विपक्ष को चाहिए कि वह संसद की समानांतर बैठक बुलाये!

देश के किसानों ने राजधानी दिल्ली को इस हाड़ कंपाने वाली सर्दी में खुले आसमान के नीचे पिछले 25 दिनों से घेर रखा है। इसमें उनके साथ बच्चे, महिलाएं और उम्र के आखिरी पड़ाव पर खड़े बुजुर्ग तक शामिल हैं। बस उनकी एक चाहत है कि उनके लिए लाए गए कानून को सरकार वापस ले ले। लोकतंत्र का यह बुनियादी उसूल होता है कि किसी को लेकर कोई चीज बनायी जाए तो उसमें उसकी राय ज़रूर ली जानी चाहिए। लेकिन यहां उलटी गंगा बहायी गयी है। जिसके ऊपर इन नीतियों का असर पड़ेगा उससे नहीं पूछा गया लेकिन जिनको इससे लाभ है उस कारपोरेट के पक्ष में सरकार सीना तान कर खड़ी है।

समस्या को हल करने के नाम पर सरकार ने चंद बैठकें की हैं जिसमें गंभीरता से चीजों को हल करने की जगह औपचारिकता पूरी करने का जोर ज्यादा रहा है। सचमुच में सरकार अगर गंभीर होती तो बैठक में अपने उन नेताओं को लगाती जिनका किसानों से कुछ सरोकार रहा है। या जिन्हें अब तक अपनी पार्टी में वह किसानों के नेताओं के तौर पर पेश करती रही है। इस मामले में राजनाथ सिंह सबसे मुफीद होते। लेकिन यहां लगाया गया पीयूष गोयल को जो शुद्ध रूप से कारपोरेट के आदमी हैं और किसानों से जिनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं रहा है। उनका पालन पोषण मुंबई की उस मायानगरी में हुआ है जिनके बच्चों को किसान नामक जीव सिर्फ किताबों में या फिर उनकी कल्पनाओं में दिखते हैं।

नरेंद्र सिंह तोमर को किसान पहले ही खारिज कर चुके हैं। लेकिन सरकार को न तो कोई समझौता करना था और न ही किसी नतीजे पर पहुंचना था इसलिए वह वार्ता-वार्ता खेलती रही। भला इसके लिए उसे क्या चाहिए? एक हाल, चार लोग और मंत्रियों का कुछ समय। दरअसल इसके जरिये सरकार की रणनीति यह थी कि कैसे किसानों को एक्जास्ट कर दिया जाए और आखिर में वो थक-हार कर अपने घर वापस चले जाएं। लेकिन किसान हैं कि उनका हौसला बुलंद है। और वो एक कदम भी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं हैं। ऊपर से उनकी राजधानी की घेरे बंदी और तेज होती जा रही है। ऐसे में सरकार के अब हाथ-पांव फूलने लगे हैं।

इतना समय बीत जाने के बाद जबकि वार्ताओं के स्तर पर भी अब डेडलॉक की स्थिति खड़ी हो गयी है। देश के प्रधान सेवक को लगा कि उन्हें चुप नहीं बैठना चाहिए। तो उन्होंने जंगल के उस बंदर की तरह उछल कूद शुरू कर दी। जिसके हाथ में जंगल का शासन आया था। बजाय अपने घर से चंद किलोमीटर की दूरी पर बैठे किसानों से मिलने के उन्होंने कच्छ जाकर पगड़ीधारी कुछ सिखों से मुलाकात की। और जले पर नमक यह कि उनसे किसानों के मसले पर बात करने की जगह वहां के किसी गुरुद्वारा से जुड़े मुद्दे पर बात की। और उसके बाद मोदी जी ने वह किया जो कोई क्रूर तानाशाह शासक भी करने से परहेज करे। जब दिल्ली में खुले आसमान के नीचे किसान किसी तरीके से सर्दी के गुजर जाने की राह देख रहे थे उस समय देश का यह फकीर सिर में साफा बांधकर नर्तकियों का नृत्य देखने में मशगूल था।

