संसद के बीते मानसून सत्र में विपक्षी दलों के नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ एकजुट होने के संकेत मिले। इस संकेत ने सत्र के ठीक बाद कुछ अधिक ठोस रूप लिया, जब 19 विपक्षी दलों ने एक साथ बैठक की। बैठक के बाद एक साझा बयान जारी किया गया। उसमें कहा गया- ‘हम, 19 विपक्षी पार्टियों के नेता, भारत के लोगों का आह्वान करते हैं कि वे हमारी धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणतंत्रीय व्यवस्था की रक्षा के लिए अपनी पूरी ताकत के साथ उठ खड़े हों। हमें आज भारत को बचाना है, ताकि हम इसे एक बेहतर कल के लिए बदल सकें।’ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विपक्षी नेताओं की ओर से साझा बयान को पढ़ते हुए कहा कि इन पार्टियों का अंतिम लक्ष्य 2024 का लोक सभा चुनाव है। उनका मकसद उस चुनाव के बाद देश को एक ऐसी सरकार देना है, जो ‘स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों और संविधान के सिद्धांतों एवं प्रावधानों में यकीन करती हो।’
2024 के अपने चुनावी उद्देश्य की दिशा में बढ़ते हुए इन 19 पार्टियों ने उन मांगों को भी तय किया, जिसको लेकर उन्होंने साझा संघर्ष करने का इरादा जताया है। साफ है कि ये मांगें फ़ौरी जरूरतों से पैदा हुई हैं। फिर भी चूंकि ये मांगें ही आज की विपक्षी राजनीति का आधार बन रही हैं, इसलिए इन पर ध्यान वाजिब होगा। तो ये मांगें हैः 1- तीव्र गति से सबका मुफ्त कोविड-19 टीकाकरण, 2- आय कर दायरे से बाहर आने वाले सभी लोगों को 7,500 रुपये प्रति महीने नकदी भुगतान और जरूरतमंदों को मुफ्त पौष्टिक भोजन का वितरण, 3- पेट्रोलियम पदार्थों पर केंद्रीय उत्पाद कर में की गई अभूतपूर्व वृद्धि की वापसी, 4- तीन कृषि कानूनों को रद्द करना, 5- अनियंत्रित निजीकरण पर रोक, 6- सूक्ष्म, छोटे, और मझौले उद्योगों को प्रोत्साहन पैकेज, 7- मनरेगा का विस्तार करते हुए शहरी रोजगार गारंटी कानून बनाना, 8- पेगासस जासूसी मामले की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच, 9- यूएपीए के तहत गिरफ्तार सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई, जिनमें भीमा कोरेगांव मामले और सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान गिरफ्तार तमाम व्यक्ति शामिल हैं। साथ ही राजद्रोह और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के दुरुपयोग पर रोक, 10- जम्मू-कश्मीर में सभी राजनीति बंदियों की रिहाई, जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना और वहां जल्द से जल्द स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव।
हम यह मान कर चल सकते हैं कि ये मांगें सामयिक बदलावों के साथ इन विपक्षी दलों के 2024 के चुनाव घोषणापत्र में वायदे के रूप में शामिल होंगी। ये ऐसी मांगें हैं, जो समाज के विभिन्न तबकों से जुड़ी हैं। उन तबकों के लिए ये ऐसे तात्कालिक महत्त्व की भी हैं, जो उन्हें अपनी जिंदगी और सम्मान की रक्षा के लिए आज बेहद जरूरी महसूस हो रही हैं। इसलिए विपक्षी दलों की यह उम्मीद बिल्कुल निराधार नहीं है कि इन मांगों के इर्द-गिर्द मतदाताओं की ऐसी गोलबंदी हो सकती है, जिससे उनकी चुनावी संभावनाएं बेहतर हो सकें। लेकिन असल सवाल यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ/ भारतीय जनता पार्टी ने जो अपनी खास राजनीति विकसित की है और जिसे जनता के एक बड़े तबके के बीच स्वीकृति दिलाने में वह सफल रहा है, क्या इन मांगों पर केंद्रित राजनीति उसका काट हो सकती है?
