दलित साहित्यकारों और एक्टिविस्टों ने आधुनिकता के मुहावरे और ढांचे में अपने संघर्ष को स्थापित किया है। मूल्यों के असमान हिंदू सिस्टम के खिलाफ उन्होंने तार्किकता और सार्वभौमिकता के विचार निबद्ध किए हैं। वे दलित चेतना में बाहरी घुसपैठ या दलित संघर्षों पर लिखने वाले या उनकी पैरवी करने वाले या प्रवक्ता बनने वालों का भी विरोध करते हैं। “कास्ट एज़ द बैगेज ऑफ द पास्ट, ग्लोबल मॉडर्निटी एंड द कॉस्मोपॉलिटन दलित आइडेन्टिटी” शीर्षक से अपने एक निबंध में के सत्यनारायण लिखते हैं कि सब अलटर्न अध्येताओं पर भी अक्सर ये तोहमत लगती है। उदाहरण के लिए गायत्री स्पीवाक पर कि दलितों और आदिवासियों पर उनका व्यापक रूप से, अपरकास्ट लेखिका महाश्वेता देवी की रचनाओं पर आधारित है। (दलित लिटरेटर्स इन इंडिया, संपादन- जोशिल के अब्राहम और जूडिश मिसराही-बराक, रूटलेज, 2018) दलित इस बात का इंतज़ार नहीं करते हैं कि कोई उनके लिए लिखे या उनकी ओर से बोले, बल्कि वे लगातार अपनी आवाज़ को न सिर्फ बुलंद करते आ रहे हैं बल्कि उसका असर भी होते देखना चाहते हैं। ये लड़ाई उनकी अपनी लड़ाई है। इसीलिए वे दया या सहानुभूति के वायुमंडल से निकलकर खुली हवा में सांस लेते हुए लड़ना चाहते हैं। मोहन मुक्त की कविताओं पर लिखते हुए ये एक नैतिक चुनौती भी है कि क्या ऐसा करना सही है, क्या मुझे ऐसा करने का हक़ है। क्या एक सवर्ण ब्राह्मणवादी पर्यावरणों में पोषित व्यक्ति, इन कविताओं के बारे में लिखने की जुर्रत कर सकता है।
जो अभिलाषा बताई गई
वो चतुर्वेदी की अभिलाषा थी
वो फूल की अभिलाषा नहीं थी
फूल की कोई चाह नहीं थी
उसे तो खिलना था।।।
(पुष्प की अभिलाषा।।।पृ 119)
के सत्यनारायण लिखते हैं कि इसीलिए दलित लेखकों में अपनी आत्मकथा लिखने की एक एक लंबी समृद्ध परंपरा रही है। असहाय बनकर वे अपने उद्धार का इंतज़ार नहीं करते रह सकते और ना ही एक सुधार में रत वृहद हिंदू समाज में घुलमिल जाने की प्रक्रिया का हिस्सा बन सकते हैं। दीपेश चक्रवर्ती के हवाले से लेखक कहते हैं कि दलित इतिहास के वेटिंग रूम में नहीं पड़े रह सकते। अगर कोई रूम या कक्ष उनके लिए मुकर्रर है या ऐसे किसी कक्ष में उन्हें घुस पाने या बैठने की अनुमति भी नहीं है। हालांकि इतिहास के वेटिंग रूप की अपेक्षा ये कहना सही होगा कि वे इतिहास के किनारों और हाशियों पर पड़े नहीं रह सकते। लिहाज़ा में अपनी स्थिति को सुव्यवस्थित कर रहे हैं और तमाम प्रभुत्वशाली विमर्शों के बाहर अपनी आवाज़ को पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। वे जाति प्रथा को दमनकारी मानते हुए उसका खात्मा चाहते हैं लेकिन दलित के तौर पर अदृश्य होकर हिंदू मुख्यधारा में अपने विलय से उन्हें इंकार है। आंबेडकर इस बारे में अंतर्निहित सच्चाई को पहले ही उजागर कर चुके हैं।
