Friday, April 26, 2024

लपट हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रही है: अरुंधति

गुड आफ़्टरनून, और मुझे सिसी फेरेन्टहोल्ड लेक्चर देने के लिए बुलाने के लिए आपका शुक्रिया। मैं लेक्चर शुरू करूँ, इससे पहले मैं यूक्रेन में जंग के बारे में कुछ बातें कहना चाहूँगी। मैं रूसी हमले की साफ़ शब्दों में निंदा करती हूँ और यूक्रेनी अवाम के साहसिक प्रतिरोध की तारीफ़ करती हूँ। मैं उन असहमत रूसी लोगों के साहस की तारीफ़ भी करती हूँ जिसके लिए उन्होंने भारी क़ीमत चुकाई।

ऐसा कहते हुए मुझे संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप के दोमुंहेपन का गहरा दर्द भरा अहसास भी है, जिन्होंने साथ मिल कर दुनिया के दूसरे मुल्कों पर ऐसी ही जंगें छेड़ी हैं। साथ मिल कर इन्होंने परमाणु होड़ का नेतृत्व किया है और इतने हथियारों का ज़ख़ीरा इकट्ठा कर लिया है जो हमारी पृथ्वी को कई-कई बार तबाह कर सकते हैं। कैसी विडंबना है कि सिर्फ़ इस वजह से कि उनके पास ऐसे हथियार मौजूद हैं, अब वे बेचारगी में एक ऐसे मुल्क को तबाह होते हुए देखने को मजबूर हैं, जिसे वे अपना साथी मानते हैं – एक मुल्क जिसके अवाम और ज़मीन को, जिसके पूरे वजूद को, साम्राज्यवादी ताक़तों ने अपने जंगी खेलों और प्रभुत्व की अपनी अंतहीन लालसा के चलते ख़तरे में डाल दिया है।

और अब मैं भारत पर लौटती हूँ। इस लेक्चर को मैं भारत में ज़मीर के क़ैदियों की बढ़ती जा रही तादाद को समर्पित करती हूँ। मैं हम सबसे गुज़ारिश करती हूँ कि हम प्रोफ़ेसर जीएन साईबाबा को याद करें, उन विद्वानों, एक्टिविस्टों, गायकों, वकीलों को याद करें जिन्हें भीमा कोरेगाँव 16 के नाम से जाना जाता है, सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) का विरोध करने वाले जेल में बंद एक्टिविस्टों को याद करें, और खुर्रम परवेज़ को याद करें जिन्हें कश्मीर में पाँच महीनों पहले गिरफ्तार कर लिया गया। मैं जितने असाधारण लोगों को जानती हूँ, खुर्रम उनमें से एक हैं। वे, और जिस संगठन के लिए वे काम करते हैं, जम्मू कश्मीर कोअलिशन ऑफ सिविल सोसायटी (जेकेसीसीएस), वह संगठन टॉर्चरों, गुमशुदा किए जाने वाले लोगों, और कश्मीर के लोगों की मौतों की दास्तानों को बड़े सलीके से दर्ज करते रहे हैं। इसलिए, आज मैं जो कहने वाली हूँ, वह इन सब लोगों को समर्पित है।

भारत में असहमति को जुर्म बना दिया गया है। अभी हाल तक असहमति रखने वालों को राष्ट्र-विरोधी कहा जाता था। अब उन्हें खुलेआम बौद्धिक आतंकवादी कहा जाने लगा है। ख़ौफ़नाक ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) को मौजूदा सरकार ने इस तरह संशोधित किया है ताकि उसमें बौद्धिक आतंकवाद के बारे में इसकी सनक को भी शामिल किया जा सके। इस अधिनियम के तहत लोगों को बरसों तक बिना किसी सुनवाई के जेल में रखा जा रहा है। हम सभी को माओवादी कहा जाता है, रोज़मर्रा की ज़ुबान में हमें अर्बन (शहरी) नक्सल या जिहादी कहा जाता है, और हम सभी उनके निशाने पर हैं, और भीड़ या परेशान करने वाला क़ानूनी फंदा कभी भी हिसाब लेने आ सकते हैं।

