ग़रीबों और मज़दूरों ने प्रधानमंत्री के ‘मन की’ तो सुनी, लेकिन उनकी ‘बात’ कहाँ थी!

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प्रधानमंत्री ने 12 मई के अपने राष्ट्रीय के सन्देश में क्या-क्या कहा, ये तो अब तक आप जान ही चुके होंगे। मेरी बात उससे आगे की है। पहली तो यही कि 34 मिनट के भाषण में 2,000 से ज़्यादा शब्दों को पिरोकर जो कुछ कहा गया, उसे महज एक ट्वीट से भी कहा जा सकता है, तो फिर इतने बड़े आयोजन की क्या ज़रूरत थी? एक ट्वीट की सीमा 280 अक्षरों की होती है। प्रधानमंत्री इसी सीमा में रहकर देश को रोज़ाना ख़बरें देते रहते हैं। फिर सिर्फ़ तीन बातों के लिए सारे देश को टीवी के सामने बैठाने की क्या ज़रूरत थी?

प्रधानमंत्री देश को बताना चाहते थे कि ‘1. कोरोना ने सिखाया है कि हम आत्मनिर्भर बनें। 2. इससे चरामराई अर्थव्यवस्था में जान फूँकने के लिए सरकार 20 लाख करोड़ रुपये का पैकेज़ लाएगी। इसका ब्यौरा वित्त मंत्री देंगी। 3. लॉकडाउन का चौथा दौर भी आएगा। ये नये रंग-ढंग वाला होगा। इसका ब्यौरा 18 मई से पहले दे दिया जाएगा।’ इस तरह, सारी बात 273 अक्षरों में समा गयी। चलिए मान लिया कि इन्हीं बातों को विस्तार से बताने के लिए देश के नेता का देश की जनता के नाम टीवी पर सम्बोधन बहुत ज़रूरी था, क्योंकि ऑडियो-वीडियो माध्यम की ख़ासियत ही यही है कि जनता को लगता है कि प्रधानमंत्री जी अपनी अति-व्यस्त दिनचर्या में से वक़्त निकालकर उसके घरों में आकर अपने ‘मन की बात’ रख रहे हैं।

जनता का फ़र्ज़ है कि वो अपने नेता की बातें सुने और समझे। भले ही वो निखालिस ‘मन की बात’ ही हो, लेकिन उसे ही सबसे ‘काम की बात समझे’। बाक़ी, कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौरान प्रधानमंत्री के पास इतनी फ़ुर्सत भला कैसे हो सकती है कि वो इस बात की परवाह करें कि आख़िर अभी जनता उनसे कौन-कौन सी ‘पते की बात’ जानना चाहती है? मसलन, ज़रा आप ख़ुद से पूछिए कि क्या आप ये नहीं जानना चाहते थे कि लॉकडाउन के दो महीनों में अपनी रोज़ी-रोटी से हाथ धो बैठे ग़रीबों और निम्न मध्यम वर्ग के 12-13 करोड़ लोगों के प्रति प्रधानमंत्री क्या संवेदनशीलता रखते हैं?

इसी तरह, चिलचिलाती धूप में सैकड़ों किलोमीटर लम्बी सड़कों को पैदल नापने के लिए मज़बूर हुए लाखों-करोड़ों प्रवासी मज़दूरों के लिए क्या प्रधानमंत्री के पास कोई नुस्ख़ा है? क्या कोई ऐसी तरक़ीब है जिससे इन बेसहारा ग़रीबों को उनके घरों तक पहुँचना आसान हो सके? क्या प्रधानमंत्री को अपनी उस मशविरे पर विस्तार से बातें नहीं करनी चाहिए थी, जिसमें उन्होंने उद्यमियों से अपने कर्मचारियों की तनख़्वाह में कटौती नहीं करने का आग्रह किया था, लेकिन इसका प्रभावित लोगों पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। तनख़्वाह तो दूर करोड़ों की संख्या में बेचारे मेहनतकश लोगों को नौकरी से ही हाथ धोना पड़ा। करोड़ों लोगों को उनकी बक़ाया मज़दूरी भी नहीं मिली।

