Friday, April 19, 2024

लोगों से पटी हिंदुस्तान की सड़कें ही दे सकती हैं सब कुछ खत्म न होने का भरोसा

भारत सरकार को बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध में अपनी भूमिका पर बहुत फख्र है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के सहयोगी देश चीन और अमेरिका की धमकियों की परवाह नहीं की और नरसंहार को रोकने के लिए भारतीय सेना भेजी दी। “न्यायपूर्ण युद्ध” लड़ने का गौरव न्यायोचित या असली मुद्दों के हल का कारण नहीं बन सका और न ही असम और पड़ोसी राज्यों के लोगों और शरणार्थियों के लिए कोई सोची समझी नीति बनाई गई।

इस अनूठे और जटिल इतिहास के चलते ही असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजिका की मांग पैदा हुई। हास्यास्पद तो यह है कि यहां “राष्ट्रीय” का अर्थ हिंदुस्तान कम और असम ज्यादा है। 1979 और 1985 के बीच असम के छात्रों की अगुवाई में चले असमी राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान 1951 में तैयार की गई पहली एनआरसी को अपडेट करने की मांग उठी। छात्र आंदोलन के साथ ही हिंसक अलगाववादी आंदोलन भी हुआ जिसमें हजारों लोगों की जान गई। असमी राष्ट्रवादी आंदोलन ने निर्वाचन सूची से “विदेशियों” के नाम हटाए जाने तक चुनावों के बहिष्कार का आह्वान किया। “3-डी” का नारा गूंजने लगा: डिटेक्ट, डिलीट एंड डिपोर्ट (पता करो, हटाओ और निकालो)। विशुद्ध अनुमान के आधार पर बताया गया कि असम में विदेशियों की संख्या 50 से 80 लाख के बीच है। और फिर जल्द ही यह आंदोलन हिंसक हो गया। हत्या, आगजनी, बम विस्फोट और जन प्रदर्शन ने घुसपैठियों के खिलाफ दुश्मनी और बेकाबू गुस्से का माहौल बना दिया।

1979 आते-आते राज्य जलने लगा। हालांकि यह आंदोलन मूल रूप से बंगाली और बंगाली भाषी लोगों के खिलाफ था, लेकिन इस आंदोलन के भीतर सक्रिय हिंदू सांप्रदायिक ताकतों ने इसे मुस्लिम विरोधी रंग दे दिया। 1983 में नेली नरसंहार के रूप में इसका वीभत्स रूप सामने आया। छह घंटों तक चले इस हत्याकांड में बंगाल मूल के दो हजार मुस्लिमों को कत्ल कर दिया गया। (अनाधिकारिक आंकड़े मारे जाने वालों की संख्या दुगनी बताते हैं।) पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार हत्यारे पड़ोसी पहाड़ी मूलनिवासी थे। यह कबीला हिंदू नहीं था, न ही उन्हें उग्र एथ्नो-असमी के रूप में जाना जाता था। अचानक हुई इस बर्बर हिंसा के पीछे का कारण आज भी रहस्य बना हुआ है। फुसफुसाहट में लोग बताते हैं कि इसके लिए असम के आरएसएस कार्यकर्ताओं ने भड़काया था। 

ब्रह्मपुत्र के दलदले चार द्वीपों में से एक में। इन दूरदराज के द्वीपों की कुख्यात क्षणिकता का अर्थ है जमीन के दस्तावेजों, स्कूलों, अस्पतालों और आधुनिकता के अधिकांश चिन्हों की गैरमौजूदगी। यहां, एनआरसी ने एक नई शब्दावली पैदा की है: “लीगेसी डॉक्यूमेंट,” “लिंक पेपर,” “सर्टिफाइड कॉपी,” “री-वैरिफिकेशन,” “रिफरेंस केस,” “डी-वोटर,” “डिक्लियर्ड फारेनर, “वोटर लिस्ट” “रिफ्यूजी सर्टिफिकेट”। “इसमें सबसे उदास शब्द है “जेनुइन सिटिजन” यानी असली नागरिक”। साभार- संजय काक

