कहां फंसी सोवियत संघ की समाजवादी गाड़ी और चीन ने कैसे मारी बाजी

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चीन की कम्युनिस्ट (सीपीसी) पार्टी ने बीते एक जुलाई को जब अपनी सौवीं सालगिरह मनाई, तो दुनिया में ये सवाल एक बार फिर उभरा कि जब समाजवाद के अपने सात दशकों के प्रयोग के बाद अगर सीपीसी प्रासंगिक बनी हुई है, तो आखिर क्यों लगभग इतनी ही अवधि में सोवियत संघ का प्रयोग बिखरने के कगार पर पहुंच गया था? गुजरे तीन दशकों में सोवियत संघ के बिखराव पर असीमित चर्चा हुई है। उसमें पूंजीवादी देशों और तीसरी दुनिया में उनके पिछलग्गू शासक वर्ग की चर्चाओं को हम नजरअंदाज कर सकते हैं। लेकिन जिन लोगों की समाजवाद के आदर्श और मूल्यों में आस्था अटूट रही है, उनके बीच सोवियत संघ के आखिरी वर्षों के अनुभव को लेकर हुए गहन विचार-विमर्श पर हमें जरूर गौर करना चाहिए।

बेशक, सिलसिले में जिन आर्थिक कारणों का उल्लेख हुआ है, वे महत्त्वपूर्ण हैं। उन पर हमें अवश्य ध्यान देना चाहिए। मसलन, यह कि समाजवादी निर्माण के शुरुआती वर्षों की तुलना में 1970-80 के दशकों के आते-आते सोवियत संघ की आर्थिक वृद्धि दर में काफी गिरावट आ गई थी। कंप्यूटर विज्ञान के शिक्षक पॉल कॉकशॉट ने कुछ वर्ष पहले आई अपनी किताब हाउ द वर्ल्ड वर्क्स में सोवियत संघ के आर्थिक उतार-चढ़ाव का एक लेखा-जोखा पेश किया था। उसके मुताबिक 1930 से लेकर 1970 तक (दूसरे विश्व युद्ध के वर्षों को छोड़ कर) सोवियत संघ ने तीव्र आर्थिक वृद्धि दर्ज की। इसकी सीधी वजह यह थी कि इस अवधि की शुरुआत में सोवियत संघ एक कृषि प्रधान समाज था। ऐसे में जब नियोजित ढंग से उसका औद्योगिक तथा तकनीक सक्षम अर्थव्यवस्था में रूपातंरण हुआ और साथ ही वह एक सैनिक महाशक्ति बना, तो उस काल में असाधारण रूप से तीव्र आर्थिक विकास होना एक स्वाभाविक परिघटना थी।

स्टालिन।

लेकिन यह गौर करने की बात है कि कोई भी अर्थव्यवस्था जब विकास का एक खास स्तर प्राप्त कर लेती है, तो उसके बाद वह अपने विकासक्रम के प्रारंभिक दौर में हासिल की गई वृद्धि दर को जारी नहीं रख सकती। तो 40 वर्षों तक पूरे गणराज्य का कायापलट करने के बाद सोवियत संघ में भी आर्थिक वृद्धि धीमी हुई। लेकिन ये ध्यान देने की बात है कि ये धीमी वृद्धि दर (2.5 प्रतिशत) भी उस समय अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों की तुलना में अधिक तेज थी।

अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर धीमी होने की एक और बड़ी वजह सोवियत संघ पर पश्चिमी पूंजीवादी देशों की तरफ से लगाए गए प्रतिबंध थे। इन प्रतिबंधों की वजह से जो भी टेक्नोलॉजी उन धनी देशों में विकसित हुई थी, उससे सोवियत संघ वंचित हो गया। जब कि लगभग उसी समय अमेरिका ने सुनियोजित रणनीति के तहत सोवियत संघ को हथियारों की होड़ में उलझा दिया था। इस रणनीति को आकार देने में रिचर्ड निक्सन के समय विदेश मंत्री रहे हेनरी किसिंजर की खास भूमिका रही थी। इसी रणनीति पर आगे बढ़ते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन ने स्टार वॉर कार्यक्रम लॉन्च किया था।

