आगामी 2021-22 की जनगणना को लेकर देश का आदिवासी समुदाय अलग धर्म कोड के लिए आंदोलनरत है। दूसरी तरफ झारखंड में संघ और भाजपा के लोग आदिवासियों के बीच इस प्रचार में लगे हैं कि 2021 की जनगणना प्रपत्र में आदिवासी समुदाय हिंदू धर्म लिखवाएं। अहम बात यह है कि अंग्रेजों की हुकूमत में भारत के आदिवासियों के लिए ‘ट्राइबल रिलिजन’ कोड था, जिसे ट्राइब्स आदिवासी धर्म भी लिखवाते थे।
आजादी के बाद 1951-52 की जनगणना तक यह शामिल रहा, मगर 1961-62 की जनगणना में इसे समाप्त कर दिया गया। अब अलग धर्म कोड की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी है। पिछली 20 सितंबर को झारखंड के आदिवासियों ने विशाल मानव श्रृंखला बनाई। इसमें झारखंड के सैकड़ों संगठनों और हजारों समितियों समेत गांव, टोला, मोहल्ला, कस्बा, प्रखंड और पंचायत वार्ड आदि से लाखों की संख्या में लोगों ने भाग लिया।
राष्ट्रीय आदिवासी-इंडीजीनस धर्म समन्वय समिति के मुख्य संयोजक अरविंद उरांव बताते हैं कि हमारी मागों के समर्थन में झारखंड में निवास करने वाले सभी धर्म और संप्रदाय के लोगों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और हमारी हौसला आफजाई की। साथ ही भीम आर्मी द ग्रेट कंपनी की टीम समेत भारत के अन्य राज्यों से भी इस आंदोलन को समर्थन किया गया। अरविंद ने बताया कि आदिवासियों की अलग कॉलम की मांगों को लेकर झारखंड समेत देश के सभी हिस्सों से आवाजें समय-समय पर उठती रही हैं।
इस आंदोलन का मुख्य रूप से नेतृत्व कर रहे राष्ट्रीय आदिवासी इंडिजिनियस धर्म समन्वय समिति भारत, जय आदिवासी केंद्रीय परिषद झारखंड, आदिवासी छात्र मोर्चा एवं आदिवासी छात्र संघ ने इसकी तैयारी प्रथम विधानसभा सत्र के पूर्व ही कर ली थी, जिसे लॉकडाउन की वजह से रोका गया था। अंतत: इसे लेकर पुन: संगठनों एवं समितियों के प्रतिनिधियों ने सरकार को विधानसभा सत्र से इसे अविलंब प्रभाव में लाने का प्रस्ताव, बिल पर अपने मंत्रिमंडल की मुहर लगाकर केंद्र को भेजने की मांग की।
योगो पुर्ती ने कहा कि भारतवर्ष की तीसरी सबसे बड़ी आबादी और 15 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले आदिवासी जन समुदायों के ट्राइबल धर्म कॉलम और सरना धर्म का कॉलम नहीं होने के कारण हमारे धर्म, आस्था, विश्वास, भाषा एवं परंपरा, संस्कृति एवं सभ्यता की मूल पहचान को नष्ट करने के लिए कई दशकों से खिलवाड़ जारी है। हमारी राष्ट्रीय पहचान धर्म कोड कॉलम वर्ष 1871 से 1951 तक अंकित था। इसे स्वतंत्र भारत में राजनीतिक षड्यंत्र के तहत समाप्त कर दिया गया। वर्तमान समय में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, फारसी, यहूदी, लिंगायत आदि अन्य धर्मां समेत अल्पसंख्यकों का धर्म कॉलम है। परंतु सिर्फ आदिवासियों के धर्म कॉलम को खत्म करना उन्हें संवैधानिक एवं मौलिक अधिकारों से वंचित करना है।
