क्या 2024 में विपक्षी एकता परवान चढ़ेगी?

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सत्ता परिवर्तन की राजधानी पटना में कल (23 जून) कांग्रेस समेत देश की मुख्य सियासी धारा के अहम विपक्षी दल साझा मंच और साझी कनात तले मिले और निर्वाचित तानाशाही के खिलाफ एकताबद्ध रहने का संकल्प लिया। ज़ाहिर है, इस संकल्प की भूमिका  और परिणाम अगले वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में दिखाई देंगे। करीब डेढ़ दर्जन दलों की एकता-यात्रा के इस पहले पड़ाव के बाद दूसरा पड़ाव जुलाई के दूसरे सप्ताह में शिमला में होगा। फिलहाल इस यात्रा की शुरुआत प्रभावशाली और परिणाममूलक दिखाई देती है। समापन के क्षणों में मंच पर तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमों व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का यह वाक्य गौरतलब है कि किताबों में भाजपा इतिहास को बदलती है, हम उसे हटा कर इतिहास को बदलेंगे। राहुल गांधी की चेतावनी भरी भविष्यवाणी थी कि आगामी चुनावों में हम भाजपा को शिकस्त देकर रहेंगे। 

जाहिर है ऐसे संकल्पों के माहौल में मंचासीन नेता शरद पवार, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, वरिष्ठ नेता राहुल गांधी, कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री मेहबूबा  मुफ़्ती, उमर अब्दुल्ला, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, नीतीश कुमार, लालू यादव, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, मार्क्सवादी पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी, कम्युनिस्ट पार्टी के शिखर नेता डी. राजा, मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य, शिव सेना नेता आदित्य ठाकरे, संजय राउत आदि नेताओं के चेहरे दमक रहे थे।

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन की मौज़ूदगी से उत्तर भारत के नेता उत्साहित थे। लम्बे अरसे के बाद पटना-मंच पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव की सामाजिक न्यायवादी जोड़ी की उपस्थिति का अपना एक रंग अलग दिखाई दे रहा था। करीब 32 नेताओं ने समवेत स्वरों में लोकतंत्र, संविधान और संघीय ढांचे को बचाने की आवाज़ बुलंद की।  

जाहिर है, नीतीश-लालू जोड़ी का सन्देश भी उत्तर भारत के पिछड़ा वर्ग समाज को प्रभावित किये बिना नहीं रहेगा। अलबत्ता दलित समाज की नेता व पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की अनुपस्थिति ज़रूर खल रही थी। वैसे पटना-पड़ाव के सूत्रधार नीतीश कुमार ने ज़रूर यह उम्मीद जाहिर की है कि देश के और 10 दल एकता और परिवर्तन अभियान में शामिल हो जायेंगे। यदि ऐसा हो जाता है तो एक कनात तले- एक जाजिम पर करीब दो दर्जन विपक्षी दलों का मिलन हो जाएगा जिससे 2024 के चुनावों में वोटों का विभाजन रुकेगा और वर्तमान सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के सामने अभेद्य चुनौती खड़ी हो जायेगी।

राजनीति संभावनाओं का खेल है। पुराने समीकरण बिखरते हैं, नए समीकरणों का जन्म होता है। यह एक सार्विक प्रक्रिया है राजनीति की। पटना-पड़ाव की क़वायद इसी दिशा में पहला कदम है। याद करादें, देश में गठबंधन या महागठबंधन के निर्माण की क़वायद पहली कोशिश नहीं है। इससे पहले भी ऐसी क़वायदें होती रही हैं; कांग्रेस को सत्ता में आने से रोकने के लिए भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 1998-99 में विपक्ष का महागठबंधन अस्तित्व में आया था; 1977- चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ- जनता पार्टी भी विपरीत विचारधाराओं के समीकरण का परिणाम थी; 1989 के चुनावों में राजीव गांधी के खिलाफ विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में विपक्षी दलों की एकजुटता भी गठबंधन का ही शक्ल थी।

सो, पटना-पड़ाव को लेकर भाजपा नेताओं का तिलमिलाना और इसे ‘फोटू अवसर’ कहना स्वयं की विगत कवायदों व सफलताओं को कठघरे में खड़ा करना तथा झुठलाना है। असल सवाल यह है महागठबंधन की ज़रूरत क्यों पैदा होती रही है?  इसका एक ही उत्तर है और वह यह है कि जब समकालीन सत्ताधीशों पर तानाशाही व आत्ममुग्धता की प्रवृत्तियां हावी हो जाती हैं और लोकतंत्र व संवैधानिक संस्थाओं का हाशियाकरण होने लगता है तब प्रतिरोधी शक्तियां एकजुट होती हैं तथा प्रतिगामी ताक़तों से टकराती हैं। वर्तमान दौर का परिदृश्य कुछ ऐसा ही नज़र आ रहा है।

पिछले नौ सालों में लोकतंत्र और संविधान सम्मत शासन के सवाल पर भाजपा का सत्ता प्रतिष्ठान प्रतिगामी दिखाई देता रहा है। सत्ता प्रतिष्ठान से एक प्रकार से निर्वाचित अधिनायकवाद की ‘बू’ आती रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशों में लोकतंत्र का राग पंचम स्वर में अलापते हैं वहीं घरेलू मोर्चे पर विभिन्न तरीके से विपक्ष की आवाज़ का दमन करते रहते हैं। इसके साथ ही संघीय ढांचे को कमज़ोर करने से पीछे भी नहीं रहते; डबल इंजन की सरकार और केजरीवाल-सरकार के खिलाफ अध्यादेश जारी करने जैसी घटनाओं से लोकतंत्र मज़बूत नहीं होता है।

