Thursday, April 18, 2024

मुगलकाल में भी होता था दिवाली पर सबरंग माहौल

सदियों से हमारे देश का किरदार कुछ ऐसा रहा है कि जिस शासक ने भी सामंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व की भावना से सत्ता चलाई, उसे देशवासियों का भरपूर प्यार मिला। देशवासियों के प्यार के ही बदौलत उन्होंने भारत पर वर्षों राज किया। मुगल शासक भी उनमें से एक थे। मुगलकाल में औरंगजेब को यदि छोड़ दें, तो सारे मुगल शहंशाह सामंजस्यपूर्ण सह अस्तित्व पर यकीन रखते थे। उन्होंने कभी मजहब के साथ सियासत का घालमेल नहीं किया और अपनी हुकूमत में हमेशा उदारवादी तौर-तरीके आजमाए। उनकी हुकूमत के दौरान धार्मिक स्वतंत्रता, अपना धर्म पालन करने तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने एक ऐसा नया खुशनुमा, सबरंग माहौल बनाया, जिसमें सभी धर्मों को मानने वाले एक-दूसरे की खुशियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा और तीज त्योहार में भी शामिल होते थे।

मुगलकाल में विभिन्न हिंदू और मुस्लिम त्योहार जबर्दस्त उत्साह और बिना किसी भेदभाव के मनाए जाते थे। अनेक हिंदू त्योहार मसलन दीपावली, शिवरात्रि, दशहरा और रामनवमी को मुगलों ने राजकीय मान्यता दी थी। मुगलकाल में खास तौर पर दीपावली त्योहार में एक अलग ही रौनक होती थी। यह पर्व पूरी सल्तनत में अपूर्व उत्साह से मनाया जाता था। दीप पर्व आगमन के तीन-चार हफ्ते पहले ही महलों की साफ-सफाई और रंग-रोगन के दौर चला करते। ज्यों-ज्यों पर्व के दिन नजदीक आने लगते, त्यों-त्यों खुशियां परवान चढ़ने लगतीं। दीयों की रोशनी से समूचा राजमहल जगमगा उठता, जिसे इस मौके के लिए खास तौर पर सजाया-संवारा जाता था।

मुगल शासक बाबर दीपावली को धूमधाम से मनाया करता था। इस दिन पूरे महल को दुल्हन की तरह सजाकर, पंक्तियों में लाखों दीप प्रज्वलित किये जाते थे। दिवाली के मुकद्दस मौके पर शहंशाह बाबर अपनी गरीब रियाया को नये कपड़े और मिठाइयां भेंट करते थे। बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूं ने भी उनके निधन के बाद यह परम्परा जारी रखी। दीपावली वे खूब हर्ष उल्लास से मनाते थे। इस अवसर पर हुमायूं, महल में महालक्ष्मी के साथ अन्य हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा भी करवाते और गरीबों को सोने के सिक्के उपहार में देते थे।

पूजा के दौरान एक विशाल मैदान में आतिशबाजी की जाती। फिर 101 तोपें चलाई जातीं। शहंशाह अकबर के शासनकाल में पूरे देश के अंदर गंगा-जमुनी तहजीब और परवान चढ़ी। इस्लाम के साथ-साथ वे सभी धर्मों का समान सम्मान करते थे। अकबर ने अपनी सल्तनत में विभिन्न समुदायों के कई त्योहारों को शासकीय अवकाश की फेहरिस्त में शामिल किया था। हर एक त्योहार में खास तरह के आयोजन होते, जिनके लिए शासकीय खजाने से दिल खोलकर अनुदान मिलता। दीवाली मनाने की शुरूआत दशहरे से ही शुरू हो जाती। दशहरा पर्व पर शाही घोड़ों और हाथियों के साथ व्यूह रचना तैयार कर, सुसज्जित छतरी के साथ जुलूस निकाला जाता।

अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल ने अपनी मशहूर किताब ‘आईना-ए-अकबरी’ में शहंशाह अकबर के दीपावली पर्व मनाये जाने का तफ्सील से जिक्र किया है। बादशाह अकबर दिवाली की सांझ अपने पूरे राज्य में मुंडेरों पर दीये प्रज्वलित करवाते। महल की सबसे लंबी मीनार पर 20 गज लंबे बांस पर कंदील लटकाये जाते थे। यही नहीं महल में पूजा दरबार आयोजित किया जाता था। इस मौके पर संपूर्ण साज-सज्जा कर दो गायों को कौड़ियों की माला गले में पहनाई जाती और ब्राह्मण उन्हें शाही बाग में लेकर आते। ब्राह्मण जब अकबर को आशीर्वाद प्रदान करते, तब शहंशाह खुश होकर उन्हें मूल्यवान उपहार प्रदान करते।