नई दिल्ली से रवाना हुए मुझे अभी बस कुछ दिन ही हुए हैं। इन कुछ दिनों में ही वहाँ होने वाली घटनाओं की रफ़्तार ने यह साफ़ कर दिया है कि हमने किसी क़िस्म की एक दहलीज़ पार कर ली है। हम उन किनारों पर अब नहीं लौट सकते हैं, जिन्हें हम कभी पहचानते थे और अपना मानते थे।

मार्च 2022 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में एक अभूतपूर्व दूसरा कार्यकाल जीत लिया। उप्र के चुनावों को अक्सर आम चुनावों का सेमीफाइनल माना जाता है, ये आम चुनाव मई 2024 में होने की उम्मीद हैं। इन चुनाव अभियानों में भगवाधारी योगी ने मुसलमानों के खुलेआम जनसंहार का, और उनके सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार का आह्वान किया था। 

चुनाव नतीजों में भाजपा की जीत जहाँ मज़बूत दिख रही है, वहीं ज़मीन पर टक्कर उन्हें हासिल सीटों की संख्या के हिसाब से कहीं ज़्यादा सख़्त थी। ऐसा लगता है कि इन नतीजों ने भाजपा के कार्यकर्ताओं और नेताओं में घबराहट और ज़रूरत से ज़्यादा आत्मविश्वास का एक अजीब, और बेचैनी भरा मेल तैयार किया है। चुनावी नतीजों की घोषणा के बाद बहुत दिन नहीं बीते थे, जब हिंदुओं ने रामनवमी का त्योहार मनाया, जो इस साल रमज़ान के साथ-साथ आया। रामनवमी मनाने के लिए हिंदू भीड़ ने तलवारों और डंडों से लैस होकर ग्यारह शहरों में बलवा किया। स्वामियों और भाजपा कार्यकर्ताओं की रहनुमाई में, वे मुसलमान बस्तियों में घुसे, मस्जिदों के बाहर दोहरे मतलब वाले नारे लगाए, अश्लील गाली-गलौज की, मुसलमान औरतों के बलात्कार करने और उन्हें गर्भवती बनाने और मुसलमान मर्दों के नरसंहार का खुला आह्वान किया।

मुसलमानों की तरफ़ से किसी भी तरह का जवाब आया, तो उसके नतीजे में उनके घरों या दुकानों को सरकार ने ढहा दिया या भीड़ ने जला दिया। जो लोग गिरफ्तार किए गए, उनमें से करीब-करीब सभी मुसलमान हैं, और उन पर साज़िश करने, दंगा फैलाने के आरोप हैं और सारे अंदेशे इसके हैं कि वे बरसों तक जेलों में बंद रहेंगे। जिन लोगों पर आरोप लगाए गए हैं, उनमें से एक रामनवमी से काफ़ी पहले से ही जेल में हैं। एक दूसरे इंसान, वसीम शेख़, पर एक हिंदू जुलूस पर पत्थर फेंकने के आरोप हैं, जबकि वे विकलांग हैं, उनके दोनों हाथ कटे हुए हैं। सरकार द्वारा उनके घर और दुकानें तोड़ दी गईं। कुछ शहरों में पागल टीवी एंकरों ने बुलडोज़रों पर सवारी की।

इस बीच, जिन भाजपा नेताओं ने 2020 में दिल्ली कत्लेआम के ठीक पहले हिंदू दंगाइयों को भड़काया था, उन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय ने बरी कर दिया। अदालत ने कहा कि अगर भड़काऊ बातें मुस्कुराते हुए कही जाएँ तब कोई अपराध नहीं बनता। उनमें से कुछ नेता अब दूसरे शहरों की सड़कों पर हैं, और ऐसी ही हिंसा को उकसावा दे रहे हैं। जबकि नौजवान मुसलमान स्कॉलर उमर ख़ालिद जेल में हैं। सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान भाईचारे, प्यार, अहिंसा, भारतीय संविधान की हिमायत में दिया गया उनका भाषण, पुलिस के आरोपपत्र के मुताबिक़ साज़िश को छुपाने की एक ओट है, जिसके तहत 2020 के दिल्ली कत्लेआम को अंजाम दिया गया। जाहिर होता है कि जब डोनाल्ड ट्रंप भारत के आधिकारिक दौरे पर थे, तो देश का भला सा नाम बदनाम करने के लिए मुसलमानों ने ख़ुद अपने ख़िलाफ़ दंगा करने और अपना क़त्लेआम करने की साज़िश रची थी।

