Sunday, April 28, 2024

अमेरिका-चीन मेलमिलाप के बाद अब क्या हो भारत की नीति? 

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की सैन फ्रांसिस्को में हुई शिखर वार्ता से यह साफ हुआ कि दोनों की प्राथमिक चिंता फिलहाल आपस में युद्ध जैसी स्थिति से बचना है। शिखर वार्ता से दोनों राष्ट्रपतियों ने फिलहाल यह मकसद हासिल कर लिया है।

दोनों देशों में हर स्तर पर सैन्य संवाद बहाल करने पर सहमति बन गई है। पिछले साल अमेरिकी संसद के निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव की स्पीकर नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा से नाराज हुए चीन ने यह संवाद तोड़ लेने का एलान किया था। अमेरिका का आरोप है कि चीन के इस कदम के बाद दोनों देशों के नौ सैनिक बेड़े और लड़ाकू विमान लगभग 200 मौकों पर “खतरनाक रूप से” एक दूसरे के करीब या एक दूसरे के रास्ते में आए।

ऐसी स्थितियों में गलती या गलतफहमी से युद्ध भड़क जाने का खतरा बढ़ता जा रहा था। अमेरिका फिलहाल इस सूरत से बचना चाहता था, इसलिए उसने शी जिनपिंग की सैन फ्रांसिस्को यात्रा तय कराने और सैन्य संवाद की बहाली पर उन्हें राजी करने के लिए काफी कूटनीतिक प्रयास किए।

दोनों देश अपने-अपने कारणों से फिलहाल युद्ध से बचना चाहते हैं।

  • रूस के खिलाफ युद्ध में नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन) का मोहरा- यूक्रेन लगभग पिट चुका है। यह अमेरिकी नेतृत्व वाले इस सैनिक संधि संगठन के लिए बड़ा झटका है। मीडिया नैरेटिव पर पश्चिम के कंट्रोल के कारण अभी तक यूक्रेन की हकीकत दुनिया में बड़े पैमाने पर प्रचारित नहीं हुई है। लेकिन देर-सबेर जब ऐसा होगा, तो उससे नाटो और अमेरिका के लिए असहज स्थितियां बनेंगी।
  • इसी बीच सात अक्टूबर को हुए हमास के हमलों के बाद फिलिस्तीन-इजराइल युद्ध शुरू हो गया है, जिसमें अमेरिकी उलझाव बहुत साफ है। विश्व जनमत की राय और वैश्विक छवि के लिहाज से इजराइल को अंध समर्थन देना अमेरिका के लिए बहुत भारी पड़ रहा है।
  • इस बीच अमेरिकी अर्थव्यवस्था का संकट बढ़ रहा है। ऐसा ठीक उस समय हो रहा है, जब जो बाइडेन 2024 के राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रचार अभियान में उतरने की तैयारी में हैं। ऐसे में एशिया-प्रशांत या ताइवान जलडमरूमध्य क्षेत्र में एक और युद्ध में उतरना वे अपने माफिक नहीं मानते।

चीन की समझ यह है कि इतिहास की धारा उसके पक्ष में है। वह अपनी प्रगति को ‘शांतिपूर्ण उदय’ के रूप में परिभाषित करता है। यानी उसकी राय है कि पिछले लगभग साढ़े चार दशक में युद्ध से बचते हुए उसने अपनी पूरी ताकत आर्थिक विकास एवं अपनी जनता के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने में झोंकी और उसकी यह रणनीति कारगर रही। इससे वह एक महाशक्ति के रूप में भी उभरा है। लेकिन यह मकसद अभी अधूरा है, इसलिए युद्ध से बचना उसकी प्राथमिकता है।

उसकी चिंता यह है कि इसी बीच अगर अमेरिकी शह पर ताइवान ने ‘आजादी’ का एलान कर दिया, तो चीन के सामने युद्ध में उतरने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचेगा। ताइवान को चीन अपनी संप्रभुता से जुड़ा मुद्दा मानता है। ताइवान का चीन की मुख्य भूमि के साथ एकीकरण चीन का घोषित एजेंडा है। मगर शी जिनपिंग यह कहते रहे हैं कि अगर ताइवान ने ‘आजादी’ का एलान नहीं किया, तो एकीकरण की कोई जल्दबाजी चीन को नहीं है।

एपेक (एशिया पैसिफिक इकॉनमिक को-ऑपरेशन) शिखर सम्मेलन के मौके पर शी जिनपिंग की सैन फ्रांसिस्को यात्रा का कार्यक्रम अमेरिका से यह ठोस आश्वासन मिलने के बाद ही बना कि अमेरिका ताइवान की आजादी का समर्थन नहीं करता। शी की यात्रा के समय अमेरिका की तरफ से सार्वजनिक रूप से ये बात कही गई, जो राष्ट्रपति बाइडेन के पहले दिए उस बयान के उलट है कि ‘ताइवान की आजादी के बारे में फैसला वहां के लोगों को ही करना है।’

