हिंदू राष्ट्र बन सकता है, तो खालिस्तान क्यों नहीं? पंजाबी सिखों के एक बड़े हिस्से का यह सेंटिमेंट बन रहा है

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‘द प्रिंट’ के एडिटर-इन-चीफ और चेयरमैन करीब तीन सप्ताह पहले लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद ‘writing on Panjab wall’ शीर्षक से एक एपिसोड किया था। मेरी आज उस पर निगाह गई। इस एपिसोड में उन्होंने संक्षेप में लेकिन ठोस तथ्यों के आधार पर यह बताया कि पंजाब एक गहरे आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक संकट से गुजर रहा है। इस एपिसोड को देखने-सुनने के बाद पंजाब और वहां के संकट के बारे में मेरी पहले बनी मोटी-मोटा राय एक शक्ल लेने की ओर बढ़ी। 

पंजाब के लोकसभा चुनाव में इस बार उन दो इंडिपेंडेंट उम्मीदवारों की जीत इस तथ्य का सतह पर एक एक राजनीतिक प्रमाण है कि पंजाब गहरे संकट की ओर बढ़ रहा है। अमृतपाल खडूर साहिब सीट और सरबजीत सिंह खालसा ने फरीद कोट से जीत हासिल की है। अमृतपाल सिंह ‘वारिस द पंजाब’ संगठन के प्रमुख हैं। इस समय वे NSA ( राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम) के तहत असम के डिब्रूगढ़ जेल में बंद हैं। सबरजीत सिंह इंदिरा गांधी की हत्या में शामिल सुरक्षाकर्मी बेअंत सिंह के बेटे हैं। दोनों की जीत को पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन के नए सिरे से उभार और उसको आम लोगों से मिलने वाले समर्थन के रूप में देखा जा रहा है।

शेखर गुप्ता ने पंजाब के लोकसभा चुनावों के दौरान पंजाब की सघन यात्रा की। उन्होंने विशेष तौर पर अमृतपाल सिंह की लोकप्रियता और जीत के कारणों को समझने की कोशिश की। वे बताते हैं कि अमृतपाल की सबसे अधिक लोकप्रियता सिख नौजवानों के बीच है। उनको सुनने के बाद लगा कि पंजाब में सिख नौजवानों के एक बड़े हिस्से में यह बात पनप रही है और मुखर रूप से कह रहे हैं कि ‘यदि हिंदू राष्ट्र बन सकता है, तो खालिस्तान क्यों नहीं बन सकता।’ वह यह भी बताते हैं कि सिख नौजवानों में आरएसएस-भाजपा और हिंदू राष्ट्र एक बड़ा मुद्दा है।

यहां यह रेखांकित कर लेना जरूरी है कि पंजाबी, विशेषकर पंजाबी सिख आरएसएस-भाजपा को अपने लिए कितना खतरा समझते हैं, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रियता के शिखर के समय भी पंजाब में अपनी पार्टी को कोई बड़ी सफलता नहीं दिला पाए। शिरोमणि अकाली दल के साथ गठजोड़ के बाद भी 2014 और 2019 में उन्हें और उनकी पार्टी को सिर्फ दो सीटें मिलीं। इस बार खाता भी नहीं खुल पाया। 2022 के विधान सभा चुनावों में भाजपा को सिर्फ 2 सीटें मिली थीं। पंजाबियों ने कभी आरएसएस-भाजपा और नरेंद्र मोदी को पसंद नहीं किया। 2017 के विधान सभा चुनावों में भी भाजपा को सिर्फ 3 सीटें मिली थीं।

CAA-NRC विरोधी आंदोलन को भी सिखों का भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ था। इसका कारण सिर्फ सिखों का मानवतावाद नहीं था। इस आंदोलन के दौरान मैंने जब कुछ सिख समुदाय के लोगों से बात किया तो उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि जब करीब 15 प्रतिशत मुसलमानों (करीब 20 करोड़) के साथ यह व्यवहार किया जा सकता है, तो हमारे साथ क्या होगा? हम तो सिर्फ डेढ़ प्रतिशत (1.7) हैं। थोड़ा खुलने पर उन्होंने 1984 के सिखों के कत्लेआम की याद दिलाई।

करीब एक साल ( 2020-2021) तक चले विश्व के सबसे बडे़ किसान आंदोलन को निपटने की रणनीति के तहत इस किसान आंदोलन के अगुवा और काफी हद तक रीढ़ सिख किसानों को खालिस्तानी कहकर किनारे लगाने की केंद्र सरकार की प्रारंभिक रणनीति और हिंदूवादी संगठनों और व्यक्तियों द्वारा इनके खिलाफ खालिस्तानी होने के दुष्प्रचार ने पंजाबी सिखों के बडे़ हिस्से को नरेंद्र मोदी और हिंदूवादी संगठनों के प्रति नफरत को और बढ़ाया।