शायद ही  देश ने पिछले 70 सालों में इस तरह का कोई शासक और ऐसी संवेदनहीन सरकार देखी हो। दिल्ली लौट कर एक बार फिर मोदी ने सिंघु या टिकरी बार्डर जाने की जगह दिल्ली स्थित रकाबगंज गुरुद्वारा का दौरा किया। और वहां गुरुग्रंथ साहब के सामने मत्था टेका। लेकिन मोदी जी को यह समझना चाहिए कि अगर गुरुग्रंथ साहब के शिष्य खुश नहीं रहेंगे तो उनके मत्था टेकने से गुरू भी उनसे प्रसन्न नहीं होने जा रहे हैं। लेकिन मोदी का न तो सिख धर्म से कुछ लेना देना है और न ही उस गुरुग्रंथ साहब से। मोदी सिर्फ एक काम जानते हैं। वह है धर्म का इस्तेमाल। इन सारी कवायदों के जरिये मोदी ने न सिर्फ किसानों का अपमान किया है बल्कि पूरे आंदोलन के खिलाफ एक किस्म की साजिश रची है। यह उनकी शातिराना चाल है जिसके जरिये वह पूरे किसान आंदोलन को सिर्फ पंजाब और उसमें भी सिखों के आंदोलन के तौर पर पेश कर देना चाहते हैं। और ये सारी कवायदें इसी साजिश का हिस्सा थीं। इस बात में कोई शक नहीं कि आंदोलन में पंजाब और हरियाणा की भागीदारी बहुत ज्यादा है। लेकिन जयपुर हाईवे पर जो लोग राजस्थान से आकर बैठे हैं, क्या वो किसान नहीं हैं?  या कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आकर गाजीपुर बार्डर को जाम करने वाले किसान नहीं हैं? चिल्ला में बैठे इसी तरह के किसानों का खेती से कोई रिश्ता नहीं है? और हां अब जबकि ओ राजगोपाल के नेतृत्व में पचासों हजार का जत्था मध्य प्रदेश से निकल पड़ा है। उसे किसान नहीं मानेंगे? और अब महाराष्ट्र भी उसी तरह की तैयारी कर दिल्ली कूच करने वाला है जिसके जरिये उसने पैदल चलकर अपने सूबे की सरकार को झुकाया था और उसके मुंबई पहुंचते-पहुंचते सरकार ने उसके सामने समर्पण कर दिया था।

लिहाजा इस किसान आंदोलन को पूरे देश के किसानों का समर्थन हासिल है। सरकार को यह गलतफहमी दिल से निकाल देनी चाहिए कि वह किसी एक खास क्षेत्र या फिर खास तबके का आंदोलन है। और अब जबकि चार हफ्ते बीत गए हैं देश और समाज के दूसरे हिस्सों का भी इस आंदोलन को पूरा समर्थन हासिल हो गया है। हां, यह बात ज़रूर है कि उसे सड़क पर दिखाने का जो प्रयास विपक्षी राजनीतिक दलों की तरफ से होना चाहिए था वह कहीं दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है। यह बात अब किसी से छुपी नहीं है कि लड़ाई कारपोरेट बनाम किसान है। और उसमें सरकार महज बिचौलिया भर है। और उसने अपने अस्तित्व को कारपोरेट के हितों से जोड़ लिया है। लेकिन विपक्ष को क्यों नहीं यह बात समझ में आ रही है कि अगर कारपोरेट बनाम किसान है तो मामला कारपोरेट बनाम मजदूर भी है और कारपोरेट बनाम सार्वजनिक क्षेत्र और कारपोरेट बनाम आदिवासी भी है। क्योंकि किसान की खेती हो या कि आदिवासियों की जमीन, सरकारी कंपनियां हों या कि उनकी जमीन। कारपोरेट सब पर कब्जा कर लेना चाहता है। लिहाजा इस अडानी-अंबानी-मोदी राज के खिलाफ किसान अगर उठ खड़ा हुआ है तो बाकी मजदूरों, आदिवासियों और कर्मचारियों को जोड़ने की जिम्मेदारी उसकी है। लेकिन इस तरह की न तो कोई पहलकदमी हो रही है और न उस दिशा में कोई जुंबिश दिख रही है। विपक्ष और उसके नेता पैर तोड़कर बैठे हुए हैं। 

विपक्ष किस हद तक अकर्मण्य हो गया है वह सरकार द्वारा संसद का शीतकालीन सत्र न बुलाने की घोषणा में देखी जा सकती है। सरकार ने कहा कि कोविड के चलते सत्र बुलाना मुश्किल है और विपक्ष ने मान लिया। जबकि इस दौरान गृहमंत्री अमित शाह को पश्चिम बंगाल की अपनी रैलियों में लाखों लोगों को एक जगह इकट्ठा करने से कोई परहेज नहीं है। लेकिन 545 लोगों को निश्चित दूरी के साथ बैठाने में सरकार को कोराना का कहर दिख रहा है। अब इससे बड़ा फर्जी तर्क और क्या हो सकता है। लेकिन सरकार चाहती है कि पूरा देश इसको मान ले। यह खुलेआम लोकतंत्र को जमींदोज करने की साजिश है। कोई मोदी से पूछे कि अगर देश में लोकतंत्र ही नहीं रहेगा तो नये संसद भवन की क्या जरूरत है। अगर बैठकें ही नहीं होंगी तो किसी ढांचे की क्या आवश्यकता? लेकिन मोदी तो संघ की इच्छा पूरी कर रहे हैं। और इस देश से लोकतंत्र को खत्म कर सनातनी व्यवस्था लागू करने के संघ के लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि विपक्ष क्या कर रहा है। क्या उसने समर्पण कर दिया है या फिर वह भी संघ के लक्ष्य के साथ खड़ा हो गया है? अगर लोकतंत्र को बचाना है तो संसद सत्र को बुलवाना होगा। और फिर उसके लिए लड़ना होगा। यह लड़ाई कोई किसान, कोई मजदूर, कोई आदिवासी नहीं बल्कि दिल्ली में बैठे विपक्षी दलों और उनके नेताओं को लड़नी होगी। यह उनकी निजी और उनके अपने अस्तित्व की लड़ाई है।