इन सबके बीच, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी भी प्रेरणादायक छवि रखते हैं, जिनके सियासी करियर में 2002 में तब एक उछाल आया, जब गुजरात में मुसलमान विरोधी कत्लेआम हुए। उन दिनों वे वहाँ के मुख्यमंत्री थे। वे अक्सर चुप रहते हैं, लेकिन उससे भी अधिक वे इशारों-इशारों में अपनी बातें पहुँचा देते हैं, वे उस भीड़ और उसके स्वामियों के मसीहा हैं, जो व्हाट्सऐप द्वारा पहुँचाए जा रहे जाली इतिहास की खुराक पर पलते हैं। वे ख़ुद को मुसलमानों द्वारा ऐतिहासिक उत्पीड़न और क़त्लेआम का ‘पीड़ित’ बताते हैं, जिसका बदला लेना अब ज़रूरी हो गया है।

हम एक ऐसी ख़तरनाक जगह पर हैं जहाँ हम किसी भी क़िस्म के तथ्यों या इतिहास पर सहमत नहीं हो सकते हैं, या उनकी बुनियाद पर बहस भी नहीं कर सकते हैं। हम जिन दास्तानों की बातें करते हैं, वे आपस में एक दूसरे से कहीं नहीं मिलतीं हैं, वे एक दूसरे को काटती भी नहीं हैं। यह एक मिथक और इतिहास का टकराव है। मिथक को राज्य की मशीनरी, कॉरपोरेट की दौलत, और चौबीस घंटे चलने वाले अनगिनत टीवी न्यूज़ चैनलों का समर्थन हासिल है। इसकी पहुँच और ताक़त अपार है। दुनिया में यह पहली बार नहीं हो रहा है, हमने यह पहले भी देखा है, और हम जानते हैं कि जब बहस और तर्क ख़त्म हो जाते हैं, तब तबाही लाने वाली एक जंग शुरू होती है।

आप कल्पना कीजिए कि मौत या जेल के लिए चिह्नित कर दिया जाना कैसा होता होगा। एक समुदाय के रूप में, मुसलमानों को तंग घेरों में बंद किया जा रहा है, उनको अलग-थलग किया जा रहा है, उनका सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार किया जा रहा है। मुसलमानों पर लगातार क़िस्म-क़िस्म के जिहाद करने का इलज़ाम लगाए जा रहे हैं- लव जिहाद (कि वे मुसलमान आबादी बढ़ाने के लिए हिंदू औरतों को अपने प्यार में पड़ने का लालच देते हैं), कोरोना जिहाद (कि वे जानबूझ कर कोविड फैलाने की साज़िश करते हैं, हम लोग नाज़ियों द्वारा यहूदियों पर जानबूझ कर टाइफस फैलाने के आरोप को दोहराए जाते देख रहे हैं), जॉब जिहाद (सिविल सेवाओं में नौकरियाँ पा कर हिंदू आबादी पर हुकूमत करने की साज़िश) – और फ़ूड जिहाद, ड्रेस जिहाद, थॉट जिहाद, लाफ्टर जिहाद की तो बात की क्या की जाए। (एक नौजवान मुसलमान कॉमेडियन मुनव्वर फ़ारूक़ी ने एक ऐसे चुटकुले के लिए महीनों जेल में गुज़ारे जो उन्होंने कभी नहीं सुनाया था, लेकिन उन पर आरोप था कि वे वह चुटकुला सुनाने की योजना बना रहे थे।)

कोई भी बहस, एक छोटा-सा ग़लत कदम भी एक मुसलमान को भीड़ के हाथों पीट कर मारे जाने की वजह बन सकता है, और क़ातिलों को फूल-मालाओं से, पुरस्कारों से लाद सकता है, और उसके लिए एक होनहार सियासी भविष्य को पुख्ता बना सकता है। हालात ऐसे हैं कि हममें से सबसे मंजे हुए, अनुभवी और अविश्वासी लोग भी एक दूसरे से फुसफुसा कर पूछते हुए मिलते हैं कि क्या वे लोग अभी सिर्फ़ पैंतरे दिखा रहे हैं कि उन्होंने अपना खेल शुरू कर दिया है? क्या यह संगठित तौर पर हो रहा है या हालात बेक़ाबू हो चुके हैं? क्या यह उस पैमाने पर होगा?