इसने अलगाववादी भावना भड़काने और बढ़ाने वालों को एक बड़ा मौका भी दिया। यही रणनीति-कार्यनीति नरेंद्र मोदी सरकार ने शंभू बार्डर पर आंदोलन शुरू करने वाले ( 2023) किसानों के प्रति भी अपनायी। पंजाबियों के वास्तविक संकटों की अभिव्यक्ति को खालिस्तानी या पृथकतावादी कहने की सोच और कार्यनीति पंजाब के संकट को और बढ़ा रही है।

पंजाब, विशेषकर वहां के किशोर-नौजवान कितने गहरे संकट से गुजर रहे हैं इसका अंदाजा पंजाब में ड्रग्स की फैली महामारी से लगाया जा सकता है। एक तरफ नौजवान निराशा-हताशा में ड्रग्स का रास्ता चुन रहे हैं, दूसरी तरफ उन अतिवादी व्यक्तियों और विचारों का खुलकर समर्थन कर रहे हैं, जो खुद को खालिस्तानी भावना और विचार का वाहक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। कभी वे दीप सिद्धू के साथ खडे़ होते हैं, कभी कभी अमृतपाल और सरबजीत सिंह के साथ। कनाडा की जमीन से खालिस्तानी आंदोलन चलाने वालों के प्रति भी एक बडे़ हिस्से की सहानुभूति है।

पंजाब आर्थिक तौर पर एक समृद्ध राज्य है, लेकिन यह समृद्धि उसने हरित क्रांति के दौर में मुख्यत: कृषि के विकास से हासिल की। लेकिन पिछले दो दशकों में पंजाब की विकास दर ठहर गई है। कृषि गहरे संकट का शिकार हो गई है, जो पंजाब की समृद्धि का मुख्य आधार थी और आज भी है। जहां पूरे देश के जीडीपी में कृषि का हिस्सा करीब 16 प्रतिशत है, वहीं पंजाब में जीडीपी में कृषि का हिस्सा करीब 26 प्रतिशत बना हुआ है। लेकिन यह नौजवानों के लिए कोई नया रास्ता नहीं खोल पा रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण-निजीकरण के बाद जो प्रदेश या शहर समृद्धि के केंद्र बने उसमें पंजाब या पंजाब को कोई शहर शामिल नहीं। 

पंजाब के नौजवान भारत के किसी समृद्धि के नए केंद्र बंगलुरु, हैदाराबाद, गुरुग्राम, नोएडा पलायन नहीं करते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था के समृद्धि के मुख्य आधार सर्विस सेक्टर ( भारत की कुल जीडीपी का 66 प्रतिशत) में पंजाबी सिख नौजवानों की उपस्थिति बहुत ही कम है। विशेषकर आईटी सेक्टर में उनकी उपस्थिति नहीं के बराबर है। वे कम कौशल वाले रोजगार की तलाश में कनाडा जाते हैं।

प्रति व्यक्ति आय में पंजाब तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटका, केरल और गुजरात आदि से पिछड़ता जा रहा है। पंजाब का औद्योगीकरण भी परंपरागत उद्योग तक ही सीमित होकर रह गया है, जैसे साइकिल या कपड़ा उद्योग। कपड़ा उद्योग भी तमिलनाडु आदि की तरह आधुनिकीकृत नहीं हुआ है। वह निर्यात का हब नहीं बना है। तेजी से विकसित होती आटोमोबाइल इंडस्ट्री में पंजाब की कोई रेखांकित करने योग्य उपस्थिति नहीं है। 

पंजाब हरित क्रांति की समृद्धि की विरासत के चलते धनी तो है, लेकिन ठहरा हुआ है। अर्थव्यवस्था को अगली दिशा नहीं दिखाई दे रही है। बेरोजगार नौजवानों का बड़ा हिस्सा आज भी अपने घर खा-जी सकता है, थोड़े शौक भी पाल सकता है, लेकिन न वर्तमान में कुछ दिखाई दे रहा है, न भविष्य दिख रहा है। किसी तरह हर कोशिश करके कनाडा जाना चाहता है। जो नहीं जा पाता है, उसका एक बड़ा हिस्सा ड्रग्स में डूब जाता है। ड्रग्स बडे़ पैमाने पर कारोबार होगा, तो ड्रग्स माफिया पैदा होंगे ही, उनका राजनीतिज्ञों, नौकरशाही और पुलिस महकमे से गठजोड़ कायम होगा ही। इस संदर्भ में पंजाब से बराबर रिपोर्टें आती रहती हैं। 