अबुल फजल ने अपनी किताब में अकबर के उस दीपावली समारोह का भी ब्यौरा लिखा है, जब शहंशाह कश्मीर में थे। अबुल फजल लिखते हैं, ‘‘दीपावली पर्व जोश-खरोश से मनाया गया। हुक्मनामा जारी कर नौकाओं,  नदी-तट और घरों की छतों पर प्रज्वलित किए गए दीपों से सारा माहौल रोशन और भव्य लग रहा था।’’ दिवाली उत्सव के दौरान शहजादे और दरबारियों को राजमहल में जुआ खेलने की भी इजाजत होती थी। जैसा कि सब जानते हैं कि दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा होती है, मुगलकाल में गोवर्धन पूजा बड़े श्रद्धा के साथ संपन्न होती थी। यह दिन गौ सेवा के लिए निर्धारित होता। गायों को अच्छी तरह नहला-धुलाकर, सजा-संवारकर उनकी पूजा की जाती।

शहंशाह अकबर खुद इन समारोहों में शामिल होते थे और अनेक सुसज्जित गायों को उनके सामने लाया जाता। जहांगीर के शासनकाल में दिवाली के अलग ही रंग थे। वे भी दिवाली को मनाने में अकबर से पीछे नहीं थे। किताब ‘तुजुक-ए-जहांगीर’ के मुताबिक साल 1613 से लेकर 1626 तक जहांगीर ने हर साल अजमेर में दिवाली मनाई। वे अजमेर के एक तालाब के चारों किनारों पर दीपक की जगह हजारों मशालें प्रज्वलित करवाते थे। इस मौके पर शहंशाह जहांगीर, अपने हिन्दू सिपहसालारों को कीमती नजराने भेंट करते थे। इसके बाद फकीरों को नए कपड़े, मिठाइयां बांटी जातीं। यही नहीं आसमान में 71 तोपें दागी जातीं और बारूद से बने बड़े-बड़े पटाखे चलाये जाते।
दिवाली से पहले, हस्बे मामूल दशहरा पर्व भी मनाया जाता था।

औरंगजेब समेत सभी मुगल शासकों ने दशहरा पर्व पर भोज देने की परंपरा कायम रखी। इस मौके पर औरंगजेब अपने हिंदू अभिजात्य साथियों में सम्मानस्वरूप वस्त्र वितरित करते। मुगलकाल में हिंदू तथा मुस्लिम समुदायों के छोटे से कट्टरपंथी, तंगनजर तबके को छोड़कर, सभी एक-दूसरे के त्योहारों में बगैर हिचकिचाहट भागीदार बनते थे। दोनों समुदाय अपने मेलों, भोज तथा त्योहार एक साथ मनाते। दिवाली तो जैसे राष्ट्रीय त्योहार होता। यह पर्व न केवल दरबार में पूरे जोश-खरोश से मनाया जाता, बल्कि आम लोग भी उत्साहपूर्वक इस त्योहार का आनंद लेते। दिवाली पर्व पर ग्रामीण इलाकों के मुस्लिम अपनी झोपड़ियों व घरों में रौशनाई करते तथा जुआ खेलते। वहीं मुस्लिम महिलाएं भी दीपावली को अपनी ईद मानती थीं।

इस दिन वे अपनी बहनों और बेटियों को लाल चावल से भरे घड़े बतौर तोहफा भेजतीं। यही नहीं दिवाली से जुड़ी सभी रस्मों को भी पूरा करतीं। मुगल शहंशाह ही नहीं, बंगाल तथा अवध के नवाब भी दिवाली शाही अंदाज में मनाते थे। अवध के नवाब तो दीप पर्व आने के सात दिन पहले ही अपने तमाम महलों की विशेष साफ-सफाई करवाते। महलों को दुल्हन की तरह सजाया जाता। महलों के चारों ओर तोरणद्वार बनाकर, खास तरीके से दीप प्रज्वलित किये जाते थे। बाद में नवाब खुद अपनी प्रजा के बीच में जाकर दीपावली की मुबारकबाद दिया करते थे।

उत्तरी राज्यों में ही नहीं, दक्षिणी राज्यों में भी हिंदू त्योहारों पर उमंग और उत्साह कहीं कम नहीं दिखाई देता था। मैसूर में तो दशहरा हमेशा से ही जबर्दस्त धूमधाम से मनाया जाता रहा है। हैदर अली और टीपू सुल्तान दोनों ही विजयादशमी पर्व समारोहों में हिस्सा लेकर अपनी प्रजा को आशीष दिया करते थे।

(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल मध्य प्रदेश के शिवपुरी में रहते हैं।)

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