आम चुनाव में नागरिकता पर बवंडर के बीच लोकतंत्र की फाइनल परीक्षा

कल भारत सरकार ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (Citizenship (Amendment) Act, 2019)‎ की अधिसूचना जारी कर दी है। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (Citizenship (Amendment) Act, 2019)‎ में निहित सरकार की नीयत को लेकर काफी भ्रम और विरोध रहा है। ध्यान देने की बात है कि कोविड के चलते न सिर्फ यह आंदोलन रुक गया था, बल्कि सरकार भी इस मामले में शांत पड़ गई थी। अब तक नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (Citizenship (Amendment) Act, 2019)‎ को लागू किये जाने की अधिसूचना नहीं हुई थी, कल 11 मार्च 2024 को हो गई। कोविड से बाहर निकलने के बाद सरकार की ओर से भ्रम और विरोध को दूर करने की कोई सार्थक कोशिश नहीं की गई।

लोकतंत्र में मतदाताओं को मतदान का अधिकार नागरिक की हैसियत से मिलता है। पिछली बार इस तरह के संकेत रहे थे कि मतदाता सूची में नाम होना नागरिकता का सबूत नहीं है। मतदाता पहचान पत्र (EPIC) या आधार कार्ड भी नागरिकता का प्रमाण नहीं हैं। जिस मतदाता पहचान पत्र (EPIC) ‎ के आधार पर पड़े वोट से सरकार बनी थी, सरकार उसी मतदाता पहचान पत्र (EPIC) को नागरिकता का प्रमाण मानने से हिचकिचा रही थी। यह हिचकिचाहट अपने-आप में बहुत बड़े भ्रम और विरोध का कारण था। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार भ्रम और विरोध दूर करने के बजाए टकराव में बने रहने को ‎चुनावी दृष्टि से अधिक फायदेमंद मानती है। नागरिकता के सवाल को भारत की चुनावी ‎राजनीति में कभी भी इस तरह से नहीं घसीटा गया था।

असल में जाति और धर्म दोनों ही आधारों पर वोटों के ध्रुवीकरण के लिए यह सब किया जाता है। इसे गर्व से ‘सोशल इंजिनियरिंग’ कह जाता है। यह ‘सोशल इंजिनियरिंग’ मतदाताओं को भ्रमित करने के कपट के अलावा कुछ नहीं होता है। इसका इलाज पॉलिटिकल इंजिनियरिंग है। यह ठीक है कि ऐतिहासिक आइने में रहनिहार या अधिवासी और राष्ट्रीयता, नागरिकता में अंतर रहा है। इस पर बहुत सारी चर्चा-परिचर्चा मिल जायेगी। राजतंत्रात्क राज्यों में नगर में रहनेवाले अभिजात (Elite) लोगों को ही नागरिक माना जाता था। लोकतांत्रिक मूल्यों के अपनाव के साथ रहनिहार या अधिवासी और राष्ट्रीयता पर बहस किये बिना नागरिकता के मसले को हल हो चुका है।

भारत की संविधान सभा में भी इन मुद्दों पर सम्यक चर्चा-परिचर्चा के बाद नस्ल या धर्म विमुक्त तथा सार्वभौम नैतिक मानदंडों एवं मानवाधिकारों से संपन्न मूल्यों को ध्यान में रखते हुए नागरिकता के मसले को हल किया गया है। लेकिन, आज फिर इसे नये सिरे से वोट के बवंडर का आधार बनाया जा रहा है। वोट के लिए बवंडर खड़ा करनेवाले तो आदिवासी और वनवासी तक का फर्क नहीं जानते हैं। मोटे तौर पर आदिवासी वह होता है, जो एक खास परिस्थिति में हजारों साल से पीढ़ी-दर-पीढ़ी रहता आया है। वनवासी तो वन में जाकर रहनेवाला कोई भी हो सकता है। ‘रहते आनेवालों’ में और ‘जाकर रहनेवालों’ में ये फर्क नहीं करते है। क्यों नहीं करते, यह भी एक लंबी कहानी है।