प्रधानमंत्री ने ये भी नहीं बताया कि आख़िर वो ग़रीबों के प्रति इतने निर्मोही क्यों हैं? जबकि सम्पन्न तबके की हरेक उलझन का समाधान वो झटपट कर देते हैं। जैसे, ग़रीबों के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेनें माँग के मुक़ाबले अत्यधिक कम हैं। इनका ऐलान भी तब हुआ जब शहरों में रहने वाले करोड़ों लोगों का सरकारों पर से भरोसा उठ गया। उन्हें लगा कि सरकार या उन लोगों के भरोसे रहे जिन्हें वो सम्पन्न बनाते हैं तो वो ख़ुद तथा उनका परिवार भूखे मर जाएगा। लिहाज़ा, जैसे हो तैसे निकल पड़ो शहरों से और चल दो गाँव की ओर। कोई साधन नहीं है तो पैदल ही चल दो, लेकिन सरकार से कोई उम्मीद मत रखो।

ऐसी मनोदशा में जीने वाले आधे से ज़्यादा भारत के लिए प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सम्बोधन में एक शब्द नहीं था। अस्पतालों में कोरोना से जूझ रहे चिकित्सा कर्मियों में भी नया जोश भरने वाली कोई बात प्रधानमंत्री के मुख से प्रस्फुटित नहीं हुई। हालाँकि, मुमकिन है कि उन्होंने सोचा हो कि इनके लिए ताली-थाली बजवा दी, अन्धेरा-दीया करवा दिया, पुष्प-वर्षा करवा दी और क्या करूँ? वैसे इन ‘कोरोना वॉरियर्स’ को उन्होंने बता दिया कि अब उन्हें ‘लोकल’ पीपीई किट और टेस्टिंग किट मिलने लगेंगी क्योंकि लॉकडाउन के बावजूद भारत ने तेज़ी से विकास करते हुए इन्हें देश में ही बनाना शुरू कर दिया है। आत्मनिर्भरता की ऐसी मिसाल से आयात पर हमारी निर्भरता घटी है। बहुमूल्य विदेशी मुद्रा की बचत हुई है। रोज़गार के नये और दुर्लभ दरवाज़े खुले हैं।

इसे कहते हैं, चुनौतियों को अवसर में बदलना। ऐसा ही क्रान्तिकारी बदलाव श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके लाया गया है। अब यदि  मज़दूरों को ‘वोकल फॉर लोकल’ के सपने को साकार करने के लिए वाक़ई में काम मिलने लगेगा तो उन्हें पहले से डेढ़ गुना ज़्यादा मेहनत करनी होगी। यानी, 8 घंटे की जगह 12 घंटे की शिफ़्ट। बदले में उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा पहले जितना ही वेतन मिलेगा। हालाँकि, सरकार कह रही है कि काम के घंटों की तरह वेतन भी डेढ़ गुना हो जाएगा। लेकिन ये सिर्फ़ दूर के ढोल हैं। उद्यमी मज़बूरों की लाचारी का भरपूर फ़ायदा उठाकर उनका शोषण वैसे ही करेंगे जैसे कोरोना संकट के पहले तक होता रहा है।

जब बेरोज़गारी चरम पर होगी तो नियोक्ता या इम्पलायर्स कम से कम मज़दूरी क्यों नहीं देना चाहेंगे? क्या वो अपने मुनाफ़े को ज़्यादा से ज़्यादा करने का स्वभाव त्याग देंगे? पहले मज़दूरों से 12 घंटे काम करवाना ख़ासा महँगा पड़ता था, लेकिन 8 घंटे की ड्यूटी से ऊपर काम करने पर वो ओवर टाइम वाली मज़दूरी के हक़दार होते थे, वो उनकी सामान्य मज़दूरी से दोगुनी होती थी। इस तरह 12 घंटे काम करके उन्हें दो दिन की मज़दूरी मिलती थी। लेकिन अब एक दिन की ही मिलेगी। पहले यदि किसी उद्यमी को लम्बे वक़्त तक ज़्यादा मज़दूरों की ज़रूरत पड़ती थी तो वो ओवर टाइम देने के बजाय नये मज़दूरों को रोज़गार देकर डबल शिफ़्ट में उत्पादन करना चाहता था। जो फ़ैक्ट्रियाँ 24 घंटे चलने वाली हैं, वहाँ तीन शिफ़्ट की जगह अब दो ही शिफ़्ट से बात बन जाएगी। यानी, तीसरी शिफ़्ट में खपने वाले मज़दूर अब बेरोज़गार रहेंगे।