तब अपनी सुरक्षा की चिंता में सोवियत संघ को हथियारों की होड़ में अपने को झोंकना पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि उसके आर्थिक संसाधनों का बड़ा हिस्सा इसमें लग गया। सैनिक दुस्साहस का परिचय देते हुए अपनी फौज को अफगानिस्तान भेजने के सोवियत फैसले का भी इसमें खास योगदान रहा। लेकिन सकल परिणाम यह हुआ कि तकनीक के अनवरत विकास के लिए जिस वित्तीय और मानव प्रतिभा के निवेश की जरूरत थी, उसमें सोवियत संघ पिछड़ गया। इसका सोवियत अर्थव्यवस्था के निरंतर आधुनिकीकरण के तकाजे पर बुरा असर पड़ा।   

इसी पृष्ठभूमि में मिखाइल गोर्बाचेव 1985 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के  महासचिव बने। उसके बाद उन्होंने अपनी बहुचर्चित ग्लासनोश्त (खुलेपन) और पेरेस्त्रोइका (पुनर्निर्माण) की नीतियों पर अमल शुरू किया। लेकिन तब तक सोवियत संघ में विचारधारात्मक जमीन काफी क्षीण हो चुकी थी। खुद गोर्बाचेव समाजवादी प्रतिबद्धता से लैस थे या नहीं, ये सवाल बीते तीन दशकों में बार-बार उठता रहा है। ग्लासनोश्त और पेरेस्त्रोइका के जरिए वे कैसा समाज बनाना चाहते थे, ये उन्होंने कभी स्पष्ट नहीं किया।

कम से कम यह तो कहा ही जा सकता है कि उनकी चाहे जो भी परिकल्पना रही हो, लेकिन उसको लेकर जनता को जागरूक करने और उसके पक्ष में आम जन को आवश्यक मिशन मोड में लाने के लिए उन्होंने कोई प्रयास नहीं किए। नतीजा, यह हुआ कि सोवियत समाज में एक नया भटकाव आ गया, जबकि 1950 के दशक में जोसेफ स्टालिन की मृत्यु के बाद उनकी विरासत से खुद को मुक्त करने की जो कोशिश सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने की थी, उससे पैदा हुआ भटकाव अब तक खत्म नहीं हुआ था।

बहरहाल, अभी हम बात आर्थिक पहलुओं की कर रहे थे। गोर्बाचेव सरकार ने समस्या की ये सही पड़ताल की कि सोवियत संघ में शराब पीने की बुराई हद से ज्यादा बढ़ गई है। इस बुराई का असर वहां के लोगों की सेहत पर पड़ रहा था। साथ ही इस कारण काम से गैर हाजिर रहने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ती चली गई थी। इस समस्या का एक झटके में समाधान ढूंढने की कोशिश में गोर्बाचेव सरकार ने पूरे देश में शराबबंदी लागू कर दी।

ऐसा उस समय किया गया, जब आर्थिक विकास दर गिरने के कारण टैक्स राजस्व में गिरावट आई हुई थी। शराबबंदी से सरकार के टैक्स राजस्व को अचानक बड़ा झटका लगा। जबकि इसका समाज को कोई लाभ नहीं हुआ, क्योंकि शराब का एक बड़ा अवैध मार्केट उभर आया और अपराधी गिरोह इस कारोबार से धनी होने लगे। बताया जाता है कि ये गिरोह ही उस भीड़ का बड़ा हिस्सा बने, जिसने सोवियत संघ के आखिरी दिनों में सड़कों पर लोगों को जुटाया और व्लादीमीर लेनिन की प्रतिमाओं सहित अन्य कम्युनिस्ट प्रतीकों पर सामूहिक हमले किए।

यहां ये रेखांकित करने की बात है कि सोवियत संघ में टैक्स सिस्टम ऐसा था, जिसमें कर कंपनियों के कुल कारोबार पर लगता था। यानी कंपनियों का जो टर्नओवर होता था, उसका एक हिस्सा वे टैक्स के रूप में सरकार को देती थीं। उत्पादन के साधनों पर खुद सरकार का स्वामित्व था। इसलिए कॉरपोरेट टैक्स या व्यक्तिगत आय कर से राजस्व बढ़ाने की गुंजाइश सरकार के पास नहीं थी।

