घरों को लौटते प्रवासी मजदूर।

प्रवासी श्रमिकों का बहुलांश दलित एवं पिछड़ी जातियां हैं

(इंडियन एक्सप्रेस में 9 जून को प्रकाशित सर्वे के मुताबिक कोरोना वायरस महामारी आपदा के बाद अपने घरों को पलायन करने वाले श्रमिक दलित एवं पिछड़ी जातियों से हैं)

भारत में कोरोना वायरस आपदा के शुरू होने के पश्चात बड़े पैमाने पर प्रवासी श्रमिकों का पलायन शुरू हुआ, जिसे मीडिया एवं अखबारों द्वारा बार-बार छुपाने की तमाम कोशिशें की गयीं लेकिन भारतीय समाज की जाति आधारित विशिष्टता को छिपाया नहीं जा सका। जिसका खुलासा 9 जून के इंडियन एक्सप्रेस में ‘Survey to map skill, details of 7.3 lakh back to MP, 60 % from SC/ST groups, 24 % worked in construction’ नाम से प्रकाशित विस्तृत रिपोर्ट के विश्लेषण से होता है। मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने कोरोना लॉकडाउन में अपने गांव आए मजदूरों की संख्या जानने के लिए 27 मई 2020 से 6 जून 2020 तक एक सर्वे कराया ताकि सरकार द्वारा बनाए गए रोजगार सेतु वेब पोर्टल द्वारा उन्हें रोजगार उपलब्ध कराया जा सके।

लेकिन इस बहाने यह सर्वे भारतीय समाज के जातीय एवं वर्गीय चरित्र की हकीकत को बयां कर गया। सर्वे के मुताबिक औद्योगिक महानगरों से आये प्रवासी श्रमिकों में से ज्यादातर आबादी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के समुदायों की है। सर्वे के मुताबिक 10 में से 6 प्रवासी श्रमिक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों से हैं जो निर्माण क्षेत्र में लगे हुए थे। अब तक लगभग 7.30 लाख श्रमिकों (उनके कौशल के अनुसार) पर यह सर्वे किया गया है, जिनमें से 5.79 लाख श्रमिक अपने परिवार समेत 1 मार्च से ही अपने-अपने घर वापस आने लगे थे। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 55,000 गांवों और 380 शहरी क्षेत्रों में यह सर्वे किया गया। 

प्रवासी मजदूर अपने घरों को जाते हुए।

दलित जातियां जिन्हें गांव से दूर रखा जाता था। जिनके लिए गांव में कोई जगह नहीं थी, जिनके मेहनत की गांव में कोई कीमत नहीं होती थी, इनके लिए किसी भी प्रकार का रोजगार नहीं था, जिनकी छाया से उच्च जातियां घृणा करती थीं, उनकी ज्यादातर आबादी गांवों में वापस आ चुकी है। रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश में 2.22 लाख श्रमिक अनुसूचित जनजाति एवं 2.08 लाख श्रमिक अनुसूचित जाति से हैं जिन्होंने महानगरों से पलायन किया है। राज्य में उनकी यह संख्या क्रमशः 30.4 फीसदी और 28.5 फीसदी है। 2011 की जनगणना के मुताबिक मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति समुदायों की आबादी क्रमशः 21.1 प्रतिशत और 15.6 प्रतिशत थी। सर्वेक्षण के मुताबिक काम की तलाश में प्रवास करने वाले इन श्रमिकों की आबादी उनके हिस्से से बहुत ज्यादा है। 

पिछड़ी जातियां जो गांव में अपनी खेती-किसानी से निराश होकर शहरों की तरफ पलायन की थीं, अपने आपको अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से थोड़ा श्रेष्ठ एवं उच्च जाति के समकक्ष मानती हैं, आर्थिक उन्नयन के बाद वे गांव में उच्च जाति के दबदबे को चुनौती दे रही थीं, उनके ऊपर भी रोजगार के संकट की सबसे बड़ी गाज गिरी है। सर्वे के मुताबिक ओबीसी समुदाय से 2.80 लाख प्रवासी श्रमिक हैं जो राज्य में उनके अनुपात का 38.4 फीसदी है। 

कारखाना एवं औद्योगिक श्रमिक, लोहार, बढ़ई, ईंट और टाइल्स लगाने वाले, राज मिस्त्री, दुकानों एवं रेस्त्रां में काम करने वाले, ड्राइवर एवं निजी सुरक्षा गार्ड तक का वापस घर आना यह बताता है कि किस प्रकार से सरकार ने इनके ऊपर टूट पड़ने वाले मुसीबतों की तनिक भी परवाह नहीं की, एवं उच्च-मध्यवर्गीय धनाड्य वर्गों ने अपनी सुरक्षा के लिए कितना कठोर एवं निष्ठुर कदम उठाया है? जहां इन लोगों के लिए जीने और खाने भर की तो मदद की ही जा सकती थी लेकिन यह भी कार्य इन लोगों ने नहीं किया बल्कि ये अपने दरबे में घुस गये एवं इन लोगों को अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया गया। घर में बैठे दिन-रात इंटरनेट एवं फेसबुक पर व्यतीत करने वाले मध्यवर्गीय लोगों को शायद ही इस बात का अहसास हो कि युवा पीढ़ी के रोजगार के चले जाने एवं उसके सपने के मरने की पीड़ा क्या होती है? 