एक मुल्क के रूप में, एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में, भारत का वजूद सिर्फ़ और सिर्फ़ एक सामाजिक करार की शक्ल में है। यह करार अनगिनत धर्मों, भाषाओं, जातियों, एथनिक समूहों, और उप-राष्ट्रीयताओं के बीच में है जो क़ानूनी तौर पर एक संविधान द्वारा एक साथ लाए गए हैं। एक न एक रूप में हरेक भारतीय नागरिक एक अल्पसंख्यक समूह का हिस्सा है। हमारा मुल्क अपने अल्पसंख्यकों के बीच एक सामाजिक करारनामा है। एक राजनीतिक बहुसंख्या बनाने की प्रक्रिया में उस सामाजिक करारनामे को तबाह किया जा रहा है, और यह नक़ली तौर पर रची गई “सताई गई हिंदू बहुसंख्या” के हाथों किया जा रहा है, जिसको यह यक़ीन करना सिखाया जा रहा है कि सिर्फ़ वही हैं जो एक अखंड हिंदू राष्ट्र के हक़दार नागरिक हैं, आदि पुरुष हैं। यह एक ऐसी बहुसंख्या है जो ‘राष्ट्र विरोधी पराए लोगों’ के ख़िलाफ़ ख़ुद को परिभाषित करती है। भारत को तबाह किया जा रहा है।

अल्पसंख्यकों के इस राष्ट्र को बनाने वाले हम लोगों में से शायद ऐसा कोई भी नहीं होगा जो अपना एक साफ़-सुथरा, बेदाग़ इतिहास पेश कर सकता हो जिसमें वह किसी हमले का एक बेगुनाह पीड़ित भर हो। हमारे इतिहास आपस में एक दूसरे को काटते हैं, एक दूसरे से उलझते हैं, और एक दूसरे का विस्तार करते हैं। एक साथ मिल कर वे हमें वह बनाते हैं जो आज हम हैं। जाति, वर्ग, धर्म, जेंडर और एथनिसिटी की ऊंच-नीच की व्यापक संरचनाओं के साथ-साथ, हमारा समाज बहुत बारीक स्तरों पर भी ऊंच-नीच में बंटा हुआ है। हमारे यहां सूक्ष्म-उपनिवेशवाद, सूक्ष्म-उत्पीड़न, एक दूसरे पर सूक्ष्म-निर्भरता पाई जाती है। इस रंगीन बुनावट के एक-एक धागे में लंबी दास्तानें पिरोई हुई हैं, जो बारीक समझदारी, अध्ययन, बहस, दलील, और सोचने-विचारने की माँग करती है। लेकिन इस बुनाई में से किसी एक अकेले धागे को अलग कर देना और उसका उपयोग करना सामूहिक बलात्कार का आह्वान करने के लिए? या नस्ली सफ़ाए (जेनोसाइड) के लिए? क्या यह एक ऐसी चीज़ है जिसकी इजाज़त दी जा सकती है?

जब भारतीय उपमहाद्वीप का बँटवारा हुआ था और सैकड़ों आज़ाद रजवाड़ों-रियासतों को भारत या पाकिस्तान में मिला दिया गया, जिनमें से कुछ के साथ ज़बरदस्ती की गई, तब लाखों लोग जिनमें हिंदू, मुसलमान और सिख शामिल हैं, एक दूसरे के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर पड़े थे। करोड़ों लोग विस्थापित हुए। ऐसे में किसी भी एक शख्स या समुदाय की तबाही और बदक़िस्मती की अकेली कहानी, चाहे वह कितनी भी सच्ची क्यों न हो, तब झूठी हो जाएगी जब उसे इस तरह सुनाया जाए कि वह दूसरी कहानियों को मिटाने लगे। वह एक ख़तरनाक झूठ होगा। एक उलझे हुए इतिहास को सपाट बनाने, उसकी बारीकियों को उससे छीन लेने, उसे एक इतिहास की तरह इस्तेमाल करने के गंभीर नतीजे होंगे।

