Sunday, April 28, 2024

शहीद दिवस: आज भगत सिंह के समाजवादी विचारों की हमें क्यों ज़रूरत है?

आज से 93 साल पहले 23 मार्च 1931 की काली रात को देश के तीन सपूतों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को गुपचुप लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर लटका दिया गया था। उस समय इन सपूतों की देश में बढ़ती लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से होता है, कि उनके शवों को चुपचाप जेल में ही जलाकर उनकी राख को रावी नदी में बहा दिया गया था। शारीरिक रूप से भले ही उन्हें समाप्त कर दिया गया हो, परन्तु उनके विचार आज भी हवा में गूंज रहे हैं।

भगतसिंह ने कहा था, “जब संकट का समय आएगा, तब देश को हमारी बहुत याद आएगी।” आज भगत सिंह की शहादत के इतने वर्ष बीत जाने के बाद जब संकट के नए दौर की शुरुआत हुई है, तो देश को उनके और उनके साथियों की विचारधारा की याद आना स्वाभाविक है। पिछले कुछ दशकों में हिन्दी सिनेमा जगत बॉलीवुड में भगत सिंह पर बनी तीन फिल्में जनमानस में उनकी बढ़ती लोकप्रियता का ही प्रमाण हैं। आज धुर-दक्षिणपंथी आरएसएस, बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद तक भगत सिंह को अपना नायक सिद्ध करने में लगे हैं। पंजाब में खालिस्तान आंदोलन के दौर में भगत सिंह के साफ़ा पहने और बड़े-बड़े बालों वाले चित्रों को दिखाकर उन्हें तथाकथित खालिस्तान राष्ट्र का समर्थक तक बताने की कोशिश की गई थी।

भगत सिंह के राष्ट्रवादी विचारों को आज कुछ अंधराष्ट्रवादी और फासीवादी तत्व उन्हें हिन्दू फासीवाद समर्थक राष्ट्रवादी तक सिद्ध करने में लगे हुए हैं। इस तरह के मूल्यांकन एकाकी तथा ख़तरनाक है। भगत सिंह की विचारधारा सतत विकासमान थी। पहले वे आर्यसमाजी थे, फ़िर वे गांधीवादी बने और बाद में उन्होंने ‘यूरोप के अराजकतावादी फ्रूधो और बुकनिन का अध्ययन’ किया तथा वे अराजकतावादी हो गए। सेफ़्टी बिल के ख़िलाफ़ उन्होंने संसद में जो पर्चे तथा बम फेंके थे, वे भी अराजकतावाद से प्रेरित थे। पर्चे की शुरूआत ‘फ्रेंच अराजकतावादी बेला’ के इन वाक्यों से होती है, “बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत होती है।”

असेम्बली बम काण्ड में गिरफ़्तारी के बाद भगतसिंह ने जेल में विश्व भर के क्रांतिकारी साहित्य का गहन अध्ययन किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचे, कि “व्यक्तिगत हिंसा की कार्य दिशा कभी भी व्यापक सामाजिक परिवर्तन का आधार नहीं बन सकती।” भगतसिंह ने जेल में अपनी डायरी भी लिखी। उनके विचारों की गहन जानकारी के लिए उसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।

भारत में क्रांतिकारी आंदोलन की धारा बीसवीं सदी के आरंभ से ही युगांतर-अनुशीलन आदि गुप्त क्रांतिकारी संगठनों के रूप में मौज़ूद थी। उनकी दृष्टि अतीतोन्मुखी और पुनरूत्थानवादी थी तथा सेकुलर होने के बावज़ूद वे धार्मिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त थे, इन सबके बावज़ूद औपनिवेशिक ग़ुलामी का विरोध करने और वस्तुगत तौर पर अपनी कार्रवाइयों से जनता को प्रेरित करने के कारण अपने समय में उनकी भूमिका प्रगतिशील थी। धीरे-धीरे भारत के क्रांतिकारी आंदोलन में क्रांतिकारी-जनवादी विचारों का प्रवेश हुआ। ‘गदर पार्टी और हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के क्रांतिकारियों’ ने अमेरिकी और फ्रांसीसी जनवादी क्रांति के आदर्शों से प्रेरणा ली। 1917 की रूसी समाजवादी क्रांति के विचारों का भी उन पर गहरा प्रभाव पड़ा।

‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के युवा क्रांतिकारियों’ ने भगतसिंह की अगुवाई में राष्ट्रीय मुक्ति के साथ ही समाजवाद को अपना अंतिम लक्ष्य घोषित किया तथा आतंकवादी सशस्त्र कार्रवाइयों का रास्ता छोड़कर व्यापक किसान-मज़दूर जनता को संगठित करने की सोच की दिशा में भी वे आगे बढ़े।