‘नो नेम इज़ युअर्स अनटिल यू स्पीक इट’ नामक निबंध में लेटिशिया ज़ेकिनी (Laetitia Zecchini) लिखती हैं कि दलितों में भी दलित औरतों की स्थिति शोचनीय है जो जाति और पितृसत्ता का कहर झेलती आ रही हैं। मराठी कवि ज्योति लेंजवार ने कहा है, स्त्रीत्व भी दलित्व है। (वुमनहुड टू, इज़ दलितहुड) मीना कंडासामी तो इस मामले में और मुखर होकर बोलती हैं कि आदमी के लिए, औरत घर की दलित है।
मोहन इस विडंबना से पूरी तरह वाकिफ़ ही नहीं ज़िम्मेदारीपूर्वक सचेत भी हैं। 264 पृष्ठों और 97 कविताओं वाले इस संग्रह में औरतों के अधिकारों, संघर्षों पर तो कविताएं हैं ही, हिंदी में ये पहला कविता संग्रह है जिसे उन बेमिसाल पांच औरतों को समर्पित किया गया है जिन्होंने इंसानी हकहकूक की लड़ाई में और जातिवादी, पितृसत्ता के वर्चस्व को तोड़ने में अपना जीवन खपा दिया। मोहन की याददिहानी में ये चुनिंदा विलक्षण और साहसी औरतें हैं- नंगेली जिन्होंने ब्रेस्ट टैक्स भरने से इंकार करते हुए अपने प्राण दे दिए, मुक्ता साल्वे जो सावित्रीबाई फुले के स्कूल में पढ़ने वाली पहली दलित लेखिका थीं और 14 साल की उम्र में ब्राह्मणवाद पर तीखा लेख लिखा था, लक्ष्मी टम्टा जो कुमाऊं की पहली महिला ग्रेजुएट और पहली महिला संपादक थीं और दलित अधिकारों के पत्र सामना का संपादन किया था, फूलन देवी जिन्होंने व्यवस्थागत जातीय और मर्दवादी हिंसा का प्रतिकार कर खुद को न्याय दिलाया, और गेल ओमवेट जिन्होंने जाति, वर्ग, पितृसत्ता और इनके ख़िलाफ़ बाबासाहेब के लोकतांत्रिक इंकलाब को समझने के बुनियादी सैद्धांतिक सूत्र तैयार किये। एक कविता संग्रह इस तरह, अपने पुरखों की लड़ाइयों की याददिहानी का एक बड़ा दस्तावेज भी बन जाता है।
“मेरे पुरखे” कविता में मोहन के स्वर में खीझ, उदासी, आक्रोश और संघर्ष घुलामिला हुआ है। अपने पुरखों को याद करते हुए और एक तरह से उनकी याददिहानी को समकालीन यातना का बिंब बनाते हुए मोहन बताते हैं कि इतिहास विजेताओं का, जातीय श्रेष्ठियों का होता है, दलितों का इतिहास कौन लिखेगा और कौन जानेगा।
मैं ख़ुश हूं
कि मैं अपने पुरखों के बारे में नहीं जानता
मैं नहीं जानता
क्योंकि वो इतिहास में नहीं हैं
वो इतिहास में नहीं हैं
क्योंकि वो आक्रमणकारी नहीं थे
उन्होंने कोई नगर नहीं जीते
कोई गाँव नहीं जलाये
उन्होंने औरतों के बलात्कार नहीं किये
उन्होंने अबोध बच्चों के सर नहीं काटे
वो धर्माधिकारी नहीं थे
वो ज़मींदार नहीं थे
निश्चित ही वो लुटेरे नहीं थे।
(मेरे पुरखे।।।पृ 111)
***
समयांतर पत्रिका के दिसंबर 2021 अंक में, क्रिस्टॉफ़ जाफ्रलां की किताब के राजकमल से प्रकाशित अनुवाद- “भीमराव अंबेडकरः एक जीवनी, जाति उन्मूलन का संघर्ष एवं विश्लेषण” की, समीक्षा में मोहन मुक्त ने लिखा कि “भारत के बौद्धिक वर्ग में डॉ भीमराव आंबेडकर के व्यक्तित्व और उनके अवदान को लेकर आमतौर पर दो तरह का नज़रिया देखने को मिलता है। पहला उनकी उपेक्षा करता है और उन पर बात ही करना चाहता है, दूसरा उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान साम्राज्यवाद का पक्षधर और भारतीय संविधान में मामूली अथवा जमींदारों-पूंजीपतियों के पक्ष की भूमिका निभाने वाला बौद्धिक मानता है….