प्रवासी मज़दूर।

सर्वे के मुताबिक 50.6 फीसदी प्रवासी श्रमिक असंगठित क्षेत्रों में काम करते थे, जिनमें कारखानों और उद्योगों में 19.6 प्रतिशत एवं 24.1 प्रतिशत प्रवासी श्रमिक भवन एवं निर्माण गतिविधियों में लगे हुए थे, 13.5 प्रतिशत कृषि कार्यों में संलग्न थे, ईंट एवं टाइल्स निर्माण से जुड़े श्रमिक 5.2 प्रतिशत, लोहार और बढ़ई 3.8 प्रतिशत हैं। उनके बाद दुकानों एवं रेस्तरां में 3.7 प्रतिशत और सामानों को ढोने वाले 2.8 प्रतिशत हैं। भारी संख्या में घर लौटने वाले श्रमिकों में राजमिस्त्री, ड्राइवर और निजी सुरक्षा गार्ड भी शामिल हैं। 18 से 40 वर्ष के उम्र वाले प्रवासी श्रमिक 78 प्रतिशत हैं, जिनमें से 82.8 प्रतिशत पुरुष एवं 17.2 प्रतिशत महिलाएं हैं।

भारत के प्रमुख औद्योगिक राज्यों- महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान जैसे आदि के विकसित नगरों को जिन्हें इन दलित एवं पिछड़ी जातियों ने अपने रक्त से सींचा एवं उनकी धन-संपदा में अभिवृद्धि की, इन नगरों की चमक-दमक टीवी एवं सिनेमा घरों में छाई रहती हैं, उसके कर्ता-धर्ता या अभिनेता अपने उजड़े हुए खेतों में, टूटे हुए झोपड़ों में, इस बार बिन-ब्याही बेटियों की डोली न सजा पाने की निराशा लिये अपने घरों को आ चुके हैं।

सर्वे के मुताबिक मध्य प्रदेश में 51 फीसदी कामगार विभिन्न राज्यों से अपने काम छोड़कर आये हैं। महाराष्ट्र और गुजरात जैसे विकसित राज्यों से लौटे ऐसे श्रमिकों की आबादी 27 फीसदी एवं 24 फीसदी है। राजस्थान एवं दिल्ली में इनकी हिस्सेदारी 11 फीसदी एवं 8 फीसदी है। हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश में इनकी हिस्सेदारी 7 एवं 6 फीसदी है। बालाघाट, छतरपुर, मुरैना, रीवा, सतना, सीधी, भिंड, पन्ना, सिवनी और टीकमगढ़ ऐसे 10 शीर्ष जिले हैं जहां से अधिकांश श्रमिक अपने घर लौट चुके हैं। सर्वे के मुताबिक इंदौर, भोपाल और नरसिंहपुर जिलों में कम से कम प्रवासी श्रमिकों का पलायन हुआ है।

इंडियन एक्सप्रेस में छपे रिपोर्ट के आंकड़ों से पता चलता है कि लॉकडाउन में घर वापस लौटे मजदूरों में मात्र वर्गीय विभाजन ही नहीं है बल्कि इसके साथ-साथ मजदूर आबादी, जाति व्यवस्था से भी पीड़ित है। मध्यप्रदेश में घर वापस आए मजदूरों में 90% आबादी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों की है, जो जाति व्यवस्था पर आधारित पेशे से अपना जीवन निर्वाह करने में सक्षम नहीं थे। भारत में औद्योगिकीकरण ने इन जातियों के पेशे आधारित रोजगार का विध्वंश किया था। इसकी जगह पर उन्हें रोजगार देने के बजाय शहरों में मौत और जिंदगी से संघर्ष करने के लिए यहां की मनुवादी-पूंजीवाद-परस्त सरकारों ने इन महानगरों में दर-दर भटकने के लिए छोड़ दिया था। आज दुबारा इनके प्राचीन अवस्था में जाने की घटना दिल दहला देने वाली है। सोचने वाली बात यहां यह है कि क्या फिर से वे उस गरिमाहीन जीवन को स्वीकार करेंगे?

(शम्बूक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)  

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