पूरी दुनिया में जो चल रहा है वह अपनी जगह। हमारे देश में, हमारे आज के ‘भाग्य विधाता’ और उनके संघों के द्वारा उन विवादों को ‎फिर से उखाड़ा जा रहा है, जिन्हें आजादी के आंदोलन के संघर्ष के दौरान हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने समझकर सुलझा लिया था। इन मसलों का हल हमारे राष्ट्र निर्माता निकाल चुके थे। उस भयानक दौर में भी जब नस्ल या धर्म आधारित राष्ट्रवाद के दबाव में दुर्भाग्यजनक देश विभाजन को रोका न जा सका था। हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने सार्वभौम नैतिक मानदंडों एवं मानवाधिकारों से संबंधित मूल्यों पर उस दुर्भाग्य का प्रतिदर्श प्रभाव (Mirror Effect) नहीं पड़ने दिया।

नस्ल या धर्म विमुक्त राष्ट्रवाद के सार्वभौम नैतिक मानदंडों एवं मानवाधिकारों से संबंधित मूल्यों के लिए दुनिया में एक सर्वथा नए किस्म के राष्ट्रवाद के साथ भारत ‎ उभरा था। शीत युद्ध के भयानक दौर में गुट निरपेक्ष आंदोलन की नैतिक ताकत बनने के योग्यता भारत को अपने इसी नये किस्म के राष्ट्रवाद से मिल रही थी। दुनिया में गुट निरपेक्ष आंदोलन का वैश्विक कूटनीति और विश्व परिस्थिति पर क्या सकारात्मक प्रभाव पड़ा यह अलग से विचारणीय है।

इस बीच विश्व राजनीति, कूट नीति, व्यापार नीति आदि में जल-थल बदलाव (Sea Change) आने लगा। राजनीति में दक्षिण-पंथी रुझान बढ़ने लगा। राजनीति में दक्षिण-पंथी रुझान जब नस्ल या धर्म आधारित वैचारिकी बनाती है तो उसकी अनिवार्य परिणति फासीवाद में होती है, इसके सबसे बड़ा उदाहरण के रूप में हिटलर की संहारक नीतियों में दुनिया न देखी है। असल में, फसीवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसकी राजनीति समाज में समानता, ‎लोकतंत्र या सार्वभौम मानव मूल्यों के प्रति जरा भी सम्मान नहीं रखती है। बल्कि कहना चाहिए कि उनके प्रति हमेशा शत्रुता, युद्ध और संघर्ष की मुद्रा में बनी रहती है।

भारत में नस्ल या धर्म आधारित राष्ट्रवाद की ‘चेतना’ अपनी शीत-निष्क्रियता में पड़ी रही और धीरे-धीरे ताकत संजोती रही। घरेलू और वैश्विक राजनीतिक परिस्थिति में भय-भ्रष्टाचार की ‘द्वाभा’ में ‘जगमगा’ उठी। धीरे-धीरे इनकी सुगबुगाहट तेज होने लगी और आज यह इतनी ताकतवर हो गई है कि जनता से प्राप्त ताकत का फासीवादी इस्तेमाल जनता के विरुद्ध करने पर आमादा रहती है। क्या, आम नागरिकों में से अधिकतर की सहज बुद्धिमत्ता (Common Sense) को भी इन सुगबुगाहटों ने अपनी अनैतिक ताकतों की चपेट में ले लिया है?

हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने देश विभाजन का दुर्भाग्य के प्रतिदर्श का प्रभाव (Mirror Effect) हमारे लोकतंत्र और नागरिकता के सवाल पर नहीं पड़ने दिया, इसकी ताकत और प्रेरणा उन्हें भारत की अदम्य संस्कृति और गूढ़ दर्शन के साथ इतिहास से भी मिल रही थी। भारत में दक्षिण-पंथी राजनीति आज जो प्रयोग ‎कर रही है उसमें हमारे लोकतंत्र की गहन परीक्षा है। कहने की जरूरत नहीं है कि भारत के लोकतंत्र को इन दिनों प्रयोग और परीक्षा‎ के दौर में हांककर ले आया गया है। इसलिए, आजादी के आंदोलन, खासकर 1857 के स्वातंत्र्य समर को याद करना चाहिए। फिर कहूं, इस प्रयोग और परीक्षा‎ को ठीक से ‎‎समझने के लिए भारत की आजादी के आंदोलन को उसकी अग्रता में नहीं, समग्रता में याद जरना जरूरी है।