जम्मू-कश्मीर में करीब पांच साल से केंद्रीय शासन है। क्या इससे लोकतंत्र मज़बूत हो रहा है? हिंदुत्व और अखण्ड भारत की दुहाई देकर देश में ‘ध्रुवीकरण की राजनीति’ की जा रही है। जहां भाजपा हार जाती है उन प्रदेशों की निर्वाचित सरकारों को अस्त-व्यस्त करके अपनी सरकार को जनता पर थोप दिया जाता है; मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, जैसे राज्यों की घटनाएं भाजपा-शासन की निरकुंशता की तस्दीक़ करती हैं। मणिपुर की हिंसक त्रासदी में डबल इंजन की दयनीय नाकामयाबी ही दिखाई देती है।

इस पृष्ठभूमि में पटना में देश के विपक्षी शिखर नेताओं का जुटान स्वयं में ऐतिहासिक घटना है। विगत में पटना से परिवर्तन का आगाज़ होता रहा है। महागठबंधन-निर्माण के पहले पड़ाव से चमत्कारिक परिणामों की उम्मीद करना बेमानी होगा। शायद इसीलिए, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने खुलेमन से स्वीकारा भी कि हम लोगों के बीच छोटे-मोटे मतभेद हैं। लेकिन एकता का सवाल सबसे बड़ा है। इसलिए दीर्घकालीन एकता की बुनियाद है ‘साझा न्यूनतम कार्यक्रम’ बनाना। स्वाभाविक है इस कार्यक्रम के अंतर्गत  विभिन्न विचारधाराओं के दलों की अपेक्षाओं को सम्बोधित किया जाएगा।

भारत विभिन्नताओं का महासंगम है। अतः पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर-पूर्व राज्य, जम्मू-कश्मीर आदि प्रदेशों की समस्याओं और चुनौतियों का सरलीकरण भी नहीं किया जा सकता। चुनावी रणनीति को बनाते समय सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक विभिन्नताओं को ध्यान में रखना ही पड़ेगा। चुनावों में वोटों का विभाजन-बिखराव न हो, इसके लिए सर्वसम्मत फार्मूला बनाना होगा। इसके लिए यह अत्यावश्यक है कि भाजपा के विरुद्ध विपक्ष का साझा उम्मीदवार खड़ा किया जाए।

सोचा यह भी गया कि जिस प्रदेश में जो दल पहले से ही मज़बूत है उसे भाजपा-हराओ अभियान का नेतृत्व सौंपा जाना चाहिए। चूंकि, कांग्रेस सबसे बड़ा दल है और देश का पूर्व शासक दल भी रहा है इसलिए उसकी महत्वपूर्ण भूमिका को नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जाना चाहिए। इसके साथ ही कांग्रेस से भी यह अपेक्षित है कि वह सहयोगी दलों की भूमिका और योगदान को मान्यता दे। लालू यादव के मत में कांग्रेस उदारता दिखलाये। यह सच भी है कि अब क्षेत्रीय दलों की महत्वाकाक्षाओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

क्या तमिलनाडु में डीएमके के रोल को दरकिनार किया जा सकता है। यही बात उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के संबंध में कही जा सकती है। क्या मेहबूबा मुफ़्ती, फारुख अब्दुल्ला जैसे नेताओं को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है? महाराष्ट्र में शरद पवार और शिव सेना के उद्धव ठाकरे के महत्व को स्वीकार करना ही पड़ेगा। इसलिए महागठबंधन के वाहकों को संवेदनशीलता व समझदारी का प्रदर्शन करना होगा।

इस समय देश का प्रमुख अंतर्विरोध है ‘लोकतंत्र-संविधान की रक्षा’। इसके लिए महागठबंधन के सभी घटकों को ‘परस्परपूरक उदारता’ की नीति से काम लेना चाहिए। देश में यह आम धारण है कि यदि अगले वर्ष मोदी-सत्ता प्रतिष्ठान की वापसी हो जाती है तो इसके साथ ही ‘संसदीय चुनाव प्रणाली की विदाई’ की यात्रा भी शुरू हो जायेगी। ऐसा होगा ही, फिलहाल यक़ीन के साथ कहना मुश्किल है। पर लोकतांत्रिक शक्तियों-संस्थाओं के और अधिक हाशियाकरण की आशंकाओं से इंकार भी नहीं किया जा सकता।

इसलिए, इस दौर का महागठबंधन सिर्फ भाजपा विस्थापन और सत्ता प्राप्ति के लिए ही नहीं होना चाहिए, बल्कि भारत के विचार और बहुलतावादी चरित्र को सुरक्षित व सुदृढ़ बनाये बनाये रखने के लिए होना चाहिए। यदि इस ऐतिहासिक अवसर के साथ विश्वासघात होता है तो सदियां इतिहास में प्रतिरोधी शक्तियों को मुआफ़ नहीं करेंगी। पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के चिरपरिचित निराले अंदाज़ के साथ इस लेख को समाप्त किया जा सकता है- “i am fit now, अब मोदी को फिट करेंगे।”

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।) 

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