पॉल कॉकशॉट ने कहा है कि जब शराबबंदी के कारण राजस्व का भारी नुकसान हुआ, तब गोर्बाचेव सरकार अन्य उत्पादों पर टैक्स बढ़ा कर उसकी भरपाई कर सकती थी। लेकिन तब तक सोवियत संघ में नव उदारवादी विचारों वाले प्रबंधक काफी प्रभावशाली हो चुके थे। ये प्रबंधक काफी समय से ऐसी दलीलें दे रहे थे कि सरकार को उद्यमों की स्वतंत्रता में दखल नहीं देना चाहिए। प्रबंधक ही बेहतर आर्थिक प्रबंधन जानते हैं, इस पूंजीवादी सोच में उनकी पूरी आस्था बन चुकी थी। गोर्बाचेव सरकार भी उनके प्रभाव में थी। इसलिए उसने कंपनियों के राजस्व को उनके पास ही छोड़ देने का तर्क मान लिया। इसका खराब असर राजकाज पर पड़ा।

राजकोषीय संकट के कारण देश में महंगाई बढ़ी। जरूरी चीजों का अभाव पैदा हुआ। इससे लोगों में नाराजगी फैली। दूसरी तरफ कंपनियों के पास धन को बेहिसाब छोड़ देने का नतीजा हुआ कि प्रबंधकों ने जम कर गबन किया। इस घटनाक्रम से ठीक पहले गोर्बाचेव सरकार ने श्रमिक सहकारिताओं (worker cooperatives) को स्वतंत्र रूप से कारोबार करने की इजाजत दे दी थी। लेकिन उसकी निगरानी की कोई उचित व्यवस्था नहीं की गई। इसका लाभ भी भ्रष्ट अधिकारियों और व्यापारियों ने उठाया। उनके भ्रष्टाचार से पूरा सिस्टम बदनाम हुआ। इन सबका भी लोगों में सोवियत व्यवस्था से मोहभंग पैदा करने में खास योगदान रहा।

दूसरी तरफ राजस्व की कमी से राजकोषीय संकट पैदा हुआ। तब सरकारी कामकाज को चलाने के लिए सोवियत सरकार केंद्रीय बैंक को अतिरिक्त मुद्रा की छपाई करने का आदेश देना पड़ा। लेकिन मुद्रा की छपाई के साथ उचित आर्थिक विकास ना होने की वजह से मुद्रा की अधिकता का परिणाम महंगाई और सोवियत अर्थव्यवस्था में लोगों का भरोसा घटने के रूप में सामने आया। ये सभी घटनाएं सोवियत व्यवस्था के ढहने की वजह बनीं। लेकिन ऐसा होना अवश्यंभावी नहीं था।

इसलिए कि असल में सोवियत व्यवस्था में ऐसी बहुत सी खूबियां थीं, जो पूंजीवादी देशों में नहीं थीं। मसलन, रोजगार की गारंटी, सबकी मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल, बेहद सस्ता परिवहन, कर्मचारियों को सवैतनिक अवकाश और उनके मनोरंजन की व्यवस्था ऐसी खूबियां थीं, जिनको लेकर सोवियत सिस्टम में लोगों का भरोसा कायम रखा जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, तो उसके कारण सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की वैचारिक शून्यता में छिपे थे।

इस सिलसिले में यह तथ्य भी उल्लेख के काबिल है कि अमेरिका में भी श्रमिक वर्ग और मध्य वर्ग की वास्तविक आय 1970 के बाद ठहराव का शिकार हो गई थी। आज यह बात हर अमेरिकी अर्थशास्त्री मानता है कि पिछले चार से पांच दशक में अमेरिका में कामकाजी वर्ग की वास्तविक आय नहीं बढ़ी है। इसका साफ मतलब है कि वहां नई टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से जो धन पैदा हुआ, वह चंद गिने-चुने धनी लोगों के पास इकट्ठा होता चला गया है। यह रुझान 2010 तक आते-आते इतना साफ हुआ कि अमेरिका और बाकी पूंजीवादी देशों में 99 फीसदी बनाम एक फीसदी की बहस खड़ी हो गई।

