कृषि क़ानून और इनके ख़िलाफ़ लड़ाई के भावी परिणाम

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तीनों कृषि क़ानून कृषि क्षेत्र के बलात् पूंजीवादीकरण के क़ानून हैं। इनमें किसानों के हित का लेश मात्र नहीं है । ये किसानों की पूर्ण तबाही के, उन्हें पूँजी का ग़ुलाम बनाने के फ़रमान है । इन क़ानूनों को मोदी जिस प्रकार की धींगा-मुश्ती से लाये हैं और अब राज्य की शक्ति के बल पर इन्हें जिस प्रकार अमली जामा पहनाने की नंगी कोशिश की जा रही है, उससे इतना लाभ जरूर हुआ है कि इसने पूरे कृषि समाज को एक बड़े झटके से जागृत कर दिया है। अब मोदी-शाह कंपनी कितने ही प्रकार की तिकड़में क्यों न कर लें, इस नेता को तोड़ें, उसे धमकाए, पर इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों के संघर्ष को दबाना किसी के वश में नहीं होगा ।

अगर किसी ने यह कल्पना की होगी कि इन क़ानूनों से कृषि क्षेत्र में निवेश की बाधा दूर होगी, इस पूरे घटनाक्रम के बाद भारत का कृषक समाज अब ऐसे निवेशों को किसी भी रूप में कभी नहीं स्वीकार करेगा। इजारेदार पूँजीपतियों के ऐसे कथित निवेश को अब शुद्ध रूप में एक औपनिवेशिक निवेश के तौर पर देखा जाएगा । अर्थात् कृषि क्षेत्र में आगे व्यापक रूप में निजी पूँजी के निवेश की कोई संभावना शेष नहीं रही है । इस प्रकार इन तीनों क़ानूनों को लाने के तौर तरीक़ों के बारे में मोदी की राजनीतिक अदूरदर्शिता ने न सिर्फ कृषि क्षेत्र से पूँजीपतियों को दूर रखने का एक स्थायी मंगलकारी कार्य कर दिया है, बल्कि यह हमारे देश की व्यापक जनता के लिए भी खाद्य सुरक्षा की रक्षा के लिहाज़ से भी बहुत लाभदायक साबित होगा ।

जाहिर है कि इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ लंबी लड़ाई भारतीय अर्थ-व्यवस्था के भावी स्वरूप को गहराई से प्रभावित करेगी । भारत का किसान जाग गया है । वह किसी नेता या संगठन का भी ग़ुलाम नहीं है। इसीलिये नेता नामधारी जीवों को तोड़ने या बरगलाने से कोई लाभ होगा, मोदी-शाह को ऐसा भ्रम हो सकता है, पर और किसी को नहीं। किसानों का संघर्ष कोई तिकड़मी चुनावी राजनीति नहीं है। मोदी की चालों से इसमें दरारों की कल्पना करने वाले गोदी मीडिया को इसे जानना बाक़ी है। भारत के किसानों को अपने संख्या बल पर भरोसा है। उसे बीजेपी की तरह कभी हिंसा के रास्ते पर बढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी ।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और चिंतक हैं। आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

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