मोटे तौर पर, सत्ता-च्युत मुगल सल्तनत को फिर से सत्तासीन करना‎ 1857 की क्रांति की अंतर्निहित आकांक्षा थी। बहुत सावधानी से, यह समझना जरूरी कि इस देश के सिंहासन पर बहादुरशाह को फिर से प्रतिष्ठित करनी की आकांक्षा में ‘‎पहलेवाली मुगल’ सत्ता की प्रतिष्ठा का सवाल नहीं था। यह लंबे समय से चले आ रहे हिंदु-मुसलमान के ‎बीच युद्ध और संघर्ष, संघर्ष और शत्रुता की समाप्ति और सह-अस्तित्व के पारस्परिक सम्मान ‎और समर्पण की स्वीकृति की प्रतिष्ठा थी।

ध्यान देने की बात है कि हिंदुस्तान के सिंहासन पर ‎बहादुरशाह को फिर से प्रतिष्ठित ‎करने की आकांक्षा किसी पारस्परिक युद्ध और संघर्ष का परिणाम से नहीं निकली थी। पारस्परिक शांति और सहमेल की समझ और सहानुभूति की कोख से यह आकांक्षा निकली थी। इस मार्मिक प्रसंग पर ध्यान देने ‎की जरूरत पहले कहीं ज्यादा आज है। 1857 की क्रांति के नेतृत्व का प्रस्ताव स्वीकार करने के पहले बहादुरशाह ने सिपाहियों को वेतन ‎देने लायक खजाना में धन नहीं होने की बात साफ-साफ कह दी थी। प्रस्ताव रखने वाले हिंदू-मुसलमान ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे युद्ध और ‎संघर्ष के दौरान अंग्रेजों का खजाना लूटकर, न सिर्फ अपना खर्चा निकाल लेंगे, बल्कि शाही ‎खजाने कि विपन्नता भी समाप्त कर देंगे। इस भरोसे पर बहादुरशाह ने नेतृत्व स्वीकार किया ‎था और देश को अपना भरोसा दिया था।

यह दुखद प्रसंग है, और सच है कि 1857 की क्रांति बहादुरशाह को फिर से भारत के सिंहासन पर प्रतिष्ठित ‎करने में ‎सफल न हो पाई। सुखद यह है कि लंबे समय से चले आ रहे हिंदु-मुसलमान के ‎बीच युद्ध और संघर्ष की ‎समाप्ति हो गई और सह-अस्तित्व के पारस्परिक सम्मान ‎और समर्पण की स्वीकृति भी प्रतिष्ठित हो गई। जिसे तोड़ने के लिए अंग्रेज शासकों ने भारतीय लोगों का इस्तेमाल करते हुए कोई कसर नहीं छोड़ी।

अंग्रेज तो इस बात पर अचंभित भी थे और डरे हुए भी कि सालों से जिन मुसलमानों ने हिंदुओं को सताया था उन मुसलमानों के साथ मिलकर हिंदुओं के मन में अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़ फेंकने और बहादुरशाह को सिंहासन पर प्रतिष्ठित करने की आकांक्षा क्यों और कैसे पनप गई! ‎क्यों 1857 की क्रांति सफल नहीं हो पाई? यह एक अलग और उलझन भरी कहानी है। ‎दुखद भरी कहानी यह कि 1857 में हासिल हिंदु-मुसलमान की पारस्परिक समझ, सहानुभूति और समर्पण को तोड़ने में वे देश के लोगों को मिलाकर कुछ-न-कुछ सफल तो हो ही गए, देश का विभाजन हो गया।