फिर यह भी गौरतलब है कि जिस तरह के नव-उपनिवेशवादी शोषण का बाजार अमेरिका और दूसरे पूंजीवादी देशों को उपलब्ध था, वैसा सोवियत संघ के पास नहीं था। ऐसे में सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर अगर धीमी हुई, तो उसे सकारात्मक ढंग से देखा और पेश किया जा सकता था। हकीकत यह है कि सोवियत संघ में आर्थिक वृद्धि दर धीमी होने का खामियाजा सिर्फ कामकाजी वर्ग को नहीं भुगतना पड़ा। बल्कि नौकरशाही, प्रबंधकीय और बुद्धिजीवी तबकों की आय और सुविधाएं भी इससे सीमित हुईं। यानी पूंजीवादी देशों की तरह यह नहीं हुआ कि धनी तबके धनी होते जाएं और कामकाजी वर्ग आर्थिक गतिरोध का शिकार हो जाए।

किसी समाज में जनमत बनाने में बुद्धिजीवी, प्रबंधकीय और नौकरशाही  तबकों की भूमिका सबसे अहम होती है। तमाम अध्ययनों से कृत्रिम ढंग से सहमति और असहमति गढ़ने और पॉलिटिकल नैरेटिव बनाने में उनकी क्षमता अब जग जाहिर हो चुकी है। तो इन तबकों ने सोवियत संघ में आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट को व्यवस्था के ठहराव के रूप में चित्रित किया। इन तबकों की पहुंच पश्चिमी यानी पूंजीवादी देशों के मीडिया और वहां चलने वाले विमर्श तक थी। वहां जिस रूप में सोवियत संघ और दूसरे समाजवादी देशों की छवि गढ़ी गई थी, ये तबके काफी समय पहले उसमें यकीन करने लगे थे। गोर्बाचेव की ग्लासनोस्त नीति ने उन्हें अपने उस यकीन को लेकर पॉलिटिकल नैरेटिव बनाने और सोवियत जनता तक उसे प्रचारित करने का मौका दे दिया।

नतीजा हुआ कि सोवियत जनता का एक बड़ा हिस्सा अपने को पूंजीवादी दुनिया से पिछड़ा समझने लगा। पश्चिमी दुनिया की उपभोक्तावादी संस्कृति उन्हें आकर्षित करने लगी। उनमें ये धारणा फैलने लगी कि समाजवादी सिस्टम ने उन्हें दुनिया के उस सुख से दूर कर रखा है। पूंजीवाद की कथित आजादी और उपभोग के अवसर उन्हे सच्चे और सार्थक लगने लगे। उन्हें लगने लगा कि खुले बाजार की अर्थव्यवस्था ही आदर्श है। इन सबके कारण सोवियत व्यवस्था के पांव के नीचे से जमीन खिसकने लगी थी, जिससे 1991 आते-आते ये व्यवस्था भरभरा कर गिर पड़ी।  

लेकिन इस बात को दोहराने की जरूरत है कि ऐसा होना अवश्यंभावी नहीं था। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि वैचारिक या विचारधारात्मक रूप से सोवियत संघ पहले ही भटकाव का शिकार हो चुका था। किसी समाज की अर्थव्यवस्था जब विकसित होती है, तो उसके साथ मध्य वर्ग और प्रबंधकीय वर्ग का उदय होता है। यह वर्ग अपने स्वभाव में सुविधाभोगी होता जाता है। अगर उन लोगों पर किसी विचारधारा का प्रभाव ना हो अथवा यह कहें कि उन्हें किसी विचारधारा में सघन प्रयास से दीक्षित नहीं किया गया हो, तो अपने वर्ग चरित्र के हिसाब से ये तबके श्रमिक वर्ग के विरोधी होते चले जाते हैं। धीरे-धीरे वे अपना हित शासक वर्ग से जुड़ा देखने लगते हैं।

एक भूमंडलीकृत (ग्लोबलाइज) होती दुनिया में दुनिया भर के ऐसे तबके अपने हित वैश्विक शासक वर्ग से जुड़ा देखने लगते हैं। इस नजरिए से स्वाभाविक रूप से समाजवाद और साम्यवाद उत्पीड़क विचार और सिस्टम दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि इस विचार और सिस्टम में सबको समान समझने और बराबरी लाने की अंतर्निहित प्रेरणा होती है। चीन में माओत्से तुंग ने इस बात को समझा था। इसीलिए उन्होंने क्रांति के अंदर क्रांति (revolution with in revolution) की बात कही थी। यानी उन्होंने क्रांति को सतत प्रक्रिया माना था। ऐसी प्रक्रिया जो किसी जगह पर जाकर पूर्ण या समाप्त नहीं होती। द्वंद्ववाद (dialectics) की भी असल में यही शिक्षा है।