एक तीसरा नजरिया भी है तो आंबेडकरवादी और कुछ नवबौद्ध दलित लेखकों द्वारा स्थापित होने की जद्दोजहद में है….लेकिन इस नजरिए के साथ सबसे बड़ी समस्या इसका आंबेडकर के आभामंडल से अत्यधिक प्रभावित होकर उनके प्रति अनालोचनात्मक हो जाना और तटस्थ न रह पाना है।” लेखक का कहना है कि आंबेडकर पर अपेक्षाकृत अधिक ठोस काम विदेशी अथवा विदेशी मूल के लेखकों द्वारा किया गया है।
मोहन मुक्त पहाड़ से और हिंदी में युवा दलित कविता के प्रखर स्वर के तौर पर जाने जा चुके हैं लेकिन इससे पहले, जैसा कि ऊपर एक जगह उल्लेख किया गया है कि वो पहाड़ी समाज में और वृहद् भारतीय समाज में दलितों की स्थिति और उनके ऐतिहासिक दमन और उन पर होते आ रहे सांस्कृतिक-राजनीतिक हमलों के बारे में शोधपूर्ण विशद् अध्ययनों, लेखों और सोशल मीडिया पोस्टों, ऑनलाइन वक्तव्यों के ज़रिए भी एक सार्थक धूम बनाते आ रहे हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों में तो उन्होंने जो तीक्ष्ण और भेदक प्रस्थापनाएं दी हैं और इतिहास में दफ्न तथ्यों को जिस मेहनत और तर्क के साथ सबके सामने रखा है, वो बहुत सिग्नीफिकेंट है और उस पर ग़ौर किया जा रहा है। लेकिन इससे भी अधिक नाइंसाफ़ी में साझेदार समझौतावादियों और यथास्थितिवादियों को चुनौती भी मिल रही है। ये अकेला बीड़ा मोहन ने उठाया है। ऐसा पहले उत्तराखंड में कभी नहीं हुआ। चुनौतियों और ढोल की सही मायनों में गूंज अब पता चली है। वरना तो पुरोहितगण ढोल को भी अपने कृत्रिम सागरों में हस्तगत कर बैठे थे।
ओह।।।
मेरे पास
मेरी अपनी कोई संस्कृति नहीं
तीज त्यार मेले संस्कार
देखा देखी नकल उधार
कोई उत्सव नहीं यहाँ
जो मेरे आह्लाद को व्यक्त कर सके
ये संस्कृति तो फिर मेरी संस्कृति नहीं होगी।
(कविता- मूल अधिकार, पृ 107)
***
पोस्टकलोनियल नज़रियों से दलित संघर्षों की छानबीन करने वाले निबंधों के सिलसिले में एक लेख गोपाल गुरू का है। “फॉर दलित हिस्ट्री इज़ नॉट पास्ट बट प्रेज़ेंट” शीर्षक वाले इस लेख में गोपाल गुरू कहते हैं कि दलितों का विस्थापन सिर्फ भौतिक या भौगोलिक (टैरीटोरियल) विस्थापन नहीं है और न ही ये सामाजिक और आर्थिक प्रभुत्व की हानि है, ये असल में उनके इंसानी वजूद का एक वृहद मॉरल नुकसान है। ब्राह्मणवाद की शुद्धता की प्रदूषित वैचारिकी ने दलितों को अभिशप्त बनाए रखने की साज़िशें की हैं। वे उनसे काम भी लेते हैं और उनसे नाक भौं सिकोड़ते हैं। और साया भी छू जाए तो कोहराम मचा देते हैं। ये जातिवाद के साथ-साथ रंगभेद भी है।