राजनीति शास्त्र में सरकार (government) और शासन-तंत्र (regime) दो ऐसे शब्द हैं, जो भले समानार्थी दिखते हों, लेकिन जिनके बीच एक बारीक और महत्त्वपूर्ण फर्क होता है। लोकतंत्र के भीतर regime एक दीर्घकालीन व्यवस्था है। समान regime के भीतर सरकारें आती-जाती रहती हैं। 1950 से 2014 के आम चुनाव से पहले देश में अनेक बार सरकारें बदलीं, लेकिन वह regime change नहीं था। इसलिए कि तमाम सरकारें या तो अपनी आस्था या स्वभाव के कारण या फिर मजबूरी में (मसलन, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार) उन्हीं मूल्यों और आदर्शों के अनुरूप काम करती रहीं (या कम के कम काम करने का दिखावा करती रहीं), जिन्हें हमारे संविधान में मूर्त रूप दिया गया था। लेकिन 2014 में पहली बार देश में regime change हुआ। आरंभ से ही ऐसा परिवर्तन लाना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य था। इसलिए कि संघ भारतीय संविधान के आधुनिक, गणराज्यीय, समता-मूलक उसूलों में यकीन नहीं करता। उसके विश्वास का अपना अलग तंत्र है, जो वर्णाश्रम धर्म की पुरातन मान्यताओं पर आधारित है। जब राजनीतिक मजबूरी ना हो, तब इस बात को साफ-साफ कहने में संघ के नेताओं ने कभी गुरेज नहीं किया। आखिरकार 2014 में पहले से बन चुके आर्थिक-राजनीतिक माहौल के बीच उन्हें अपने ढंग की व्यवस्था लाने में सफलता मिल गई। कुछ राजनीति-शास्त्रियों ने इसे एक लोकतंत्र के जातीयतंत्र (Ethnocracy) में रूपातंरण कहा है।
प्रश्न यह है कि क्या विपक्ष के पास इस बदलाव को टक्कर देते हुए उसका असल विकल्प तैयार करने की इच्छाशक्ति और क्षमता है? अब तक का अनुभव इसकी उम्मीद नहीं जगाता। 2019 के आम चुनाव में दोबारा बड़ी जीत दर्ज करने के बाद 23 मई की शाम को दिए अपने विजय भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि इस चुनाव में भाजपा की असल जीत यह है कि किसी दल ने धर्मनिरपेक्षता शब्द बोलने की हिम्मत नहीं जुटाई, जबकि पहले उसके नाम पर गठबंधन बना करते थे। हकीकत से परिचित कोई व्यक्ति इस बिंदु पर शायद ही मोदी या उनकी पार्टी को चुनौती देने की स्थिति में हो। आज का दुखद यथार्थ यह है कि संघ/भाजपा ने लगभग सभी दलों को अपनी पिच पर खेलने के लिए मजबूर कर दिया है। पश्चिम बंगाल के हाल के चुनाव में प्रचार के दौरान अगर जन सभा में ममता बनर्जी चंडी पाठ करके अपने हिंदू होने का सर्टिफिकेट देने पर मजबूर हुईं, तो यही कहा जा सकता है कि भले उन्होंने चुनावी जीत हासिल कर ली, लेकिन विचाराधारा के मैदान में उन्होंने समर्पण कर दिया।
राजनीति शास्त्री इंद्रजीत रे ने हाल में अपने लेख में लिखा है- ‘यह सिद्धांत ने, कि वर्चस्व रखने वाली मूल-जाति (ethno) बाकी सबको हाशिये पर रखते हुए देश पर शासन कर सकती है, अपनी जड़ें गहरी कर ली हैं। दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल के हनुमान चालीसा पढ़ने, राहुल गांधी के अपनी जनेऊधारी जड़ों पर जोर देने, और ममता बनर्जी के सार्वजनिक सभा में चंडी पाठ कर अपना हिंदू रूप जताने की छवियों ने ये बात जाहिर की है कि यह सिद्धांत भाजपा या नरेंद्र मोदी से कहीं आगे तक स्थापित हो गया है।… 2024 के चुनाव में अगर भाजपा हार भी जाती है, तब भी जिस हिंदू इथनोक्रैसी को वह स्थापित कर रही है, उसे तोड़ने के लिए चुनावी जीत से कहीं ज्यादा बड़े प्रयास करने होंगे।’ यहां हम बातचीत को आसान बनाने के लिए राजनीति-शास्त्र के गूढ़ शब्द हिंदू इथनोक्रैसी को संघ के हिंदू राष्ट्र के रूप में समझ सकते हैँ।
तो आज असल चुनौती सत्ता तंत्र और लोगों के मानस से संघ/भाजपा के इस प्रभाव को खत्म करने की है। इसके बिना कोई ऐसा बदलाव नहीं आ सकता, जिससे सचमुच भारत का वह रूप वापस पाया जा सके, जिसे पिछले सात साल में आमूल रूप से बदल दिया गया है। क्या विपक्ष ने जो मांगें तय की हैं, उनमें इस गहरे रूप में 2014 में हुए regime change को पलटते हुए regime restoration (पूर्व शासन-तंत्र की बहाली) की उम्मीद जग सकती है? क्या इतने बड़े परिवर्तन के लिए संघर्ष करने, उसके लिए जनमत तैयार करने, और भविष्य में उसके आधार पर शासन करने की कोई समझ या इच्छाशक्ति विपक्ष में नजर आती है?