उपमहाद्वीप में रहने वाले हम सभी लोगों के सामने यह चुनने का रास्ता है कि या तो हम इंसाफ़ की एक साझी सोच की दिशा में काम करें, उस दर्द और नफ़रत को दूर करने की दिशा में काम करें जो हमारी सारी सामूहिक यादों को कुतर कर ख़त्म कर रही है, या फिर इन हालात को और बिगाड़ दें। भारत के प्रधानमंत्री ने, उनकी राजनीतिक पार्टी ने, उसके मातृ संगठन और फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जिसके वे सदस्य हैं, हालात को और बिगाड़ते जाने का रास्ता चुना है। वे हमारी ख़ून में सनी हुई धरती की गहराइयों के भीतर से बहुत मनहूस चीज़ों को खोद कर निकाल रहे हैं। उन्होंने जो आग लगाई है उसकी लपटें क़ाबू में नहीं रहने वाली हैं। मुमकिन है वह इस देश को ही जला डाले। और ये लपटें उठने भी लगी हैं। भारत और कश्मीर के मुसलमानों के अलावा ईसाई भी उनके हमलों के निशाने पर हैं। अकेले इस साल चर्चों पर सैकड़ों हमले हुए हैं, ईसा मसीह की प्रतिमाओं को अपमानित किया गया है, पादरियों और ननों पर हिंसक हमले हुए हैं।

हम अकेले हैं। कोई भी मदद नहीं आने वाली है। यमन में, श्री लंका में, रवांडा में कोई मदद नहीं आई। फिर भारत में हमें एक अलग उम्मीद क्यों रखनी चाहिए? अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सिर्फ़ मुनाफ़ा, ताक़त, नस्ल (रेस), वर्ग और अर्थव्यवस्था और सत्ता की राजनीति ही तय करती है कि नैतिकता का ऊँट किस करवट बैठेगा। बाक़ी सारी चीजें पैंतरेबाज़ी है, दिखावेबाज़ी हैं।

भारत पर ऐसे आदमियों की हुकूमत है जो दिन-दहाड़े हज़ारों मुसलमानों के सामूहिक क़त्लेआम, साज़िश करके किए गए फ़र्ज़ी हमलों के एक सिलसिले, और अपनी हत्या की काल्पनिक साज़िशों से भड़काए गए उन्माद जैसी घटनाओं पर सवार होकर सत्ता में आए हैं। निश्चित रूप से, हर जाति और धर्म से जुड़ा आम अवाम इस नफ़रत का विरोध करता रहा है, इसका विरोध करने वालों में मुसलमान-विरोधी सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने वाले लोग हैं, पिछले साल ऐतिहासिक किसान आंदोलन में शामिल होने वाले लोग हैं, और पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र के वे क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं जिन्होंने भाजपा को काँटे की टक्कर दी और उसे हराया। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जो कुछ भी हो रहा है, उसे भारतीयों की बहुसंख्या क़बूल नहीं करती है।

लेकिन उनकी नामंज़ूरी ज़्यादातर जिस तरह ज़ाहिर होती है वह इस सुलगते हुए विचारधारात्मक उन्माद के आगे पूरी तरह नाकारा है, जिसे पैसों पर पलने वाले फासीवादी कैडर ने फैला रखा है। यह नामंज़ूरी ज़ाहिर होती है एक अरुचि के रूप में, एक बेपरवाही और चीजों से आँखें मूँद लेने के रूप में। हमारी जो अकेली राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी है, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, उसके सामने जब कोई नैतिक पक्ष लेने का मौक़ा आता है तो उसके पास दिखाने के लिए सिर्फ़ कमजोरी और नाकाबिलियत ही होती है। वह सार्वजनिक भाषणों में मुसलमान शब्द भी नहीं बोल पाती। मोदी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा असल में विपक्ष के बिना एक सरकार का आह्वान है। हम इसे चाहे जो कहें, लेकिन इसको लोकतंत्र तो नहीं कहा जा सकता है।