मोहन मुक्त की “काला बामण” कविता सात हिस्सों में बंटी हुई एक लंबी कविता है जिसमें दलित पुरोहित कहे जाने वाले दलितों के राग और उनकी वंचना और विडंबना को उजागर करते हैं जिनके जजमान केवल दलित होते हैं, कथित ऊंची जातियां उनकी सेवाएं नहीं लेती हैं। मोहन बताते हैं कि उत्तराखंड में दलित शिल्पकार समुदाय को ब्राह्मणीय सांस्कृतिक व्यवस्था में जकड़ने के लिए काला बामण संस्था बहुत अधिक ज़िम्मेदार प्रतीत होती है।
अरे यह तो ग़ज़ब हो गया
लोकतंत्र के दौर में
ओड़, ल्वार, बारुड़ी बनने लगा है बामण
ख़ास किस्म का बामण…काला बामाण
अरे तो क्या जातियां हो जाएंगी ख़त्म
गर्म उबलता बहता हुआ लावा
जब दुनिया की सबसे ठंडी चीज़ से टकराता है
तो ख़ुद भी हो जाता है ठंडा
फिर वह कुछ नहीं जलाता
ना टूटता है ना तोड़ता है
बेडौल सा पड़ा रहता है
हो जाता है इतना सख़्त कि…
ल्वार का आफर भी पिघला नहीं सकता उसे
शिल्पकार नहीं बना सकता इसमें कोई मूरत
जनेऊ के दायरे के भीतर खदबदाने वाले लावे के लिये
गाय का पेशाब ही सबसे ठंडी चीज़ होता है।
(पृ 128)
मीना कंडासामी ने हैदराबाद यूनिवर्सिटी में शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद एक क्षुब्ध आलेख में कहा था कि जब कोई दलित, कोई शूद्र, कोई आदिवासी, कोई बहुजन, कोई औरत अकादमिक जगत में अपना दावा ठोके तो हर एक घिनौनी जातिवादी शक्ति को सिहर कर सिकुड़ जाने दो, उन्हें महसूस होने दो कि हम उस सिस्टम को नेस्तनाबूद करने आए हैं जो हर हाल में हमारे लिए हर दरवाजा बंद करना चाहता है, कि हम अपने सपनों को छीनने की हिम्मत करने वालों को दुःस्वप्न देने आए हैं। उनका बौद्धिक वजूद भी वर्चस्ववादियों और वर्चस्वप्रेमियों को परेशान करता रहता है। उन्हें लगता है कि आखिर कोई दलित कैसे अकादमिक जगत की धवल शुद्ध प्रकांड ज्ञान से सिंचित भूमि पर आकर खड़ा हो सकता है।
“मेरा पहाड़???” कविता मे मोहन मुक्त बताते हैं-
मुंडा कोल
गोंड नाग
बौद्ध द्रविड़
या हड़प्पन बाद के
जो कोई भी थे मेरे पुरखे
उन्होंने कभी नहीं कहा…मेरा पहाड़
कम से कम रिकॉर्ड तो यही बताते हैं
अगर कहा भी हो
तो कैसे जानें
उनकी तो बची नहीं भाषा भी कोई
जो कुछ बच गया
उनकी भाषा का
वो गाली बन गया।।।
(पृ 63)
तो आखिर, मेरा पहाड़ मेरा पहाड़ की रट लगाते आ रहे लोग कौन हैं। मोहन मुक्त अपनी जातीय स्मृति और ऐतिहासिक सच्चाइयों से पर्दा उठाते हुए बताते हैं-
जो भी कहता है ‘मेरा पहाड़’
वो प्यार नहीं करता
वो जताता है दावा
जीती गई
लूटी गयी
छीनी गयी
कब्ज़ाई गयी
और बांटी गयी
ज़मीनों पर
जागीरों पर।।।
(पृ 64)