1930 के दशक में एचएसआरए के क्रांतिकारियों का बड़ा हिस्सा कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गया। आतंकवादी कार्यदिशा पर भगत सिंह ने लिखा है कि, “क्रांतिकारी जीवन के शुरू के चंद दिनों के सिवाय ना तो मैं आतंकवादी हूं और न ही था,मुझे पूरा यकीन है कि इन तरीकों से हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते हैं।”

वे आगे लिखते हैं कि, “बम का रास्ता 1905 से चल रहा है और क्रांतिकारी आंदोलन पर यह एक दर्दनाक टिप्पणी है। आतंकवाद हमारे समय में क्रांतिकारी चिंतन के पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है या एक पछतावा। किसी तरह यह अपनी असफलता का स्वीकार्य भी है। सभी देशों में इसका इतिहास असफलता का इतिहास है। फ्रांस-रूस-जर्मनी में,बाल्कान देशों में और स्पेन में हर जगह इसकी यही कहानी है। इसकी पराजय के बीज इसके भीतर ही होते हैं।”

व्यक्तिगत आतंकवाद की निरर्थकता पर

भगत सिंह के विचारों को यहां पर विस्तृत रूप से बतलाए जाने की आवश्यकता इसलिए महसूस हो रही है, क्योंकि बहुत से साम्प्रदायिक अतिवादी-फासीवादी संगठन भगत सिंह को बम-बंदूकों से लड़ने वाला क्रांतिकारी सिद्ध करके आतंकवाद के बारे में उनके विकासमान विचारों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं तथा जनता में विभ्रम फैलाते हैं और अपनी अतिवादी कार्रवाइयों को जायज़ ठहराते हैं।

भगतसिंह अपने लेख “मैं नास्तिक क्यों हूं?” में सामाजिक परिवर्तन के किसी भी संघर्ष में,व्यक्तिगत जीवन एवं पृथ्वी की उत्पत्ति में किसी भी आलौकिक शक्ति की भूमिका से स्पष्ट रूप से इंकार करते हैं। अपने लेख “साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज़” में उन्होंने सभी तरह के साम्प्रदायिक ताकतों के ख़िलाफ़ जनता के बीच जाने की बात की। जो बहुत से हिन्दूवादी तथा अतिवादी संगठन आज भगतसिंह को केसरिया पगड़ी पहनाकर उन्हें खालसापंथी या हिन्दू वाली सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें ये लेख अवश्य पढ़ने चाहिए।

ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के ख़िलाफ़ राष्ट्रवादी आंदोलन की विभिन्न धाराओं; जिसमें क्रांतिकारी-गांधीवादी विचारधारा तथा देश की विभिन्न राष्ट्रीयताओं के एकजुट संघर्ष के कारण देश को आज़ादी मिली, भले ही आज वह आधी-अधूरी हो। आज सारी दुनिया में राष्ट्रवादी आंदोलनों का दौर समाप्त हो गया है तथा प्रत्यक्ष उपनिवेशवाद की जगह पूरी दुनिया में आर्थिक नवउपनिवेशवाद हावी है, जो वित्तीय पूंजी द्वारा समूची दुनिया का शोषण कर रहा है।

आज का राष्ट्रवाद अंधराष्ट्रवाद तथा फासीवाद में बदल गया है, जो अंधराष्ट्रवादियों के हाथों में पहुंचकर साम्राज्यवाद की ही सेवा कर रहा है, यही कारण है कि दुनिया भर में दक्षिणपंथी ताकतें सिर उठा रही हैं, जो दुविधा भर में जनता के संघर्षों द्वारा मिले सीमित जनवादी अधिकारों को भी समाप्त करने पर उतारू हैं। अपने देश में भी हम इसी प्रवृत्ति को देख रहे हैं।

आज साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के ख़िलाफ़ कोई भी संघर्ष राष्ट्रवाद के बैनर तले नहीं लड़ा जा सकता है। सोवियत संघ में 1917,चीन में 1949 तथा पूर्वी यूरोपीय देशों में हुई समाजवादी क्रांतियों का पराभव हो चुका है। पूंजीवाद बार-बार असाध्य संकटों तथा महामंदियों में फंसने के बावज़ूद हर बार उससे निकलने का उपाय खोज लेता है तथा और ताकतवर होकर सामने आता है,परन्तु समाजवाद न तो अपनी असफलता से कोई सबक ले सका और न ही नयी रणनीतियां विकसित कर सका।

21वीं सदी का समाजवाद पहले के समाजवाद से बिलकुल भिन्न होगा। एक समाजवादी समाज में पार्टी की तानाशाही की जगह प्रेस की आज़ादी और मानवाधिकारों की सुरक्षा पर अधिक ज़ोर देने की ज़रूरत होगी। हर तरह के कठमुल्लापन, व्यक्ति पूजा और किताब पूजा से उबरकर ही आज सामाजिक परिवर्तन की कोई भी लड़ाई लड़ी जा सकती है।आज के दौर में भगतसिंह की विरासत तथा विचारों की यही वास्तविक प्रासंगिकता है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा टिप्पणीकार हैं।)

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