इस नरसंहार पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म व्हाट द फील्ड्स रिमेंबर  में एक बुजुर्ग मुसलमान, जिनके सारे बच्चे इस हिंसा में मारे गए थे, बताते हैं कि कैसे मारे जाने के एक दिन पहले उनकी बेटी ने “विदेशियों” को बाहर निकालने की मांग वाले मार्च में हिस्सा लिया था। मरते वक्त उस लड़की के शब्द थे, “बाबा, क्या हम लोग विदेशी हैं?”

1985 में असम आंदोलन के छात्र नेताओं ने राज्य विधानसभा का चुनाव जीत लिया और राज्य में सरकार बना ली। उसी साल इन लोगों ने केंद्र सरकार के साथ असम समझौता किया। इस समझौते के तहत तय हुआ कि 24 मार्च 1971 की आधी रात के बाद (इस दिन पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में नागरिकों पर हमला शुरू किया था) असम आने वाले लोगों को राज्य से बाहर निकाला जाएगा। एनआरसी का मकसद 1971 के बाद आए “घुसपैठियों” को राज्य के मूल नागरिकों से अलग करना था।

1983 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने अवैध आव्रजक (डिटेक्शन बाय ट्राईबल) कानून (आईएमडीटी)पारित किया था उसके तहत अगले कई सालों तक बॉर्डर पुलिस द्वारा पहचाने गए “घुसपैठियों” और चुनाव अधिकारियों द्वारा संदिग्ध वोटर यानी डी-वोटर घोषित लोगों पर निरंतर मुकदमे चलाये गए। अल्पसंख्यकों को प्रताड़ना से बचाने के लिए आईएमडीटी कानून के तहत नागरिकता प्रमाणित करने का दायित्व पुलिस और आरोप लगाने वालों पर था, आरोपी पर नहीं। 1997 से अब तक तीन लाख से अधिक डी-वोटर और घोषित विदेशी लोगों पर “विदेशियों से संबंधित न्यायाधिकरणों” में मुकदमे चलाए जा चुके हैं। सैकड़ों लोग आज भी डिटेंशन केंद्रों में कैद हैं जो जेल के भीतर बनी जेलें हैं और यहां बंद लोगों के पास आम अपराधियों जितने अधिकार भी नहीं हैं।

2005 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में फैसला देते हुए आईएमडीटी कानून को रद्द करने के लिए कहा क्योंकि इसके तहत “अवैध आव्रजकों की पहचान और उन्हें बाहर करना लगभग नामुमकिन था।” अदालत ने अपने फैसले में लिखा था, “इस पर कोई संदेह नहीं है कि बंगलादेशी नागरिकों की अवैध घुसपैठ के कारण, असम राज्य बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति का सामना कर रहा है।” अब नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी नागरिक पर डाल दी गई। इसने सारे समीकरण को बदल दिया और एक नए एनआरसी का रास्ता खुल गया। सुप्रीम कोर्ट में यह मामला ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के पूर्व अध्यक्ष सर्बानंद सोनोवाल ने दायर किया था जो अब बीजेपी के साथ हैं और असम के मुख्यमंत्री हैं।

2013 में असम पब्लिक वर्क्स नाम के एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली और अवैध आव्रजकों का नाम निर्वाचन सूची से हटाने की मांग की। बाद में एनआरसी प्रणाली को अंतिम रूप देने का जिम्मा सुप्रीम कोर्ट के जज रंजन गोगोई को दिया गया जो खुद असम के हैं।

दिसंबर 2014 में, जस्टिस गोगोई ने आदेश दिया कि एनआरसी को अपडेट कर एक साल के अंदर कोर्ट में पेश किया जाए। किसी को पता नहीं था कि जिन 50 लाख घुसपैठियों के पता लगने की उम्मीद है, उनका क्या किया जाएगा। सवाल ही पैदा नहीं होता कि उन्हें बांग्लादेश खदेड़ा जा सकता। क्या इतने लोगों को डिटेंशन कैंपों में रखा जा सकता है और कितने सालों तक? क्या उनकी नागरिकता छीन ली जाएगी? और क्या हिंदुस्तान की सर्वोच्च अदालत इस विशाल नौकरशाही अभ्यास का माइक्रोमैनेजमेंट करेगी जिसमें तीन करोड़ लोग शामिल हैं और जबर्दस्त पैसा और तकरीबन 52000 कर्मचारी लगने थे? 

दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लाखों ग्रामीणों से उम्मीद की गई कि वह विशिस्ट दस्तावेजात, “लीगेसी पेपर्स” पेश करेंगे जो 1971 से पहले इनके असम में रहने को साबित करते हों। सुप्रीम कोर्ट की डेड-लाइन ने इस पूरी कवायद को एक बुरा सपना बना दिया। गरीब-अनपढ़ गांव वालों को नौकरशाही, कानून, दस्तावेजों, अदालती सुनवाइयों और इनके साथ जुड़ी बर्बर जांच के मकड़जाल में फंसा दिया गया।

हमेशा रूप बदलते रहने वाले ब्रह्मपुत्र के कीचड़ भरे “चार” द्वीपों के अर्ध-घुमंतु लोगों की दूर दराज की बस्तियों तक पहुंचने का एकमात्र जरिया वे नावें होती हैं जो अक्सर खतरनाक हद तक लोगों से खचाखच भरी रहती हैं और जिन्हें स्थानीय लोग चलाते हैं। किंवदंतियों की तरह जानी-मानी चिड़चिड़ी ब्रह्मपुत्र में लगभग 2500 ऐसे द्वीप हैं जिन्हें वह जब चाहे जलमग्न कर लेती है, और किसी दूसरे स्थान पर, किसी दूसरे रूप स्वरूप में उबारती है। इन पर बसी बस्तियां अस्थाई होती हैं और लोग झोपड़ी बनाकर रहते हैं। कुछ द्वीप इतने उपजाऊ हैं और यहां के किसान इतने कुशल हैं कि साल में तीन फसलें उगाते हैं। लेकिन स्थाई रूप से न बस पाने का मतलब है कि इनके पास जमीन का पट्टा नहीं होता, यहां विकास नहीं होता, स्कूल और अस्पताल नहीं होते।

जिन कमतर उपजाऊ चार द्वीपों का मैंने इस महीने की शुरुआत में दौरा किया, वहां गरीबी ब्रह्मपुत्र के कीचड़ वाले काले पानी की तरह पसरी हुई थी। वहां आधुनिकता का एकमात्र निशान लोगों के हाथों में लटके रंगीन प्लास्टिक के बैग थे जिनमें दस्तावेज रखे थे। इन बैगों को वे आने वाले अजनबियों के सामने लेकर खड़े हो जाते थे। वह उन दस्तावेजों को पढ़ नहीं सकते थे लेकिन कौतुहलवश ताकते रहते-जैसे वे लोग उन पीले पन्नों में दर्ज हल्के पड़ रहे निशानों से कुछ समझना चाहते हों और जानना चाहते हों कि क्या वे खुद को और अपने बच्चों को उन विशाल डिटेंशन कैंपों में कैद होने से बचा पाएंगे जिनके बारे में उन्होंने सुन रखा है कि ग्वालपारा के घने जंगलों में बनाए जा रहे हैं। जरा कल्पना कीजिये कि एक भरी आबादी, लाखों लोगों वाली, अपने दस्तावेजों को लेकर चिंतित और डरी हुई।