सोवियत संघ में इस बात को न सिर्फ भुला दिया गया, बल्कि वहां खुद अपनी उपलब्धियों को लांछित किया गया। निकिता ख्रुश्चेव के युग में जब जोसेफ स्टालिन की विरासत से सोवियत संघ ने अपने को अलग किया, तो उसका यह भी मतलब था कि स्टालिन के दौर तक की तमाम उपलब्धियों पर भी परदा डाल दिया गया। साथ ही इससे सोवियत जनता के एक बड़े हिस्से में भ्रम पैदा हुआ। अगर खुद सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अक्टूबर क्रांति (1917) के पहले 35 वर्ष के इतिहास को बदनाम करने पर तुले हुए थे, तो लोगों में पूरे कम्युनिस्ट दौर को लेकर भ्रामक स्थिति बनना लाजिमी ही था।

सोवियत संघ क्यों बिखरा? इस सवाल पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव शी जिनपिंग ने जो समझ रखी, उस पर ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है। शी ने ये बात 2013 में पार्टी का महासचिव बनने के बाद अपने एक भाषण में कही थी। उन्होंने कहा-

‘सोवियत संघ क्यों बिखरा? सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी खंड-खंड क्यों हो गई? इसका महत्त्वपूर्ण कारण विचारधारात्मक क्षेत्र में छिपा है। वहां सोवियत यूनियन के ऐतिहासिक अनुभव का पूरी तरह से परित्याग करने की होड़ लग गई, लेनिन का परित्याग करने और स्टालिन का परित्याग करने की इस होड़ से सोवियत विचाराधारा में अफरातफरी मच गई। समाज ऐतिहासिक नकारवाद (nihilism) में उलझ गया। इससे हर स्तर पर पार्टी संगठन ऐसा हो गया कि वह शायद ही कोई काम करने योग्य बचा। इससे सेना का नेतृत्व करने की पार्टी की क्षमता क्षीण हो गई। अंतिम परिणाम यह हुआ कि सीपीएसयू (सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी) जो एक महान पार्टी थी, भयभीत जानवरों की तरह बिखर गई। सोवियत संघ जो एक महान देश था, वह दर्जनों टुकड़ों में बंट गया। अतीत का यही सबक है।’

इसके बाद शी ने देंग श्य़ाओ पेंग को उद्धृत करते हुए कहा- ‘कॉमरेड देंग श्याओ पेंग ने ध्यान दिलाया था कि माओत्से तुंग विचार (Thought) का परित्याग नहीं किया जा सकता। उस बैनर को छोड़ने का मतलब (चीनी कम्युनिस्ट) पार्टी के गौरवशाली इतिहास को नकारना होगा। सामान्य रूप से कहें, तो पार्टी आज भी गौरवशाली है। हालांकि हमारी पार्टी ने कुछ बड़ी गलतियां की हैं जिनमें सांस्कृतिक क्रांति जैसी बड़ी गलती भी है, लेकिन अंततः हमारी पार्टी ने क्रांति को सफल बनाया है।’

सांस्कृतिक क्रांति (1966-76) चीन के इतिहास का एक विवादास्पद अध्याय है। देंग और शी ने उसे बड़ी गलती माना है, जबकि बहुत से लोग उसे उपलब्धियों से भरा एक ऐसा दौर मानते हैं, जिसमें गलतियां भी हुईं। लेकिन यहां मुद्दा वह नहीं है। यहां काबिल-ए-गौर बात पार्टी के पूरे इतिहास को आत्मसात करने और स्वीकार करने की है। इसका परिणाम है कि आज चीनी समाज में वैसा कोई वैचारिक भ्रम नहीं है, जैसा सोवियत संघ में 1953 के बाद बढ़ता चला गया। माओ का नाम लेना चीन में जुर्म नहीं है, बल्कि पूरी पार्टी और पूरा देश उन्हें गर्व और आदर से याद करता है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपने देश को समृद्धि और मजबूती की तरफ ले जाते हुए आज अगर खुद भी मजबूत और लोकप्रिय बनी हुई है, तो उसके पीछे इस बात की भी बड़ी भूमिका है।