जंग जीतकर सत्ता हासिल करने के सपनों के मलवे के नीचे दबे या पराजय की गहरी खाई में पड़े किसी इंसान के दिल में ‘कू-ए-यार में दफ्न के लिए दो गज जमीन न मिलने की बदनसीबी’ की ऐसी हूक उठ ही नहीं सकती! उसे अपने ‘बिगड़े हुए नसीब, उजड़े हुए दयार और एक मुश्त गुबार होने का बोध’ या मुल्क के भरोसे को कामयाब न बना पाने का अफसोस और निरर्थकता बोध जितना भी हुआ हो, अंग्रेज जेलर के यह कहने पर कि ‘दमदमे में दम ‎नहीं है ख़ैर माँगो जान की, ऐ ज़फर ठंडी हुई अब तेग हिंदुस्तान की’ के जवाब में यह कहने ‎का हौसला और हुलास तो उस में बचा ही हुआ था कि ‘ग़ाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख़्त ए लंदन तक चलेगी तेग ‎हिंदुस्तान की’।

इतिहास गवाह है कि सहमति-असहमति के बीच ‘तख़्त ए लंदन तक तेग’ भी चलती रही और महात्मा गांधी का सत्य के साथ प्रयोग भी चलता रहा। ‘झूठ के प्रयोग’ की समकालीन प्रक्रिया के दौर का मुकाबला इस ऐतिहासिक बहुमूल्य जज्बा, हौसला और हुलास के साथ किया जा सकता है, जरूर किया जा सकता है। भारत के लोकतंत्र के पास ‘सत्य के साथ प्रयोग’ के अनुभव की ताकत है, भारत का लोकतंत्र ‘झूठ के प्रयोग’ पर आमादा लोगों की हवा अंततः निकाल देगा।

सामने 2024 का आम चुनाव है। केंद्रीय चुनाव आयोग में इस समय अकेले मुख्य चुनाव ‎आयुक्त, राजीव कुमार हैं। अनूप पांडे सेवा निवृत्त हो चुके हैं और अरुण गोयल इस्तीफा दे चुके ‎हैं। सवाल यह नहीं है कि केंद्रीय चुनाव आयोग में नए आयुक्तों की नियुक्ति हो जायेगी। अब ‎नियुक्ति के सारे अधिकार सरकार के हाथ में है। फिर भी इतना विलंब हो गया है। ‘तेजी से काम’ ‎करने के उदाहरण के रूप में अरुण गोयल की नियुक्ति हुई थी! वह तत्परता अब कहां गायब है!

इधर ‎सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भारतीय स्टेट बैंक को अंततः चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎ से ‎संबंधित ब्योरा आज, 12 मार्च 2024 की शाम तक चुनाव आयोग को सौंपना है। भारतीय स्टेट बैंक से प्राप्त ब्योरा को ‎चुनाव आयोग 15 मार्च 2024 या उसके पहले अपने पटल पर सार्वजनिक ‎जानकारी के लिए उपलब्ध करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से आदेशित है। ‎

इन कठिन परिस्थितियों का आकलन और भविष्य का अनुमान करते कुछ विशिष्ट विश्लेषकों को चुनाव के फिलहाल टल जाने तक की आशंका हो रही है। ऐसा नहीं होगा। उन्हें हर हाल में ‘चार सौ के पार’ जाना है। चुनाव न होगा तो ‎‘चार सौ के पार’ ‎कैसे पहुंच पायेंगे? इस के लिए, चुनावी राजनीति में चाहे जो, जो भी, करना पड़े पचकेजिया मोटरी-गठरी देनेवाला ‘कल्याणकारी राज्य’ चुनाव के मैदान में उतरने से नहीं कतरायेगा। क्योंकि, ‎‘चार सौ के पार’ ‎जाने की आकांक्षा के पीछे उस संविधान के बोझ से मुक्त होने की इच्छा है, जिस संविधान ने नारा लगाते-लगाते ‘नारायण’ बनने की सहूलियतें दी! इस समय मुख्य नागरिक कर्तव्य तो यह है कि ‎‘चार सौ के पार’ ‎जाने की आकांक्षा ‎को ठीक से समझे और अपने मतलब के ‘मतबल’ का अनुमान कर हित साधे, अपना भी और देश का भी। इस आम चुनाव में नागरिकता पर बवंडर के बीच ‎लोकतंत्र की फाइनल परीक्षा है, ध्यान देने की बात है कि अगला दौर सभी लिहाज से ‘फाइनल सोल्युशन’ का हो सकता है। ‎

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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