दरअसल, जिस बिंदु से विपक्ष शुरुआत कर सकता है, वह भी उसके विमर्श से बाहर है। नरेंद्र मोदी सरकार ने एक खास तरह की राजनीतिक-अर्थव्यवस्था (political economy) तैयार की है। चंद उद्योगपतियों के धन से चुनावी अभियान चलाते हुए और सत्ता में आने के बाद देश की तमाम जायदाद उन्हीं उद्योगपतियों को सौंपने की ये पोलिटिकल इकॉनमी देश की लगभग पूरी आबादी को बहुत भारी पड़ रही है। मगर सरकार की सफलता इस बात में निहित है कि उसने इस सवाल को आम चर्चा से बाहर कर रखा है। कैसे? इसकी एक स्पष्ट समझ इतिहासकार और किताब- Brand New Nation: Capitalist Dreams and Nationalist Designs in Twenty-First-Century India की लेखक रविंदर कौर ने दिखाई है। रविंदर कौर ने हाल में एक लेख में लिखा– ‘मुक्त बाजार के साये में जो सामने आया है, वह एक अलग प्रकार की सौदेबाजी हैः एक मजबूत नेता निवेश के लिए पहले से तैयार क्षेत्र में पूंजी के लिए अनुकूल स्थितियां तैयार करता है। उसके बदले में पूंजी यह सुनिश्चित करती है कि राष्ट्र के ‘घरेलू मामले’ बाहरी चर्चा से बचे रहें। यह परिघटना राष्ट्र-राज्य को एक सख्ती से शासित बाड़ में तब्दील कर देता है, जो पूंजी के लिए खुला, लेकिन विचारों के लिए बंद रहता है। जिस आर्थिक चमत्कार का वादा किया गया था, उसके अभाव में ये व्यवस्था नागरिकों से अधिक समय, अनुशासन, और यहां तक कि विरक्त रहते हुए इंतजार करने की भी मांग करती है। मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति एक तरह से ‘अच्छे दिन’ के बदले सांस्कृतिक मुआवजे का काम कर रही है। सवाल है कि संतुलन बनाने का यह प्रयास कब तक सफल रहेगा, और जब ऐसा नहीं होगा, तब क्या होगा?’
