कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा। यह अंतर 65 प्रतिशत की तुलना में 60 प्रतिशत हो गया।
पूरे भारत के स्तर पर 2012 में 22 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे थे। दलितों में यह प्रतिशत 30 था, जबकि उच्च जातियों में यह मात्र नौ प्रतिशत था। 2015-16 में पांच वर्ष या कम उम्र वाले 36 प्रतिशत भारतीय बच्चे कुपोषित थे। दलितों के संदर्भ में यह प्रतिशत 39 था, जबकि उच्च जातियों के संदर्भ में यह प्रतिशत 29 था। 2015 के आंकड़े बताते हैं कि जहां उच्च जातियों में बेरोजगारी की दर 4.3 प्रतिशत थी, वहीं दलितों में यह दर 7.3 प्रतिशत थी। करीब-करीब हमेशा दलितों में बेरोज़गारी की दर उच्च जातियों से दो गुनी रही है।
2013 में देश की संपदा का 45 प्रतिशत उच्च जातियों के हाथ में था, जबकि जनसंख्या में उनका अनुपात 21 प्रतिशत है। जबकि दलितों के पास सिर्फ सात फीसदी संपदा (wealth) थी, जबकि जनसंख्या में उनका अनुपात 18 प्रतिशत है। इसमें जमीन का बंटवारा देखें, तो 21 प्रतिशत उच्च जातियों के पास 41 प्रतिशत जमीन है, जबकि 18 प्रतिशत दलितों के पास सिर्फ सात प्रतिशत जमीन है। यदि भवन का मालिकाना देखें तो, 21 प्रतिशत उच्च जातियों के पास 53 प्रतिशत मालिकाना है, और 18 प्रतिशत दलितों के पास सात प्रतिशत मालिकाना है।
वित्तीय संपत्ति (शेयर और डिपाजिट) के मालिकाना की स्थिति देखें तो पाते हैं कि 21 प्रतिशत उच्च जातियां 48 प्रतिशत वित्तीय संपत्ति की मालिक हैं, जबकि 18 प्रतिशत दलित जातियां सिर्फ आठ प्रतिशत वित्तीय संपदा की मालिक हैं। अब प्रति परिवार औसत संपदा के संदर्भ में आंकड़ों को देखते हैं। भारत में प्रति परिवार औसत संपदा का मूल्य 15 लाख रुपये है, लेकिन उच्च जातियों के परिवारों में यह औसत 29 लाख रुपये है, जबकि दलित जातियों के संदर्भ में प्रति परिवार छह लाख रुपये है।
44 प्रतिशत दलित खेतिहर मजदूर हैं, यह उनकी जीविका का सबसे बड़ा साधन है। कुल दलित परिवारों में 15 प्रतिशत अपनी खेती के मालिक के तौर पर किसानी करते हैं, जबकि उच्च जातियों में यह प्रतिशत 23 है। दलितों की कुल आबादी के 47 प्रतिशत मजदूरी करके जीवन-यापन करते हैं, जबकि उच्च जातियों की कुल आबादी का सिर्फ 12 प्रतिशत को मजदूरी करनी पड़ती है। 30 प्रतिशत दलित मजदूर कैजुएल लेबर हैं। उच्च जातियों में यह प्रतिशत नौ है। दलित कैजुएल लेबर और उच्च जातीय कैजुएल लेबर की आय और उपभोग में भी अंतर है। उच्च जातियों में प्रति व्यक्ति 1,300 रुपये है, तो दलितों के संदर्भ में यह 1,115 रुपये है।
यहां तक कि शारीरिक श्रम करके जीविकोपार्जन करने वाले मजदूरों की मजदूरी में भी जातीय आधार पर अंतर है। 2012 के आंकड़े बताते हैं कि जहां उच्च जातीय मजदूर की दैनिक मजदूरी 229 रुपये थी, वहीं दलित मजदूर की दैनिक मजदूरी 146 रुपये थी। इस तरह दोनों की मजदूरी में 92.6 प्रतिशत का अंतर है। प्रतिवर्ष जारी होने वाली भारत के बिलियनरी की सूची में एक भी दलित शामिल नहीं है।
श्रम बाजार में उच्च जातीय श्रमिक दलित श्रमिक की तुलना में रोजगार पाने के मामले में दो गुना (46 प्रतिशत) बेहतर स्थिति में होता है। अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी के लिए शिक्षा सबसे जरूरी माध्यम बन चुका है। पूरे भारत के स्तर पर 2014 में करीब 78 प्रतिशत छात्रों ने सेकेंडरी/हायर सेकेंडरी स्तर पर प्रवेश लिया। इसमें उच्च जातीय छात्रों का प्रतिशत 97 था, जबकि दलितों के संदर्भ में यह प्रतिशत 73 था।
उच्च शिक्षा के मामले में यह अंतर और ज्यादा बड़ा था। पूरे भारत के स्तर पर 27 प्रतिशत छात्रों ने उच्च शिक्षा में प्रवेश लिया, जिसमें उच्च जातियों के छात्रों का प्रतिशत 43 था, जबकि दलित जातियों के छात्रों का प्रतिशत 20 था। यह स्थापित तथ्य है कि उच्च शिक्षा अर्थव्यवस्था में बेहतर हिस्सेदारी का द्वार खोलती है।
भारत में पूंजीवाद और वर्ण-जातिवाद का पूरी से तरह मेल हो गया है, जाति व्यवस्था दलितों के रूप में पूंजीवाद को सस्ते श्रमिक उपलब्ध कराती है, जो उसके मुनाफे का सबसे बड़ा स्रोत है। इसके लिए पूंजीवाद वर्ण-जाति व्यवस्था की पूरी तरह रक्षा करता है। असल में अपने मूल रूप में वर्ण-जाति व्यवस्था मार्क्स की शब्दावली में- शोषकों के लिए अतिरिक्त मूल्य का दोहन का सबसे कारगर उपाय रही है।
इसी तथ्य को डॉ. आंबेडकर ने इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है- “बाह्मणवादी व्यवस्था द्वारा जातियों के लिए कानूनी एवं नैतिक संहिता (मनु आदि की संहिताएं) बनाने का उद्देश्य उच्च जातियों की आर्थिक हितों की रक्षा करना और उनकी ऊंची सामाजिक हैसियत बनाए रखना है।”
(इस लेख में 2011 की जनगणना के आंकड़े, राष्ट्रीय सैंपल सर्वे और सुखदेव थोराट द्वारा उपलब्ध आंकड़े इस्तेमाल किए गए हैं। पिछले कुछ वर्षों से मोदी सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों के आंकड़े उपलब्ध कराना बंद कर चुकी है। आंकड़े देते समय इसका ख्याल रखा गया है कि भले ही थोड़े पुराने हों, लेकिन प्रमाणिक हों।)
मासिक पत्रिका, प्रेरणा-अंशु से साभार।
(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)
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