आदिवासी मामलों के जानकार रतन तिर्की कहते हैं कि बंधन तिग्गा, जिसने आदिवासी धर्म को सरना धर्म का नाम दिया वे संघ के काफी करीबी थे। वे भी बताते हैं कि सरना शब्द आदिवासियों की किसी भी भाषा में नहीं है। वहीं झारखंड के अवकाश प्राप्त प्रशासनिक अधिकारी संग्राम बेसरा कहते हैं कि झारखंड में 32 आदिवासी समुदाय हैं, मगर किसी भी आदिवासी भाषा में सरना शब्द नहीं है, मतलब सरना आदिवासियों का शब्द है ही नहीं।
वे बताते हैं कि सरना रांची की नागपूरी-सादरी बोली का शब्द है। आदिवासी समाज की अगुआ समाजसेविका आलोका कुजूर बताती हैं कि सरना शब्द संघ प्रायोजित है। संघ आदिवासियों के बीच इनके धर्म को लेकर भ्रम की स्थिति पैदा कर देना चाहता है, ताकि आदिवासी एक मंच पर नहीं रहें।
भारत की जनगणना अंग्रेजों के शासन काल 1871-72 में शुरू हुई। तब से हर दस वर्ष में जनगणना की जाती है। देश में आदिवासियों की जनगणना के लिए 1871-72 से 1951-52 तक अलग विकल्प था। वे ट्राईबल रिलिजन यानी आदिवासी धर्म अंकित करवाते थे। मगर 1961-62 की जनगणना प्रपत्र से इसे हटा दिया गया और ‘अन्य’ का विकल्प दिया गया, जिसका कोई कारण नहीं दिया गया।
80 के दशक में तत्कालीन कांग्रेस सांसद कार्तिक उरांव ने सदन में आदिवासियों के लिए अलग धर्म ‘आदि धर्म’ की वकालत की, मगर तत्कालीन केंद्र सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। बाद में उक्त मांग को लेकर भाषाविद्, समाजशास्त्री, आदिवासी बुद्धिजीवी, समाजसेवी और साहित्यकार रामदयाल मुण्डा ने इस मांग को आगे बढ़ाया, लेकिन केंद्र की तत्कालीन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
2001-02 में खुद को आदिवासियों का धर्म गुरु घोषित करते हुए बंधन तिग्गा ने आदिवासी धर्म को सरना धर्म का नाम दिया और उसने एक नारा विकसित किया, ‘सरना नहीं तो जनगणना नहीं’। बाद में तत्कालीन कांग्रेस विधायक देवकुमार धान ने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया। देवकुमार धान ने भाजपा का दामन थाम लिया और इस आंदोलन से किनारा कर लिया। अहम बात यह रही कि 2011-12 की जनगणना में जो 1961-62 की जनगणना प्रपत्र में अन्य का विकल्प था, उसे भी हटा दिया गया।
तर्क यह दिया गया कि सभी धर्मों की अपनी पहचान के तौर पर उसके देवालय हैं। जैसे हिंदुओं के मंदिर, मुसलमानों के मस्जिद, सिखों के गुरुद्वारा आदि आदि, जबकि आदिवासियों का कोई देवालय नहीं हैं, वे पेड़-पौधों की पूजा करते हैं जिस कारण उनका कोई धर्म नहीं माना जा सकता। ये सारे बदलाव कांग्रेस के शासन काल में हुए हैं। यह किसके इशारे पर या किस कारण हुआ? अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है।
दूसरी तरफ आरएसएस का घटक संगठन सेवा भारती आदिवासी बहुल क्षेत्रों में वनवासी कल्याण केंद्र और वनबंधु परिषद के बैनर तले आदिवासियों में हिंदुत्व के संस्कार स्थापित करने की कोशिश करता रहा है। संघ का ऊपरी तौर मानना है कि जनगणना में आदिवासियों द्वारा अपना धर्म ‘अन्य’ बताए जाने से देश की कुल आबादी में हिंदुओं का प्रतिशत घट गया है।