भारत में भले ही एक चुनावी लोकतंत्र के सारे तामझाम की नुमाइश जारी हो, जहाँ एक संविधान है जो हमें एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी गणतंत्र कहता है, जहाँ मुक्त और निष्पक्ष चुनाव होते हैं, जहाँ एक संसद है जिसे लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई पार्टी और विपक्ष चलाते हैं, एक स्वतंत्र न्यायपालिका और एक आज़ाद मीडिया है – लेकिन सच्चाई यह है कि राज्य मशीनरी पर (जिसमें काफ़ी हद तक न्यायपालिका, सिविल सेवाएँ, सुरक्षा बल, ख़ुफ़िया सेवाएँ, पुलिस और चुनावी ढाँचा शामिल है) अगर देश के सबसे ताकतवर संगठन, और खुलेआम फासीवादी हिंदू राष्ट्रवादी आरएसएस का पूरा क़ब्ज़ा चाहे न हो, उसका गहरा प्रभाव और दबदबा ज़रूर है। 1925 में स्थापित आरएसएस लंबे समय से अभियान चला रहा है कि संविधान को हटा दिया जाए और भारत को एक हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया जाए। आरएसएस के चिंतकों ने खुलेआम हिटलर की तारीफ़ की है और भारत के मुसलमानों को जर्मनी के यहूदियों के बराबर बताया है।

आख़िरकार आर्य श्रेष्ठता का विचार उस ब्राह्मणवाद का आधार है, जिसके तहत कुछ इंसान दैवीय और देवतुल्य होते हैं, जबकि बाक़ी कमतर, प्रदूषित और अछूत होते हैं। यह ब्राह्मणवाद आज भी हिंदू समाज को संचालित करने वाला सिद्धांत है। त्रासदी यह है कि इसके सबसे अधिक उत्पीड़ित तबकों में से भी कई लोग आरएसएस के उद्देश्यों के साथ खड़े हो गए हैं, जो उनके प्रचार की सुनामी में बह कर ख़ुद अपनी ही अधीनता के लिए वोट दे रहे हैं। 2025 में आरएसएस अपनी सौवीं सालगिरह मनाएगा। सौ बरसों के इसके कट्टर समर्पण ने उसे एक राष्ट्र के भीतर एक राष्ट्र बना दिया है। ऐतिहासिक रूप से इस आरएसएस पर पश्चिमी तटीय भारत के ब्राह्मणों की एक छोटी-सी मंडली का नियंत्रण रहा है।

आज इसके डेढ़ करोड़ सदस्य हैं, जिनमें मोदी हैं, उनके कैबिनेट के अनेक मंत्री हैं, मुख्यमंत्री हैं, राज्यपाल हैं। अब यह एक समांतर ब्रह्मांड है, जिसके दसियों हज़ार प्राथमिक स्कूल हैं, अपने किसान, मज़दूर और छात्र संगठन हैं, इसका अपना प्रकाशन संस्थान है, एक संगठन जंगल में रहने वाले आदिवासियों के बीच काम करता है जो उन्हें “शुद्ध” बनाने और हिंदू धर्म में उनकी “वापसी” के लिए काम करता है, महिलाओं के अनेक संगठन हैं, लाखों लोगों वाला एक हथियारबंद दस्ता है जो मुसोलिनी के ब्लैक शर्ट्स से प्रेरित है, और ढेर सारे ऐसे हिंदू राष्ट्रवादी संगठन हैं जिनकी उग्र हिंसा कल्पना से परे है, और जो शेल कंपनियों की भूमिका निभाते हैं और ऊपर बैठे लोगों के लिए यह मुमकिन बनाते हैं कि वे ज़मीन पर होने वाली हिंसा के बारे में किसी भी ज़िम्मेदारी या जानकारी से इन्कार कर सकें। अंग्रेज़ी में इसे प्लॉज़बल डेनायबिलिटी के नाम से जाना जाता है।