मलयाली और अंग्रेजी के वरिष्ठ कवि, के सच्चिदानंदन ने फिलस्तीनी युवा कवि आस्मा अज़ाज़ेह को एक साक्षात्कार में कहा कि हम जानते हैं साहित्य ने अरब क्रांतियों, कालों की जागरूकता, नारीवादी चेतना और फासीवाद विरोधी संघर्षों में अहम भूमिका निभाई थी। (https://www।modernliterature।org/poet-first-and-last-k- satchidanandan/) वो कहते हैं कि कविता कोई सीधी अपील की तरह काम नहीं करती बल्कि वो एक प्रति चेतना को आकार देती है और अप्रत्यक्ष रूप से अपना एक खास सौंदर्यबोध निर्मित करती है। अपनी मां को संबोधन, अपनी प्रेमिका को चिट्ठी, या एक पेड़ के गिरने पर कविता- ये सब एक राजनीतिक बयान भी हो सकते हैं। लेकिन जाहिर है समय समय पर कविता को प्रत्यक्ष और सीधा भी होना पड़ता है जैसे निजार कब्बी या नाजिम हिकमत की कविता है।
“कहाँ” कविता में कवि प्रेमिका से पूछता है-
वो कौन सी जगह है
इस धरती पर
जहाँ कुछ न हो
जात जैसा
कृत्रिम अनश्वर और स्थायी निरोध।।।
(पृ 57)
मोहन की एक बेमिसाल कविता कुंवर प्रसून पर है। कुंवर जी उत्तराखंड के जानेमाने यायावर पत्रकार एक्टिविस्ट थे। और सही मायनों में बहुजन चेतना के प्रतिनिधि थे। मोहन ने उन्हें बड़ी मोहब्बत से और गंभीरता से याद किया है और उनकी शख़्सियत के बहाने अपने परिचित अंदाज़ में पहाड़ के मठों, मठाधीशों और ब्राहमणवादियों की ख़बर भी ली है। यकीनन कुंवर प्रसून पहाड़ के एक गुमनाम नायक थे, संघर्षकर्ता थे और उन्हें परवाह नहीं थी सफलता या पद या धन या विलास या पुरस्कार की।
कविता की शुरुआती लाइनें ही हमें, हम मगन कुलीनों को हिलाने के लिए काफ़ी हैं-
कुंवर प्रसून।।।
एक ही तस्वीर मिल पाई है आपकी
हर किसी के पास एक ही तस्वीर
एक ही याद
एक ही चित्र
इस चित्र को मैं और बड़ा नहीं करूँगा
नहीं तो ये धुंधला जाएगा।।।
(पृ 58)
मोहन की करीब पांच पेज की ये कविता उत्तराखंड में जल, जंगल, ज़मीन के आंदोलनों, अभियानों और दूसरे जनांदोलनों की सच्चाइयों से रूबरू कराती है और बहुत से अदेखे अज्ञात छिपा दिए गए कोनों खुंजो तक बेधड़क जाती है। कुंवर प्रसून को किसी बड़े नामचीन की तरह नही बल्कि एक आदमी की तरह याद करती है, वो कुंवर प्रसून ‘जो आखिर तक आदमी ही बना रहा।’
***
पोलिश कवि चेस्लाव मिवोश ने कहा था, एक कमरे में जहां लोग साज़िशी चुप्पी ओढ़े रहते हैं, सच्चाई का एक शब्द पिस्तौल दागने जैसी आवाज़ करता है। मोहन की विख्यात कविता है नाज़ी।। जिसमें वो बताते हैं कि
नाज़ी जल्लाद नही होते
जल्लाद नाज़ी नहीं होते
जल्लाद श्रमिक होते हैं
नाज़ी श्रमिक नहीं होते
नाज़ी कसाई नहीं होते
कसाई नाज़ी नहीं होते
कसाई हमें भोजन देते हैं
नाज़ी भोजन नहीं देते
इसी कविता में वो आगे चलकर कविता के सरमाएदारों और अधिपतियों और सुभद्रजनों को ललकारते हुए कहते हैं-
अरे कविता के कब्ज़ेदारों
ओ भाषा के ज़मींदारों
अपने बिम्ब दुबारा देखो
जो इतिहास में हारा देखो
(पृ 50-51)
मोहन मुक्त की एक कविता है “स्मृति”। वो लिखते हैं।
वो क्या था।।।
कि चार होंठ पूरी कोशिश के बाद भी उसे गीला नहीं कर पाये
वो बहुत रूखा है
होंठो की
आंसुओं की
ज़िन्दगी की
या ख़ून की नमी भी
उसे नम नहीं कर पाती
वो जो नहीं होता नम और नम्र
प्यार और वासना की विभाजक लेकिन साझी नदी में डूबकर भी
क्या वो इस धरती की चीज़ है?
