बड़ी अपेक्षाओं के साथ ब्रिटेन (स्कॉटलैंड) के ग्लासगो शहर में जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक सम्मेलन सीओपी 26 शुरू हो गया है। यह सम्मेलन पहले के कई सम्मेलनों से इस मामले में अलग है कि इसमें किसी राजनीतिक मसले पर विचार-विमर्श होने के बजाए 2015 में पेरिस में हुए वैश्विक समझौते को लागू करने की प्रक्रिया और नियमावली तय की जानी है। सम्मेलन में दुनिया के 120 से अधिक देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और राष्ट्राध्यक्षों के शामिल होने की संभावना है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी-20 की बैठक में हिस्सा लेने के बाद इटली से सीधे ग्लासगो जाएंगे।
विश्व-नेताओं का इतना बड़ा जमावड़ा इसके पहले 2009 में कोपेनहेगन और 2015 में पेरिस में हुआ था। उन सम्मेलनों का उदेश्य 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल में संशोधन करना था। जिसमें विकसित देशों को लगता था कि जलवायु परिवर्तन से निपटने की पूरी जिम्मेदारी विकसित देशों को सौंप दी गई थी। विकसित देश इसे पक्षपात पूर्ण ठहराते हुए इसे बदलने की मांग कर रहे थे। तब वैज्ञानिकों का एक तबका भी जलवायु परिवर्तन को सीधे तौर पर मानवीय गतिविधियों अर्थात विकास की गतिविधियों का परिणाम नहीं मानता था। एक तबका इसके लिए प्राकृतिक कारणों को जिम्मेदार मानता था।
इन परिस्थितियों में कोपेनहेगन सम्मेलन में कोई खास फैसला नहीं हो सका। इस लिहाज से पेरिस सम्मेलन को सफल कहा जा सकता है जब तकरीबन सर्वसम्मति से एक समझौता संपन्न हुआ जिसके तहत सभी देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती कर उसे आधी शताब्दी ( 2050) के आस पास आधा करने के लिए तैयार हुए। इसके लिए कम उत्सर्जन वाली तकनीक अपनाना था, जिसके लिए विकासशील देशों को आर्थिक सहायता देने के लिए भी विकसित देश राजी हुए। वैश्विक बजट में प्रतिवर्ष 100 खरब डालर का योगदान करना था। इसे सन 2020 से शुरु हो जाना था। पर विभिन्न कारणों जिसमें कोरोना महामारी भी है, से यह अभी शुरू नहीं हो सका है। सम्मेलन ही तय समय से एक वर्ष विलंब से हो पा रहा है।
इस ग्लासगो सम्मेलन में पेरिस समझौते को लागू करने की प्रक्रिया और नियमावली को मंजूर किया जाना है। असहमति का केवल एक मुद्दा अटका हुआ है, वह उत्सर्जन ट्रेडिंग मैकेनिज्म का है। हालांकि परिस्थितियों के कारण ग्लासगोव सम्मेलन से ढेर सारी अपेक्षाएं पैदा हो गई हैं। पिछले छह वर्षों से पेरिस समझौते की नियमावलियों को लेकर रस्साकशी होती रही है। एक समय ऐसा आया जब अमेरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस समझौते का बहिष्कार करने और इससे बाहर निकल जाने का ऐलान कर दिया। राष्ट्रपति के बदलने के बाद अमेरीका के रुख में परिवर्तन आने के आसार हैं। लेकिन जब तक जलवायु अनुकूल तकनीकों को अपनाने के लिए विकासशील देशों की सहायता करने के लिए 100 खरब डालर की वार्षिक वैश्विक बजट में अनुदान देना विकसित देश शुरू नहीं कर देते, तब तक इस मामले में पूरी स्पष्टता नहीं आ सकती। वैसे जलवायु परिवर्तन की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है। अत्यधिक बाढ़, जंगल की आग, लू चलने की घटनाएं विकसित देशों में भी होने लगी हैं।
ग्लासगोव सम्मेलन से दो अपेक्षाएं निश्चित तौर पर हैं। पहला सभी देश शून्य उत्सर्जन की स्थिति हासिल करने का लक्ष्य 2050 के आस पास तय करें और अपने देश की जलवायु कार्ययोजना को अधिक मजबूती से लागू करने पर सहमत हों। इसके साथ ही वैश्विक जलवायु बजट के लिए 100 खरब डालर का अनुदान देना आरंभ करें। शून्य उत्सर्जन का मतलब है कि देश जितना कार्बन का उत्सर्जन करे, उतना जंगल व दूसरे साधनों से अवशोषित कर लिया जाए। हालांकि करीब 70 देशों ने 2050 के आसपास शून्य-उत्सर्जन प्राप्त करने के समझौते पर हस्ताक्षर किया है। परन्तु अनेक बड़े विकासशील देशों ने अभी इसे मंजूर नहीं किया है जिनमें भारत भी शामिल है। भारत का कहना है कि वह ग्लास्गोव में जलवायु वैश्विक बजट के लिए अधिक रकम की व्यवस्था करने पर जोर देगा।
(अमरनाथ जलवायु एवं पर्यावरण से जुड़े मामलों के जानकार हैं और आजकल पटना में रहते हैं।)
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