यह सैन्य कब्जा नहीं है लेकिन यह दस्तावेजों द्वारा कब्जा जरूर है। इन लोगों की सबसे क़ीमती चीज ये दस्तावेज हैं जिनकी देखभाल वे अपने बच्चों या मां-बाप से ज्यादा करते हैं। इन्हें उन्होंने बाढ़ और तूफान और हर तरह की आपदाओं से बचाया है। वहां रहने वाले धूप में काले पड़े किसान, आदमी और औरतें, जमीन और नदी की बहुत से मूडों के माहिर ये लोग अंग्रेजी शब्द “लीगेसी डॉक्यूमेंट”, “लिंक पेपर”, “सर्टिफाइड कॉपी”, “री-वेरिफिकेशन”, “रेफरेंस केस”, ”डी-वोटर”, “डिक्लेयर्ड फॉरेनर”, “वोटर लिस्ट”, “रिफ्यूजी सर्टिफिकेट” जैसे अंग्रेजी के शब्द इस तरह बोलते हैं जैसे वह उनकी अपनी भाषा हो। ये उनकी अपनी भाषा ही है। एनआरसी ने अपना एक शब्दकोश तैयार कर लिया है जिसका सबसे दर्दनाक शब्द है “जेन्युइन सिटीजन” यानी असली नागरिक।

गांव दर गांव लोगों ने मुझे ऐसी कहानियां सुनाईं कि किस तरह उन्हें देर रात नोटिस देकर अगले दिन 200 या 300 किलोमीटर दूर बनी कोर्ट में हाजिर होने को कहा गया था। उन्होंने बताया कि कैसे वे लोग अपने परिवार वालों को दस्तावेज के साथ इकट्ठा करते थे और रात के घुप्प अंधेरे में तेज बहती नदी को छोटी नावों में बैठकर पार करते थे। नाव चलाने वाले, जो उनकी मजबूरी को भांप जाते थे, और इन लोगों से तीन गुना किराया लेते थे। उसके बाद रात में खतरनाक राजमार्गों में चलकर वे वहां पहुंचते थे जहां उन्हें बुलाया जाता था। रूह को कंपा देने वाली एक कहानी भी मैंने सुनी। वह एक ऐसे परिवार की थी जो ट्रक में बैठकर कोर्ट जा रहा था तो उनका ट्रक तारकोल के बैरलों से भरे एक दूसरे ट्रक से टकरा गया। जख़्मी परिवार तारकोल में सन गया। जिस नौजवान कार्यकर्ता के साथ मैं सफर कर रही थी उसने मुझे बताया, “जब मैं अस्पताल में इन लोगों को देखने गया तो उनका छोटा बेटा अपनी चमड़ी से तारकोल और उसमें चिपके छोटे-छोटे कंकड़ निकालने की कोशिश कर रहा था। उस लड़के ने अपनी मां की ओर देखा और पूछा, “क्या हम कभी विदेशी होने का काला दाग मिटा पाएंगे?”

लेकिन इन सबके बावजूद, इस प्रक्रिया और इसको लागू करने पर सवाल उठने के बावजूद, एनआरसी को अपडेट करने का असम के लगभग सभी लोगों ने स्वागत किया, हर एक के पास इसके अपने-अपने कारण हैं। असमी राष्ट्रवादियों को उम्मीद है कि लाखों हिंदू और मुसलमान बंगाली घुसपैठियों की पहचान कर ली जाएगी और उन्हें औपचारिक रूप से “विदेशी” करार दे दिया जाएगा। मूलनिवासी आदिवासियों को उम्मीद है इससे ऐतिहासिक गलती में कुछ निवारण होगा। बंगाली मूल के हिंदू और मुसलमान एनआरसी में अपना नाम देखना चाहते हैं ताकि वे साबित कर सकें कि वे लोग भारतीय हैं जिससे “विदेशी” होने का कलंक हमेशा हमेशा के लिए मिट जाए। और हिंदू राष्ट्रवादी, जो अब असम की सरकार चला रहे हैं, लाखों मुसलमानों का नाम एनआरसी से हटा देना चाहते हैं। सभी लोग किसी न किसी तरह का समापन चाहते हैं।