(पृ 47)
***
एक दिलचस्प चीज़ की ओर इस संग्रह को पढ़ते हुए ध्यान जाता है। मोहन अपनी कविताओं के शीर्षकों के बाद, और हर कविता के अंत में तीन डॉट लगाते हैं…मानो ये शीर्षक या वर्णन के कभी न खत्म होने वाले सिलसिले की ओर इशारा है, मानो ये है कि ये तीन बिंदु किसी नयी ज़मीन नये आयाम की ओर पाठकों का ध्यान दिला रहे होते हैं। मानो इन कविताओं की आस है ये, नये सिलसिलों की तलाश, नये दर्द नये सवालों की तलाश…मोहन मुक्त ने दलित मुखरता को नया आयाम दिया है। जैसे पंजाब मे चमार पॉप के ज़रिए लाल धीर और कुछ साल पहले गिनी माही ने एक नया दलित तूफ़ान खड़ा कर दिया था। उनके गाये गीत देश भर में दलित आंदोलनों का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और विदेशों में वे भी बड़े लोकप्रिय हैं। मोहन मुक्त के तीन डॉट मानो अमेरिकी जैज़ की तड़प को जगाती, सैक्सोफोन की फूंक हैं। मानो वो जैज और कालों की मिलीजुली पुकार के बिंदु हैं जो कई भाषाओं में, कई बोलियों में, कई अनाचारों और कई शोषणों में उद्दाम तौर पर हिलते डुलते रहते हैं। उनका मॉमेंटम नहीं टूटता, गति भंग नहीं होती।
दलित प्रश्न को निर्भीक और निस्संकोच होकर सामने लाने वाले कवि के रूप में मोहन पहले कवि-चिंतक नहीं हैं, उनकी विशिष्टता और ख़ूबी ये है कि उन्होंने अपने समय के महत्वपूर्ण दलित कवियों की परंपरा से होते हुए अपना एक अलग रास्ता अख़्तियार किया है जो जाति के सवालों पर अपर कास्ट से चुभते हुए और मर्मभेदी सवाल करता है, संस्कृति और वर्चस्व और ज्ञान और भाषा के स्थापित प्रतीकों और बिंबों को ध्वस्त करने का माद्दा रखता है और उसमें अहंकार नहीं खुदमुख्तारी है। वो पहाड़ और हिमालय की दलित जड़ों को तलाशता-भटकता, हिमालय की दलित पहचान को सामने लाता, तमाम हेजेमनीज़ को फटकारता, चुनौती देता, अपने अंतर्विरोधों और अपनी दुश्वारियों की शिनाख़्त करता एक कवि-योद्धा है, आत्मविश्वास और अध्ययन ही जिसके सबसे सशक्त हथियार हैं।
मोहन लिखता है-
ज़िंदगी में सब कुछ हो
लेकिन इंतज़ार ना हो
दुख ना हो
मलाल न हो
पछतावे की कुछ सिलवटें ना हो
तो समझना कि
ज़िंदगी अभी शुरू नहीं हुई।।।
(कविताः तत्व, पृ 110)
शुक्रिया मोहन। तुम्हारी कविताएं, प्रकट-प्रछन्न जंज़ीरों से दबीकुचली इंसानियत की, मुक्ति का गान हैं।
(समाप्त)
(शिवप्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और कवि हैं।)
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