अत: संघ अब एक अभियान चलाकर यह सुनिश्चित करना चाहता है कि आगामी जनगणना में धर्म के कॉलम में आदिवासी ‘हिंदू’ पर ही निशान लगाएं, ताकि हिंदुओं का प्रतिशत बढ़ जाए, जबकि सच यह है कि कॉरपोरेट पोषित संघी सत्ता की नजर आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन पर है। आदिवासियों को हिंदू बताकर उनकी आबादी को कम से कमतर करना है, ताकि वे इतने कमजोर हो जाएं कि इनके जल, जंगल, जमीन पर कॉरपोरेटी हमला हो, तो ये प्रतिरोध भी न कर सकें।
भारत का संविधान और सरकारी रिपोर्ट के अनुसार आदिवासियों की परंपरा एवं संस्कृति अन्य धर्म से भिन्न और अलग है। भारत की जनगणना रिपोर्ट सन् 2011-12 के अनुसार आदिवासियों की संख्या लगभग 12 करोड़ है, जो देश की कुल आबादी का 9.92 प्रतिशत है। इसके बावजूद जनगणना प्रपत्र में अलग से गणना नहीं करना, इनको चिंतित करता है। झारखण्ड की 3.5 करोड़ की जनसंख्या में आदिवासियों की संख्या 90 लाख के करीब है।
वर्तमान में देश में 781 प्रकार के आदिवासी समुदाय निवास करते हैं। इसमें 83 अलग-अलग धार्मिक परंपराएं हैं। इनमें कुछ प्रमुख हैं जो गौंड, पुनेम, आदि और कोया कहे जाते हैं। इनकी सभी धार्मिक परंपराओं में समानता यह है कि सभी प्रकृति पूजक और पूर्वजों के आराधक हैं। आदिवासियों में न तो कोई पुरोहित वर्ग होता है, न जाति प्रथा, न पवित्र ग्रंथ, न मंदिर और न ही देवी-देवता। जहां संथाल समुदाय अपने पूजास्थल को ‘जेहराथान’ कहते हैं वहीं ‘हो’ समुदाय के लोग ‘देशाउलि’ को अपना सर्वेसर्वा मानते हैं। सभी आदिवासी प्रकृति पूजा के तौर पर पेड़ों की पूजा करते हैं, जो पर्यावरण के दृष्टिकोण से काफी सकारात्मक है।
टोनी जोसफ की पुस्तक ‘अर्ली इंडियंस’ के अनुसार भारत भूमि के पहले निवासी वे लोग थे जो लगभग 60 हजार वर्ष पहले अफ्रीका से यहां पहुंचे थे। लगभग तीन हजार साल पहले आर्य भारत में आए और उन्होंने यहां के मूल निवासियों को जंगलों और पहाड़ों में खदेड़ दिया, जो आज आदिवासी कहलाते हैं। दूसरी तरफ संघ आदिवासीयों को मूलतः हिंदू मानता है, जो मुस्लिम शासकों के अत्याचारों के कारण जंगलों में रहने चले गए थे, जबकि संघ के इस दावे का कोई वैज्ञानिक और ऐतिहासिक आधार नहीं है।
संघ अपने राजनीतिक एजेंडे को अमली जामा पहनाने के लिए आदिवासियों को ‘वनवासी’ बताता है। मतलब वन में निवास करने वाला, क्योंकि आदिवासी शब्द से तार्किक आधार पर यह साफ हो जाता है कि आदिवासी ही मूलवासी हैं, जबकि संघ का हिंदू राष्ट्रवाद मानता है कि आर्य इस देश के मूल निवासी हैं और यहीं से वे दुनिया के विभिन्न भागों में गए।
आगामी 2021-22 की जनगणना को लेकर देश के सभी राज्यों के आदिवासी समुदाय के लोगों ने ट्राइबल धर्म कोड की मांग को लेकर 18 फरवरी 2020 को दिल्ली के जंतर मंतर पर एक दिवसीय धरना दिया था। जन्तर-मंतर के साथ-साथ देश के सभी राज्यों के राजभवन के समक्ष धरना-प्रदर्शन किया गया था। इसी कड़ी में पिछली 20 सितंबर को झारखंड के आदिवासियों ने अलग पहचान ट्राइबल कॉलम सरना कोड की मांग के समर्थन में विशाल मानव श्रृंखला बनाई थी।
(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)