पंजाबी समाज के गहरे आर्थिक संकट की अभिव्यक्ति न केवल किसान आंदोलन में हुई और होती रहती है, इसके साथ ही इसकी तेजी से राजनीतिक अभिव्यक्तियां भी हो रही हैं। 2017 के विधान सभा चुनावों में पंजाबियों ने शिरोमणि अकाली दल से निजात पाने के लिए कांग्रेस को भारी बहुमत दिया। पंजाब विधानसभा की कुल 117 सीटों में 77 सीटें। अकाली दल और भाजपा गठबंधन को 20 सीटों पर समेट दिया। शिरोमणि अकाली दल को 17 और भाजपा को तीन। आम आदमी पार्टी को 20 सीटें मिली थीं। कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को जिताया इस उम्मीद से कि शायद वे उनके संकटों का कोई समाधान करें। जमीन पर कुछ नहीं हुआ। 

फिर 2022 के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस और शिरोमणि अकाली को बुरी तरह हराकर आम आदमी पार्टी से उम्मीद बांधी। आम आदमी पार्टी को भारी बहुमत दिया। 117 में 92, कांग्रेस 18 सीटों पर सिमट गई। शिरोमणि अकाली दल 3 और भाजपा को 2 सीटें मिलीं। सारे संकटों के बीच पंजाबियों ने भाजपा-आरएसएस को अपना मुख्य दुश्मन मानते हुए उन्हें पंजाब में कभी पांव पसारने नहीं दिया। इस बार के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को शिकस्त देने के लिए पंजाबियों ने कांग्रेस पर सबसे ज्यादा भरोसा जताया। 13 में से 7 सीटें देकर, आम आदमी पार्टी को 3 और शिरोमणि अकाली को 1 सीट मिली। दो इंडिपेंडेट उम्मीदवार जीते। 

पंजाब में लगातार चल रहा किसान आंदोलन, राजनीतिक उथल-पुथल, इस पार्टी या उस पार्टी को आजमाने की कोशिश और इसमें खालिस्तानी झुकाव वाले उम्मीदवारों की जीत बताती है कि पंजाब अपनी यथास्थिति को तोड़ना चाहता है। अपनी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक समस्याओं का शिद्दत से समाधान चाहता है। लेकिन कोई कारगर विकल्प बनता दिख नहीं रहा है। भारत की केंद्रीय सरकार पंजाब की इन समस्याओं का समाधान करने की जगह पंजाबियों के हर संघर्ष को खालिस्तानी कहकर बदनाम करने और उसे और बढ़ाने में लगी है।

हिंदू राष्ट्र की परियोजना और उसके दर्शन, वैचारिकी और एजेंडे को पंजाबियों पर थोपने की कोशिश कर रही है। इस प्रक्रिया में वह अलगाववादी विचारधारा, संगठनों और व्यक्तियों के लिए खाद-पानी मुहैया करा रही है। वर्तमान सरकार के पास पंजाब और पंजाबियों की समस्याओं के समाधान का कोई विजन या रोडमैप नहीं है। जैसे पूरे देश के लिए कोई उसके पास कोई विजन और रोडमैप नहीं है।

इस देश की एकता-अखंडता, शांति और प्रगति को तभी बनाये रखा जा सकता है, जब आर्थिक विकास में सबकी समान हिस्सेदारी हो। हर क्षेत्र के हितों का खयाल रखा जाए। सभी धर्मों, संस्कृति और भाषा को समान महत्व दिया जाए। देश की विविधता को स्वीकार किया जाए। किसी धर्म, संस्कृति और भाषा को थोपने की कोशिश न की जाए। हिंदू और हिंदी राष्ट्रवाद को भारत का राष्ट्रवाद न समझा जाए। ब्राह्मणवादी-हिंदू मूल्यों-आदर्शों को देश पर थोपने की कोशिश न की जाए।

भारत एक राष्ट्र नहीं है, एक उपमहाद्वीप है। अलग-अलग राष्ट्रीयताएं हैं, उनकी स्वायत्तता को स्वीकार करके एका कायम करके साथ रहा जा सकता है। इसके लिए संघीय ढांचे को कमजोर करने की जगह उसे और मजबूत बनाना होगा। भारतीय संविधान इसके लिए ढांचा मुहैया कराता है। अधिक से अधिक लोकतांत्रिक और असहमतियों को स्वीकार करने की सोच और ढांचा ही भारत जैसे विविधतापूर्ण उमहाद्वीप को एकता के सूत्र में बांध सकता है। 

यदि कोई भारत को हिंदू राष्ट्र बनना चाहेगा, तो वह खालिस्तानी राष्ट्र, द्रविड़ राष्ट्र, बंगाली राष्ट्र, असमी राष्ट्र, आदिवासी राष्ट्र, नागालैंड, कश्मीरी राष्ट्र आदि की मांगों को रोक नहीं सकता है। सेना और बंदूक के बल पर एकता अस्थायी और सतही होती है। एकता-अखंडता का मुख्य आधार आंतरिक एकता और आपसी भाईचारा होता है।

(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)

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