‘ये बाबू संविधान बचाईं कि चिराग बाबू के जिताईं समझ में नाही आवत बा’

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यह बात बिहार की करीब 60-65 वर्ष की पासी समाज की एक महिला ने कही। जब हम लोग संविधान बचाने और भाजपा को हराने के लिए लंबी-चौड़ी तरकरीर कर रहे थे। उस गोष्ठी-सभा में वह महिला भी मौजूद थीं। उन्होंने बड़े ध्यान से हम लोगों की बाते सुनीं। वे हम लोगों से इस बात से सहमत लग रही थीं कि दलितों-बहुजनों के हितों के लिए भाजपा को हराना जरूरी है।

लेकिन सभा के बाद उन्होंने यह सवाल पूछा ‘ ये बाबू संविधान बचाईं कि चिराग बाबू के जिताईं समझ में नाही आवत बा’  तुम्हन लोगन कहत बाटअ कि संविधान बचावे खातिर भाजपा के हरावे के पड़ी,लेकिन हम्मन क नेता चिराग बाबू त उनहीं ओर बाटें, ऊ त अपने हवें ना।

मेरी समझ में बात सिर्फ उस महिला की नहीं हैं, दलित-बहुजनों का बड़ा हिस्सा वैचारिक-सामाजिक तौर पर ब्राह्मणवादी और एक हद आरएसएस-भाजपा विरोधी संवेदना-चेतना से लैस है, इसे बहुत सारे तथ्य प्रमाणित करते हैं, लेकिन जब सवाल वोट का आता है, तो दलित-बहुजन चेतना-संवेदना और एका के सामने उसकी जाति के नेता और उनकी पार्टी आ खड़ी होती है।

बिहार में पासियों के सामने प्रश्न है कि वे चिराग पासवान को वोट देकर पासी राजनीति को मजबूत बनाएं, या बहुजन-दलित राजनीति को। यही प्रश्न मांझी वोटरों के सामने भी है, वे जीतन राम मांझी को वोट देकर उन्हें और उनकी पार्टी को मजबूत बनाएं या दलित-बहुजन विचार-एजेंड़ा को।

यही हाल मल्लाहों का मुकेश साहनी, कुशवाहा लोगों के एक हिस्से का उपेंद्र कुशवाहा के बारे में, कुर्मी लोगों का नीतीश जी के बारे में है। जब तक नीतीश जी भाजपा के खिलाफ थे, कुर्मी लोगों का बहुसंख्य हिस्सा भाजपा के खिलाफ था, आज वे भाजपा के साथ हैं, कुर्मी भाजपा के साथ हैं, जब जीतन राम मांझी जी भाजपा के खिलाफ थे, उनके जाति के वोटर भाजपा के खिलाफ थे। वे भाजपा के साथ हैं, तो उनके जाति के वोटर भाजपा के साथ हैं (ध्यान रहे बहुलांश की बात हो रही है।)

यह हाल यूपी में कुर्मी (अनुप्रिया पटेल), निषाद ( संजय निषाद), राज भर (ओमप्रकाश राजभर), मौर्या ( केशव प्रसाद मौर्या) को लेकर है। अपनी जाति के नेता को यदि ताकतवर बनाना है, तो उन्हें और उनके सहयोगी भाजपा को वोट देना है। संविधान, लोकतंत्र, न्याय, समता और बंधुता के विचारों को किनारे लगाकर।

यूपी में इसका सबसे बेहतरीन नमूना तेली जाति है। मैं पिछले दिनों जितने गांवों में गया, जब तेली जाति के लोगों से वोट के बारे में पूछा। उन्होंने सवाल पूरा होने से पहले ही कह दिया, ये बाबू पहली बार तो हमरे जाति क मनई प्रधानमंत्री ( नरेंद्र मोदी) बनल बा, उन्हें नाहीं वोट देब त केके देब।

यह संकट आज की तारीख में बसपा के कोर मतदाता जाटव-च.. के साथ भी है। इन वोटरों के बहुत सारे लोग यह मानते हैं और समझते भी हैं कि हर हालात में भाजपा को हराना चाहिए। भाजपा बाबा साहेब के विचारों और संविधान के खिलाफ है, लेकिन बसपा से अलग किसी को वोट देने में उनके सामने मुश्किल आ रही है, उनका मानना है कि यह हमारी पार्टी है ( इसमें जाति का एक बड़ा तत्व है), यदि इसको वोट नहीं देंगे तो हमारी पार्टी खत्म हो जाएगी।

चंद्रशेखर आजाद की लोकसभा सीट नगीना (सुरक्षित) में यादवों की भी जाति से बंधी मानसिकता देखने को मिली। कुछ यादव लोगों से बात हुई तो उन्होंने कहा कि सबसे बेहतर प्रत्याशी चंद्रशेखर आजाद हैं, लेकिन नेता जी (अखिलेश यादव) ने किसी कारण से ही तो इनका समर्थन नहीं किया, अपना प्रत्याशी खड़ा किया। चंद्रशेखर की जीत नेता की हार होगी। हम सपा के प्रत्याशी को ही वोट देंगे।

दलित-बहुजन संवेदना-चेतना और ब्राह्मणवाद विरोधी संवेदना-विचार-संघर्ष इन मामलों में काफी हद तक एकजुट दलित-बहुजन राजनीतिक तौर पर जाति के प्रति प्रतिबद्धता और संवेदना के आधार पर अपनी जाति की पार्टी और नेताओं को वोट कर रहे हैं, चाहे इससे भाजपा को फायदा हो या दलित-बहुजनों के सामूहिक हितों को बलि ही क्यों न चढ़ानी पड़े।

दलित-बहुजनों का जातियों में विभाजन और जातियों के बीच प्रतियोगिता-प्रतिस्पर्धा से ही अल्पसंख्यक ब्राह्मणों-सवर्णों के वर्चस्व और विजय की मुख्य वजह रही है, इसे 1873 में फुले ने अपनी ‘गुलामगिरी’ किताब में पहचान लिया था। दूसरा कारण बहुजनों के बीच के प्रह्लाद रहे हैं, यह उन्होंने इसी किताब में रेखांकित किया था। बहुजनों के बीच के प्रह्लाद आज शीर्ष पद पर विराजमान हैं, लेकिन उनके नीचे बहुत सारे हैं।

(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)

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