अभी हाल तक विपक्ष की रणनीति यह दिखती थी कि जब आम जन को ‘अच्छे दिन’ के बदले हिंदुत्व के सांस्कृतिक मुआवजे से संतुष्ट रखना संभव नहीं होगा, तब मतदाता स्वतः उसके पाले में आएंगे। अब उसने संघर्ष और एकजुटता की इच्छा जरूर दिखाई है। लेकिन इसमें समस्या यह है कि उसकी इच्छा में वैचारिक स्तर पर कोई नई पहल नजर नहीं आती। इस लेख में हमने ऊपर उस बिंदु की बात की है, जहां से विपक्ष ऐसी शुरुआत कर सकता है, जिससे जनता के एक बड़े हिस्से में उसके इरादों और क्षमता पर भरोसा हो सके। ये मुद्दा नरेंद्र मोदी सरकार की पोलिटिकल इकॉनमी का विकल्प पेश करना है। विपक्षी दलों का हालिया इतिहास ऐसा है कि अपने ऐसे किसी विकल्प के प्रति लोगों में भरोसा पैदा करने के लिए उन्हें अतिरिक्त श्रम करना होगा। इसलिए कि जिस नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था पर मोदी सरकार दौड़ रही है, उस पर चलने की शुरुआत उन्हीं दलों ने की थी।
इसलिए जब ये दल आय कर के दायरे से बाहर लोगों को 7,500 रुपए प्रति महीने देने की मांग करते हैं या चुनाव में ऐसा वादा करते हैं (2019 में कांग्रेस ने 6,000 रु. का वादा किया था) तो लोग उस पर सहज यकीन नहीं करते। इसलिए कि इसके साथ ये पार्टियां राजस्व के स्रोत नहीं बतातीं। आखिर सरकार नोट छाप कर असीमित खर्च तो नहीं कर सकती। तो रास्ता यह है कि धनी तबकों और कॉरपोरेट सेक्टर पर टैक्स बढ़ाया जाए, वेल्थ टैक्स और उत्तराधिकार कर लगाने की नई पहल की जाए। मगर इस बिंदु पर आकर विपक्षी दलों की जुबान भी चुप हो जाती है। वे जब निजीकरण का विरोध करते हैं, तो यह सवाल दिमाग में बना रहता है कि क्या ये दल अब सचमुच फिर से पब्लिक सेक्टर के नेतृत्व वाली नियोजित विकास नीति में भरोसा करने लगे हैं? अगर वे ऐसा नहीं कहते, तो फिर निजीकरण का उनका विरोध अवसरवादी है। और यह भी लोगों को याद है कि अर्थव्यवस्था में पब्लिक सेक्टर के महत्त्व को घटाने की शुरुआत असल में कांग्रेस के राज में ही हुई थी।
आजाद भारत का सच यह है कि इसमें वामपंथी दलों को छोड़ कर किसी दल के पास अपनी आर्थिक नीति रही, तो वह सिर्फ कांग्रेस है। बाकी दल इधर-उधर कुछ समायोजन के साथ उन्हीं आर्थिक नीतियों को अपनाते रहे हैं, जो कांग्रेस तय करती रही है। (वैसे राज्यों में सत्ता में आने पर वामपंथी दलों की सरकारों ने उसी अर्थनीति का पालन किया है।) इसीलिए एक दौर में तमाम पार्टियां नेहरूवादी अर्थनीति पर चलती दिखती थीं। उसके बाद सबने बिना कोई आलोचनात्मक रुख अपनाए नव-उदारवादी सोच को अपना लिया। इसीलिए जब बात विकल्प की आती है, तो ध्यान कांग्रेस पर केंद्रित होता है। मगर कांग्रेस की हालत आज यह है कि नई आर्थिक सोच तो दूर की बात है, वह अपने संगठन में भी कोई नयी पहल करने में अक्षम बनी हुई है।
इसीलिए आज संघ/भाजपा वैचारिक रूप से ऐसी स्थिति में दिखते हैं, जब सियासी दायरे में उनके लिए कोई चुनौती नहीं है। विपक्षी दल कुछ मुद्दों और बिंदुओं पर सरकार का विरोध करते हैं, लेकिन उनका अपना पक्ष क्या है, इस बिंदु पर बात धुंधली बनी रहती है। बीते सात वर्षों के दौरान विश्वविद्यालयों में कई छात्र आंदोलनों, नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में हुए आंदोलन, और अब किसान आंदोलन ने जरूर ऐसी चुनौती देने का माद्दा दिखाया है, जिसमें वैकल्पिक वैचारिक सोच नजर आती है। लेकिन चुनावी राजनीति को प्रभावित करने के लिहाज से इन आंदोलनों की क्षमता नगण्य ही बनी रही है। इसीलिए आर्थिक और शासन के विभिन्न दूसरे मोर्चों पर अपनी घोर नाकामियों के बावजूद भाजपा की चुनावी संभावनाएं अप्रभावित बनी रही हैं।
विपक्ष की ताजा एकता और उसके एकजुटता के संघर्ष के इरादे से भी इस स्थिति पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, अगर विपक्ष जनता में उत्साह पैदा करने वाला अपना पक्ष सामने रखने में विफल बना रहता है। यह तो अब जाहिर हो चुका है कि भाजपा को उसके ही पिच पर नहीं हराया जा सकता। और अगर ऐसा संभव हो भी जाए, तो जन हित के लिहाज से सरकार में वैसे बदलाव का मामूली असर ही होगा।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)
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