1857 के characterisation पर और चाहे जो भी बहसें हों, यह तो निर्विवाद है कि यह अंग्रेजों के खिलाफ हिंदुस्तानियों की लड़ाई थी, मजहब की सीमाओं के पार। गंगा-जमनी तहज़ीब की बुनियाद पर लड़ी गई, साझी शहादत की वह साझी विरासत कामयाब होती तो न अंग्रेजों की फुट डालो की सियासत परवान चढ़ती, न संकीर्ण साम्प्रदायिक फासीवादी संगठनों को उर्वर जमीन मिलती, न धर्म के आधार पर देश का बंटवारा होता ।
हिंदुस्तान बनाम पाकिस्तान न होता तो अंधराष्ट्रवादी साम्प्रदयिक उन्माद की हवा निकल जाती।
समझौताविहीन क्रांतिकारी संघर्ष के माध्यम से साम्राज्यवाद से radical rupture एक सही मायने में संप्रभु आत्मनिर्भर राष्ट्रीय विकास की राह हमवार करता, जो वित्तीय पूंजी की जकड़नों से पूरी तरह मुक्त होता।
मुख्यतः सैनिकों की-जो कुछ और नहीं वर्दीधारी किसान ही थे-की निर्णायक भूमिका के बल पर सफल वह क्रांति जिसके चार्टर का एक प्रमुख नारा था-जमीन जोतने वालों को, वह किसानों -मेहनतकशों के एक नए लोकतांत्रिक भारत का आगाज़ कर सकती थी ।
आज के 163 साल पहले बना ऐसा संप्रभु, लोकतांत्रिक भारत आज दुनिया के राष्ट्रों की बिरादरी में किस उच्च मुकाम पर खड़ा होता, इसकी कल्पना मात्र से ही रोमांच होता है।
निश्चय ही वह ऐसा भारत होता जो Covid19 के सामने इतना बेबस-लाचार न होता, जहां ऐसी संवेदनहीन, क्रूर सरकार न होती जिसने देश की सारी संपदा के सृजनहार मेहनतकशों को इस तरह मरने के लिए भाग्य-भरोसे छोड़ दिया हो ।
ऐसा भारत बनाने के लिए, आइए 1857 के अपने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महान मूल्यों को पुनर्जीवित करें और आज के फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष में उन्हें अपना सम्बल बनाएं ।
आइए, 1857 की spirit को जगाएं :
‘ गाजियों/बागियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,
तख्त-ए-लन्दन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की ।’
पहली जंगे-आज़ादी के महान शहीदों को नमन ।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे हैं।)
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