मज़दूरों का अन्य सभी तरह से शोषण होगा, वो शारीरिक और मानसिक रूप से कुपोषित होंगे। लेकिन श्रम क़ानूनों के निलम्बित होने की वजह से उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होगी। लेकिन इस सर्वहारा वर्ग के लिए प्रधानमंत्री के चिन्तन में कोई जगह नहीं है। वर्ना, वो अपने राष्ट्रीय सम्बोधन में इसका विस्तार से वर्णन क्यों नहीं करते? इसीलिए, अब 20 लाख करोड़ रुपये का जो पैकेज़ सरकार की ओर से रवाना होने की तैयारी में है, उसमें से भी सबसे बड़ा हिस्सा उद्योगों के पास ही जाएगा। किसानों और ग़रीबों के लिए वैसे ही कुछ रस्म निभायी जाएँगी, जैसा बीते दो महीनों में हमने देखा है। किसी को 500, किसी को हज़ार, किसी को 2000, किसी को मुफ़्त सिलेंडर जैसी कुछ चीज़ें यदि वित्त मंत्री के पिटारे से निकल आएँ तो ख़ुशियाँ मनायी जा सकती हैं।

बाक़ी, बड़े उद्योगों को ढेरों रियायतें मिलेंगी। चीन से भारत में कारोबार शिफ़्ट करने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सारा सुख देने की योजना भी बनायी जाएगी। लेकिन ऐसी कम्पनियाँ शायद ही बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे किसी बीमारू राज्य में पहुँचेगी। इन्हें तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र और गुजरात से आगे उत्तर की ओर बढ़ने ही नहीं दिया जाएगा। उत्तर भारतीय राज्यों के मज़दूरों को फिर ये वहीं जाना पड़ेगा जहाँ से पलायन के लिए लॉकडाउन ने उन्हें मज़बूर किया था।

इसी तरह, काश! प्रधानमंत्री ने दूध उत्पादन करने वालों और फल-फूल-सब्ज़ी की खेती करने वाले किसानों के दुःख दर्द के प्रति भी कोई संवेदना जतायी होती। ‘वोकल फ़ॉर लोकल’ वाले दो बोल इनके लिए भी बोले होते। क्योंकि इन किसानों की संख्या प्रवासी मज़दूरों से भी कहीं बड़ी है। इन्हें अपनी तैयार फ़सलों को खेतों में सड़ने के लिए इसीलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि इनके पास उपज को मन्दी तक ले जाने का साधन नहीं था। मज़दूरों को जहाँ नौकरी से हाथ धोना पड़ा, वहीं किसानों की दशा ऐसी थी मानो उन्होंने ख़ुद अपने रुपयों की होली जलायी हो। गाँवों में रहने वाला ये तबका भी बहुत बड़ा है। देश भर में फैला हुआ है। लेकिन ऐसे कमज़ोर और मज़बूर लोगों के लिए प्रधानमंत्री के सम्बोधन में ‘आत्म-निर्भरता’ के सिवाय कोई झुनझुना नहीं था। 

मेनस्ट्रीम मीडिया तो ‘20 लाख करोड़ रुपये’ की संख्या से ही गदगद है। उसे इसमें किसी जुमले की बास नहीं आ रही है। वर्ना, वो कम से कम इतना तो जानने की कोशिश करता कि आख़िर चार महीने से राज्यों को उनका जीएसटी नहीं दे पाने वाले, शराब बेचकर ज़िन्दा रहने की जुगत लगाने वाले, पेट्रोल-डीज़ल पर 250 प्रतिशत तक टैक्स वसूलने वाली सरकार अपने पैकेज़ की रक़म लाएगी कहाँ से? रिज़र्व बैंक को और निचोड़ना शायद ही सम्भव हो। बैंकिंग सेक्टर को एनपीए और विदेश भाग चुके शूरमा पहले ही खोखला कर गये।

तो क्या माँग की लिए तरस रही अर्थव्यवस्था में, आमदनी में गिरावट झेल रही जनता पर और टैक्स थोपे जाएँगे? बाज़ार या विदेश से कर्ज़ लिया जाएगा, सरकारी कम्पनियों को औने-पौने दाम पर बेचा जाएगा या नये नोट छापे जाएँगे? ये सवाल प्रधानमंत्री से पूछे नहीं जा सकते, क्योंकि उन्हें सवाल पसन्द नहीं हैं। जवाबों से पर्दा धीरे-धीरे उठेगा। फ़िलहाल, लॉकडाउन 4.0 के नये रंग-ढंग का इन्तज़ार कीजिए। बाक़ी प्रधानमंत्री अच्छी तरह समझा चुके हैं कि अब देश को कोरोना के साथ जीने का कौशल सीखना होगा। सरकार के भरोसे रहने की ज़रूरत नहीं है। आत्म-निर्भरता का ये भी तो मतलब है।

(मुकेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं। तीन दशक लम्बे पेशेवर अनुभव के दौरान इन्होंने दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, उदयपुर और मुम्बई स्थित न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में काम किया। अभी दिल्ली में रहते हैं।)

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