शी ने बाइडेन से बातचीत में यह दो टूक कहा कि ताइवान का चीन के साथ एकीकरण अपरिहार्य है और ऐसा होकर रहेगा। इस पर अमेरिका की ओर से कोई विपरीत प्रतिक्रिया नहीं जताई गई। इससे युद्ध टालने संबंधी सहमति की पृष्ठभूमि तैयार हो गई।

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) में निहित जोखिम और इसकी सुरक्षा से संबंधित मसलों पर साझा दल के गठन के निर्णय का संबंध भी इस मसले से है। वैसे यह सहमति दुनिया के लिए भी अहम है, क्योंकि इससे इस नई तकनीक के उपयोग के साझा प्रतिमान स्थापित करने में मदद मिल सकती है। साथ ही परमाणु हथियारों के इस्तेमाल और युद्ध में एआई के अनियंत्रित उपयोग की सीमाएं भी तय हो सकती हैं।

शिखर वार्ता में बनी एक अन्य सहमति का संबंध अमेरिका की घरेलू राजनीति से है। दोनों राष्ट्रपति मादक दवाओं में इस्तेमाल होने वाले पदार्थ फेंटानाइल के अंतरराष्ट्रीय कारोबार को नियंत्रित करने के लिए एक साझा दल बनाने पर सहमत हुए। अमेरिका में बढ़ती नाशाखोरी के बीच वहां इस पदार्थ पर नियंत्रण एक सियासी मुद्दा है। बाइडेन का आरोप रहा है कि इस पदार्थ का निर्यात चीन से होता है। इसलिए जाहिरा तौर पर साझा कार्यदल के गठन को लेकर बनी सहमति को वे अपनी कामयाबी के रूप में पेश करेंगे।

इसके अलावा जो बातें हुईं या सहमतियां बनीं, तो उनका कोई ठोस स्वरूप हमारे सामने नहीं है। मगर चीन ने इस शिखर वार्ता की उपलब्धियों का उल्लेख करते हुए कहा बताया है-

दोनों राष्ट्रपतियों में आम सहमति बनी कि

  • दोनों देश एक दूसरे के साथ सम्मान की भावना से पेश आएंगे
  • दोनों देश एक दूसरे का साथ शांतिपूर्ण ढंग से रहने के रास्ते तलाशेंगे
  • दोनों देश संवाद बनाए रखेंगे
  • वे आपस में टकराव से बचेंगे
  • दोनों संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र की रक्षा करेंगे
  • साझा हित के क्षेत्रों में दोनों सहयोग करेंगे,
  • और जिन क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच होड़ है, उनसे संबंधित पहलुओं को वे जिम्मेदारी से संभालेंगे

तो यह स्पष्ट है कि अमेरिका और चीन ने फिलहाल टकराव ना बढ़ाने और युद्ध से बचने का रास्ता चुन लिया है। तो अब प्रश्न है कि भारत को इस घटनाक्रम को किस तरह समझना चाहिए?

हाल के वर्षों में भारत अमेरिका की चीन विरोधी रणनीति से करीबी से जुड़ता गया है। क्वाड्रैंगुलर सिक्युरिटी डॉयलॉग (क्वैड) और एशिया पैसिफिक इकॉनमिक फ्रेमवर्क में उसकी भागीदारी इसी का ठोस संकेत है। उधर दक्षिण चीन सागर संबंधी विवादों में भारत अमेरिकी खेमे के अधिक करीब नजर आया है। ऐसे में जब अमेरिका ने खुद चीन से टकराव को सीमित रखने और युद्ध टालने का रास्ता चुना है, तो भारत के लिए क्या विकल्प बचते हैं?

इस पृष्ठभूमि में यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि क्या भारत को भी अब चीन से अपने रिश्तों को स्थिरता प्रदान करने के लिए सर्वोच्च राजनीतिक स्तर पर वार्ता में शामिल होना चाहिए? यह सवाल इसलिए अहम है, क्योंकि अभी सैन्य अधिकारियों के स्तर पर चल रही वार्ता गतिरोध का शिकार हो गई लगती है। इससे सीमा पर अप्रैल 2020 की यथास्थिति बहाल होने की संभावना कमजोर होती गई है। यह निर्विवाद है कि जब तक इसका कोई हल नहीं निकलता, आम तौर पर दोनों देशों का संबंध सामान्य होना बेहद मुश्किल है।

मगर एक तथ्य यह भी है कि पिछले तीन साल में बढ़े तनाव के बावजूद दोनों देशों के बीच व्यापार संबंध बढ़ते चले गए हैं। इस वित्त वर्ष के ताजा आंकड़ों के मुताबिक पहले छह महीनों (अप्रैल-अक्टूबर) में दोनों देशों के बीच आयात और निर्यात पहले के स्तर पर बना रहा। यह संभवतः इस बात का सबूत है कि व्यापार के मोर्चे पर चीन का कोई और विकल्प नहीं है। यह बात अमेरिका और यूरोप ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर ली है। इसीलिए उन्होंने पूर्ण संबंध विच्छेद के बजाय संबंध में निहित जोखिम को घटाने की राह चुनी है। अब भारत के नीति निर्माताओं को निर्णय लेना है कि क्या यही नीति भारत के लिए भी उपयुक्त नहीं होगी?

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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