कहां तो आशा की जा रही थी कि विपक्ष किसानों समेत जनता की लड़ाई लड़ेगा लेकिन शर्मनाक बात यह है कि वह अपनी लड़ाई भी लड़ने के लिए तैयार नहीं है। शीतकालीन सत्र न चलाने की घोषणा के बाद क्या किसी को विपक्ष की तरफ से ऐसी प्रतिक्रिया दिखी है जिससे सरकार को कोई असर पहुंचा हो। किसान अगर अपने लिए खुले आसमान के नीचे बैठ सकते हैं तो विपक्ष क्यों नहीं संसद और लोकतंत्र के अस्तित्व को बचाने के लिए यह काम कर सकता है? यह उसकी बुनियादी जिम्मेदारी बनती है कि देश में जब संविधान और लोकतंत्र पर संकट आ गया है तो वह उसको बचाने के लिए आगे आए। अगर सरकार संसद का सत्र नहीं बुलाती है तो विपक्ष क्यों नहीं उसका समानांतर सत्र बुला सकता है? अगर संसद न मिले तो संसद के परिसर में और परिसर न मिले तो जंतर-मंतर पर और वह भी न मिले तो उसे खुले आसमान के नीचे किसानों के बीच संसद लगानी चाहिए और उस सत्र का सिर्फ एक एजेंडा हो किसानों का बिल। और विपक्ष को सरकारी पिट्ठू हरिवंश नारायण सिंह के घृणित रवैये के चलते जो मौका राज्यसभा में नहीं मिल पाया था उसको यहां पूरा करना चाहिए और सत्ता पक्ष से भी ज्यादा वोटों के साथ विधेयक को गिराना चाहिए। यह देश के इतिहास में एक नजीर बन जाएगी। जब सत्ता पक्ष रावण बनकर लोकतंत्र का अपहरण कर रहा था तब विपक्ष ने किस तरह से उसे बचाने का काम किया। 

बहरहाल विपक्ष कब जागेगा यह तो वह ही जाने। लेकिन देश की सबसे बड़ी पार्टी और उसके सबसे बड़े चेहरे राहुल गांधी के लिए एक मुफ्त सलाह ज़रूर है। कई लड़ाइयां कमरों में हल नहीं होतीं उनका आखिरी फैसला सड़कों पर होता है। और इस मामले में किसी और से ज्यादा खुद कांग्रेस ही सबसे बड़ी नजीर है। इंदिरा गांधी जब 67 में सत्ता संभालीं तो पार्टी में बैठे तमाम धुरंधरों की चौकड़ी ने उन्हें गूंगी गुड़िया घोषित कर दिया था लेकिन उन सब पर वह कैसे अकेले भारी पड़ीं वह एक इतिहास है। ऐसे में परिस्थितियां अनुकूल हैं। जनता को नेतृत्व चाहिए। इस मौके को उन्हें हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।

कारपोरेट का मामला होने के चलते एकबारगी कांग्रेस हिचक सकती है। लेकिन लेफ्ट के सामने क्या दुविधा है। सुना है सीताराम येचुरी ने सरकार से अपील किया है कि वह किसानों के आंदोलन के लिए जगह दे दे। येचुरी जी अब कोई जगह दिलवाकर उन्हें दड़बे में बंद मत करवाइये। उन्होंने पूरे देश की धरती को ही रणभूमि में तब्दील करवा दिया है। जिस काम को आप को करना चाहिए था यानि किसानों के साथ बाकी मजदूरों, कर्मचारियों और आदिवासियों को जोड़ना, वह खुद ब खुद होता जा रहा है। इस समय उनके साथ न केवल किसान बल्कि देश के मजदूर, दलित-वंचित तबके, बेरोजगार युवा और शिक्षा के निजीकरण के मारे छात्र और पूरे मध्य वर्ग की भावनाएं जुड़ गयी हैं। सीमा पर तैनात किसानों के बेटे अपने पिताओं के पक्ष में हैं। और सरकार भी यह बात जान गयी है कि अगर उसने किसी तरह के दमन का सहारा लिया तो देश में विद्रोह की स्थिति खड़ी हो जाएगी। इसीलिए उसकी रणनीति किसानों को थका कर घर भेजने की है। लेकिन किसानों की भी जिद है कि वह फैसला करवा कर ही लौटेगा। 

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)

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