तो कुल मिलाकर सबक क्या है? सबक यह है कि कोई संगठन विचारधारा की शक्ति से चलता है। अगर अपनी विचारधारा के प्रति वह आस्थावान है, तो पूरे समाज को वह आस्थावान बनाए रखने में सक्षम होता है। वह ऐसा नैरेटिव समाज में पेश करने में सफल रहता है, जिससे लोग उसकी उपलब्धियों और खूबियों की तरफ देख सकें। चीनी समाज में जो प्रयोग वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने किए हैं, उसके कई दुष्परिणाम आज चर्चित हैं। मसलन, बढ़ी गैर-बराबरी और उपभोक्तावादी संस्कृति के फैलाव को किसी रूप में समाजवादी भावना के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। लेकिन चीन की कम्युनिस्ट पार्टी इसे इस रूप में पेश करने में अब तक कामयाब है कि ये उसके चीनी स्वभाव के समाजवाद (socialism with Chinese characteristic) के बड़े प्रयोग के साइड इफेक्ट हैं, जिनसे वह निपटने का इरादा रखती है।

वह सचमुच ऐसा कर पाएगी या नहीं, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। मुमकिन है कि किसी दिन चीन में भी पॉलिटिकल नैरेटिव पर से कम्युनिस्ट पार्टी की कमान उसी तरह फिसल जाए, जैसा सोवियत संघ में हुआ था। लेकिन अगर सिर्फ सात दशक के अनुभव की बात करें, तो यही कहा जा सकता है कि इतनी अवधि में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी अनेक उपलब्धियों और खूबियों के बावजूद विचारधारात्मक धरातल पर पराजित हो चुकी थी, जबकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी फिलहाल अपराजेय दिख रही है।

सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सामने भी कार्ल मार्क्स की ये शिक्षा थी कि पूंजीपति आर्थिक शोषण सिर्फ अपनी भौतिक ताकत के बल पर नहीं करते। बल्कि अपने वर्गीय विचारों और उसूलों को समाज पर थोप कर शोषित वर्गों में अपने शासन के लिए सहमति बनाए रखते हैं। फ्रेडरिक एंगेल्स ने इसे ‘असत्य चेतना’ (false consciousness) कहा था। उन्होंने कहा था कि असत्य चेतना श्रमिक वर्ग को अपने उत्पीड़न की पहचान करने और उसे ठुकराने से रोके रखती है। बीसवीं सदी में इटली के मशहूर कम्युनिस्ट विचारक एंतोनियो ग्राम्स्की ने hegemony of ideas यानी सोच के वर्चस्व की व्याख्या भी इसी रूप में की थी कि शासक वर्ग सिविल सोसायटी में अपने हितों, मान्यताओं और उसूलों को लेकर ऐसी सहमति गढ़ लेता है, जिससे शोषित तबके को उस सिस्टम में कोई बुराई नजर नहीं आती।

इन सभी व्याख्याओं का निष्कर्ष यह है कि उच्चतर आदर्श वाली किसी व्यवस्था की स्थापना और उसके संचालन के लिए जरूरी है कि समाज में वैचारिक संघर्ष लगातार जारी रखा जाए। कम्युनिस्ट या सोशलिस्ट पार्टियों का अस्तित्व और उनकी सफलता इस पर ही निर्भर है कि ऐसे संघर्ष के जरिए अपनी विचारधारा को वे कैसे और कब तक आम जन की परिकल्पनाओं का हिस्सा बनाए रख पाती हैं। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी आरंभिक दशकों के बाद इस काम में पिछड़ती चली गई। नतीजा दुनिया ने देखा। लेकिन बाद की पीढ़ियां उससे यह सबक ले सकती हैं कि वैचारिक आस्था, उस पर आधारित नैरेटिव, और उसके हक में संघर्ष से ही वह समाज बनाया जा सकता है, जो क्रमिक रूप से बराबरी की ओर बढ़ते हुए सबके लिए न्याय को सुनिश्चित कर पाए।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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