भारत में जहाँ रोज़गार ख़त्म होते जा रहे हैं और यह आर्थिक अव्यवस्था की तरफ़ बढ़ रहा है, भाजपा उतनी ही सधी रफ़्तार से अमीर होती गई है और अब यह दुनिया की सबसे दौलतमंद राजनीतिक पार्टी है, जिसमें इसकी मदद हाल ही में लागू की गई बेनामी चुनावी बॉन्डों की एक व्यवस्था ने की है जो ख़ुफ़िया कॉरपोरेट फ़ंडिंग की एक व्यवस्था है। भाजपा को कॉरपोरेट कंपनियों के धन से चलने वाले कई सौ टीवी न्यूज़ चैनलों का समर्थन है जो क़रीब-करीब हरेक भारतीय भाषा में चलते हैं और जिन्हें सोशल मीडिया ट्रोलों की एक फ़ौज घर-घर पहुँचाती है जिन्हें झूठ फैलाने में महारत हासिल है।

जब यह सब हो रहा है, भाजपा अभी भी आरएसएस का महज़ एक मुखौटा बनी हुई है। लेकिन अब राष्ट्र के भीतर चलने वाला यह राष्ट्र पर्दे के पीछे से निकलने और दुनिया के रंगमंच पर अपनी जगह बनाने की तैयारी कर रहा है। विदेशी राजदूत अभी से आरएसएस के मुख्यालय में हाज़िरी लगा कर अपनी क़ाबिलियत जताने लगे हैं और सलामी देने लगे हैं। अपने को मंज़ूरी दिलाने की इस बेतहाशा कोशिश में संयुक्त राज्य में विश्वविद्यालयों के कैंपस नए जंगी मैदान बने हैं। ख़तरा यह है कि हमले का नेतृत्व करने वाले लोग यह यक़ीन करते हैं कि जिसे ईमानदारी से नहीं जीता जा सकता है उसे बेलगाम पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में ख़रीद लिया जा सकता है।

आरएसएस का 2025 का शताब्दी वर्षगाँठ भारत के इतिहास का एक अहम पड़ाव होगा। उसके पहले साल 2024 में हमारे यहाँ आम चुनाव होंगे। और इसको ध्यान में रखें तो शायद हम हिंसक गतिविधियों के एकाएक तेज़ हो जाने की वजहों को समझ सकते हैं।

इस सबके दौरान मसीहा मोदी हर जगह मौजूद हैं। उनका चेहरा हमारे कोविड वैक्सीन के सर्टिफिकेटों पर है। और आटे और नमक की थैलियों पर है, जिन्हें हाल में बेरोज़गार हुए लाखों लोगों को रोज़गार की जगह पर बाँटा गया। लोग शुक्रगुज़ार कैसे नहीं होंगे?

कैसे जिन लोगों ने महामारी की दूसरी लहर के दौरान सामूहिक चिताएँ देखीं, मिट्टी खोद कर लाशों को दफ़नाए जाते देखा, जिन्होंने पवित्र गंगा को बहती हुई लाशों से भरे हुए देखा, जिसके किनारों पर गड़ी हुई लाशों की क़तारें देखीं, कैसे वे लोग उसमें यक़ीन नहीं करें जो यक़ीन करने को उनसे कहा जा रहा है – कि अगर मोदी नहीं होते तो हालात और भी बुरे होते?

हमारी उम्मीदें जल बुझी हैं, हमारी कल्पनाएँ संक्रमित हैं।

अगर आरएसएस इस लड़ाई को जीत लेता है, तो इसकी जीत ख़ुद उसके लिए भी तबाहकारी होगी। क्योंकि तब भारत का वजूद ख़त्म हो जाएगा। जिस दिशा में हम जा रहे हैं, उसकी लहर को अब चुनाव नहीं मोड़ सकेंगे। उसके लिए काफ़ी देर हो चुकी है। यह लड़ाई हममें से हरेक को लड़नी होगी। लपट हमारे दरवाज़े पर दस्तक दे रही है।

(19 अप्रैल को यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सस, ऑस्टिन में दिया गया मशहूर लेखिका अरुंधति का भाषण। यह भाषण पहले वायर में प्रकाशित हुआ था। हिंदी अनुवाद: रेयाज़ुल हक़)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles