Tuesday, March 19, 2024

बजट और विकल्प

इस बात की दाद नरेंद्र मोदी सरकार को अवश्य दी जानी चाहिए कि इस बार के बजट में उसने अपनी प्राथमिकताओं को छिपाने की कोई कोशिश नहीं की। एक फरवरी 2023 को पेश हुए केंद्रीय बजट की सबसे उल्लेखनीय पहचान यही है कि इसे सीधे तौर पर उस राजनीतिक-व्यवस्था (political economy) के हितों के अनुरूप तैयार किया गया, जो मोदी सरकार का असल आधार है।

इजारेदार पूंजी समर्थित उग्र सांप्रदायिक राजनीति पर आधारित मौजूदा सरकार को अब संभवतः यह पूरा यकीन हो चला है कि आर्थिक क्षेत्र में चाहे जो होता रहे, उसका विभाजक एजेंडा उसे चुनावी सफलता दिलाने में कारगर साबित होगा।

एक लोकतांत्रिक कहे जाने वाले देश में यह कोई कम साहस (या दुस्साहस) की बात नहीं है कि चुनावी साल के बजट में कोई सरकार जन कल्याण का ढोंग तक ना रचे। इस तरह लगभग नौ साल पहले सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने धन और आय के पुनर्वितरण की जो दिशा पलटी थी, वह इस बजट के साथ अपने चरम बिंदु पर पहुंच गई है।

मोदी सरकार के कार्यकाल में खुल कर अपनाई गई इस नई दिशा के तहत आम जन- यहां तक कि गरीब वर्ग की भी जेब से पैसा निकाल कर उसका ट्रांसफर धनी और उच्च मध्यम वर्ग को किया गया है। इस बार के बजट प्रावधानों का भी यही परिणाम होगा।

तो मोदी सरकार की दिशा स्पष्ट है। अपनी आर्थिक नीतियों से धीरे-धीरे उसने देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को उस स्थान पर पहुंचा दिया है, जहां इस बात पर बहस करने की जरूरत महसूस होती है कि क्या भारत अभी लोकतंत्र है? या यह पूरी तरह अभिजात्य तंत्र (oligarchy) में तब्दील हो चुका है?

यहां इस बात उल्लेख जरूरी है कि अगर भारत आज इस मुकाम पर पहुंचा है, तो भले उसका मुख्य “श्रेय” मोदी सरकार को जाता हो, लेकिन उसके लिए जिम्मेदार दरअसल, वो नीतियां हैं, जिन्हें इस देश ने 1991 में अपनाया।

दुनिया में हर जगह पर नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था का यही परिणाम हुआ है कि वहां की अर्थव्यवस्था पर इजारेदार (monopoly) पूंजी का कब्जा हो गया और इन इजारेदारों ने अपने पर आश्रित चंद तबकों के साथ मिल कर पूरे सिस्टम को oligopoly में तब्दील कर दिया।

इसलिए इस बजट की हर वो आलोचना अधूरी रहेगी, जिसमें इसकी प्रेरक नीतियों पर सवाल नहीं उठाए जाएंगे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत के सार्वजनिक विमर्श में बात यहां तक नहीं जा रही है। बहरहाल, ताजा हवा के एक झोंके की तरह इस बात का उल्लेख कांग्रेस पार्टी के एक पदाधिकारी ने जरूर किया है।

प्रवीण चक्रवर्ती कांग्रेस पार्टी के डेटा एंड एनालिटिक्स विंग के प्रमुख हैं। बीते 31 जनवरी को मोदी सरकार ने चालू वित्त वर्ष की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट संसद में रखी। चक्रवर्ती ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा कि सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन सर्वे में ऐसा कोई नया विचार पेश करने में नाकाम रहे, जिससे दुनिया में बनती नई परिस्थितियों के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था की नई दिशा को लेकर कोई सार्थक बहस खड़ी हो।

चक्रवर्ती की टिप्पणी की कुछ शुरुआती लाइनें महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने लिखा- ‘इस बात को आम तौर पर स्वीकार किया जाता है कि 1991 में तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह द्वारा पेश बजट भारत के आर्थिक इतिहास में दिशा-परिवर्तक घटनाओं में एक है।

नव-शास्त्रीय टीकाकार आज भी उस बजट की तारीफ करते हैं, क्योंकि उससे भारतीय अर्थव्यवस्था में एक ढांचागत बदलाव आया- इससे अर्थव्यवस्था सरकार के हाथ निकल कर निजी क्षेत्र के हाथ में चली गई और मुक्त व्यापार को अपना लिया गया। वह उस समय की प्रचलित सोच थी, जिसे वॉशिंगटन आम-सहमति के नाम से जाना जाता था।

तीन दशक बाद, कई विकसित अर्थव्यवस्थाएं अब आर्थिक राष्ट्रवाद की तरफ लौट रही हैं और औद्योगिक नीति के जरिए अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका बढ़ा रही हैं। इनमें अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी शामिल हैं। स्पष्टतः ऐसा चीन की उभरी आर्थिक शक्ति और उसके व्यापार को हथियार बनाने के जवाब में हुआ है।

आर्थिक चिंतन में यह गहरा बदलाव है- और शायद यह चीन के आर्थिक मॉडल की सबसे बड़ी प्रतीकात्मक जीत है, जिसके तहत वॉशिंगटन आम-सहमति के समर्थकों को कदम वापस खींचने पर मजबूर कर दिया गया है।’

इसके पहले एक विदेशी यूनिवर्सिटी में हुए संवाद के दौरान एक बार कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक वाक्या सुनाया था। उन्होंने बताया था कि जब यूपीए-2 के कार्यकाल में आर्थिक समस्याएं बढ़ रही थीं, तब वे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने गए थे। तब बातचीत में डॉ सिंह ने उनसे कहा था कि अर्थव्यवस्था के उन क्रिया-प्रणालियों (economic levers) ने अचानक काम करना बंद कर दिया है, जिन्हें 1991 के ‘सुधारों’ के तहत खोला गया था।

क्या आश्चर्यजनक नहीं है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति की इस समझ के बावजूद कांग्रेस पार्टी ने अभी तक 1991 में अपनाई गई दिशा का कम-से-कम विचार के स्तर पर भी विकल्प देने का कोई प्रयास नहीं किया है?

डॉ सिंह ने 1991 का बजट पेश करते समय 19वीं सदी के मशहूर फ्रेंच लेखक विक्टर ह्यूगो का हवाला देते हुए कहा था कि जिस विचार का समय आ गया हो, उस पर अमल को कोई नहीं रोक सकता। क्या इसी उक्ति को थोड़ा बदलते हुए आज यह कहने की स्थिति नहीं बन गई है कि जिस विचार का समय गुजर गया हो, उसे मानते रहने का कोई औचित्य नहीं हो सकता?

यह आकलन बिल्कुल सटीक है कि चीन के आर्थिक मॉडल ने आज अपनी श्रेष्ठता का लोहा मनवा लिया है। तो यह वक्त है कि इस बात पर गंभीरता से विचार किया जाए कि आखिर ये मॉडल है क्या? चीन खुद इसे समाजवादी बाजार अर्थव्यवस्था कहता है। यानी अर्थव्यवस्था को बाजार के सिद्धांतों से चलने की इजाजत दी गई है, लेकिन उसके उद्देश्य और आम दिशा तय करने में राज्य (state) ने अपनी निर्णायक भूमिका बनाए रखी है।

अब तक अनुभव यह है कि इस मॉडल के कारण चीन में अरबपति तो उभरे हैं, लेकिन उनकी ताकत ऐसी नहीं बनने दी गई है, जो राज्य-व्यवस्था (polity) को अपने नियंत्रण में ले लें या अर्थव्यवस्था की सकल दिशा खुद तय करने लगें। इस मॉडल में राज्य हर मौके पर अपनी टांग नहीं अड़ाता, लेकिन जब उद्देश्य, दिशा और मॉडल के भविष्य का सवाल खड़ा होता है, तो वह निर्णायक हस्तक्षेप करता है।

इस मॉडल को अपनाए रखते हुए चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था से जोड़ा। वह विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) का भी सदस्य बना। आज वह दुनिया के सबसे बड़े मुक्त व्यापार समझौते- आरसीईपी- का सदस्य है और दूसरे सबसे बड़े मुक्त व्यापार समझौते सीपीटीपीपी में शामिल होने की अर्जी दे चुका है।

कहने का मतलब यह कि सोशलिस्ट मार्केट इकॉनमी के मॉडल के जरिए चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता को इतना मजबूत बना लिया है कि हर मुक्त व्यापार समझौता उसे अपने फायदे में नजर आता है। दूसरी तरफ वॉशिंगटन कॉन्सेंसस का अंधानुकरण करने का परिणाम यह हुआ है कि भारत को ऐन वक्त पर आरसीईपी में शामिल होने से इनकार करना पड़ा।

यह वॉशिंगटन कॉन्सेंसस से जुड़ी नीतियों का ही परिणाम है कि देश के अंदर कुछ घराने इतने धनी और प्रभावशाली होते गए कि उन्होंने राज्य-व्यवस्था को ही अपने शिकंजे में ले लिया। आज यह समझ पाना कठिन हो गया है कि देश पर असल में शासन कौन कर रहा है?

यह सवाल आज एक पहेली बना हुआ हैः क्या कुछ कॉरपोरेट घराने एक राजनीतिक पार्टी को प्रॉक्सी बना कर राज कर रहे हैं या ये घराने उस पार्टी के क्रोनी हैं, जिनका वह अपनी सियासत को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर रही है? एक फरवरी को पेश बजट इस बात का सबूत बना है कि अर्थव्यवस्था इस दिशा में किस हद तक आगे बढ़ चुकी है।

इसलिए अब 1991 में अपनाए गए विकल्प के मॉडल पर चर्चा शुरू करना फौरी जरूरत बन गई है। और जब जिस राजधानी (वॉशिंगटन) के नाम पर वह आम-सहमति बनी थी, वहीं अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका बढ़ाने संबंधी बिल लगातार पारित किए जा रहे हैं और वही भूमंडलीकरण की दिशा पलटने (de-globalization) की परिघटना को आगे बढ़ाने लगा है, तब भारत जैसे अनुयायी देश में उस नीति के प्रति मोह बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं हो सकता। ऐसा मोह बौद्धिक कमजोरी अथवा निहित स्वार्थ का ही परिणाम हो सकता है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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