बेरोस मोनी दास के हाथों में अपने सबसे बड़े बेटे, भाबेन के साथ उसकी भाभी की एक तस्वीर है। 2018 में जारी राष्ट्रीय नागरिक पंजिका के मसौदे से बाहर किए गए भाबेन ने 3 मार्च 2019 को आत्महत्या कर ली। “हम आगे से एनआरसी के बारे में बात नहीं करेंगे,” उनकी मां ने उसे याद करते हुए कहा था। यह अनुमान लगाया जाता है कि एनआरसी की अंतिम सूची से बाहर किए गए 19 लाख लोगों में से आधे से अधिक गैर-मुस्लिम हैं।सौम्या खण्डेलवाल

एनआरसी की सूची प्रकाशित करने की तारीख को कई बार आगे बढ़ाने के बाद आखिरकार 31 अगस्त 2019 को इसे जारी कर दिया गया। इसमें 19 लाख लोगों के नाम नहीं हैं। यह संख्या और बढ़ सकती है क्योंकि, पड़ोसियों, दुश्मनों, अजनबियों को एतराज दर्ज कराने का मौका दिया गया है। आखिरी गिनती तक दो लाख से अधिक आपत्तियां दर्ज कराई जा चुकी थीं। सबसे ज्यादा तादाद में बच्चों और महिलाओं के नाम सूची से गायब हैं। इनमें से अधिकतर ऐसी महिलाएं हैं जिनके समुदायों में कम उम्र में ही शादी कर दी जाती है और शादी के बाद रिवाज के अनुसार उनके नाम बदल गए हैं।

इसलिए इन महिलाओं के पास विरासत साबित करने के लिए जरूरी लिंक दस्तावेज नहीं हैं। बहुत बड़ी संख्या में अनपढ़ लोग हैं जिनके नाम या जिनके मां-बाप के नाम दस्तावेजों में गलत तरीके से लिखे हैं। कहीं हसन का नाम हस्सान लिखा है तो कहीं जॉयनुल का नाम जैनुल। जिन लोगों के नाम में मोहम्मद आता है वे लोग इसलिए मुश्किल में हैं क्योंकि मोहम्मद को अंग्रेजी में कई तरह से लिखा जा सकता है। सिर्फ़ एक गलती आपको सूची से बाहर कर सकती है। अगर आपके पिता मर चुके हैं, या वह आपकी मां के साथ नहीं रहते, अगर उन्होंने कभी वोट नहीं दिया, पढ़े-लिखे नहीं थे और उनके पास जमीन नहीं थी तो आपका बचना मुश्किल है, क्योंकि मां की विरासत की मान्यता नहीं है। एनआरसी अपडेट करने की प्रक्रिया में हावी पूर्वाग्रहों में सबसे बड़ा ढांचागत पूर्वाग्रह औरतों और गरीबों के खिलाफ है। हिंदुस्तान के ज्यादातर गरीब लोग मुसलमान, दलित और आदिवासी हैं।

जिन 19 लाख लोगों के नाम सूची से गायब हैं अब उन्हें “विदेशी न्यायाधिकरण” में अपील करनी होगी। असम में ऐसे एक सौ न्यायाधिकरण हैं और बाकी 1000 बनाने की बात की गई है। न्यायाधिकरण के जज जिन्हें “सदस्य” कहा जाता है, जिनके हाथों में लाखों लोगों की तकदीर है, उनके पास जज होने का अनुभव नहीं है। ये लोग नौकरशाह और जूनियर वकील हैं जिन्हें सरकार ने मोटी तनख्वाहों पर रखा है। इस व्यवस्था में भी पूर्वाग्रह भरा पड़ा है। सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जो दस्तावेज हासिल किए हैं उनसे पता चलता है कि न्यायाधिकरण के सदस्य के तौर पर दुबारा आवेदन करने का एकमात्र मापदंड यह बताना है कि दुबारा आवेदन करने वाले सदस्य ने कितने लोगों की अपील खारिज की थी। अपील करने वाले लोगों को वकील लगाना होगा और वकील की फीस देनी होगी। इसके लिए उन्हें उधार लेना पड़ेगा या अपनी जमीनें और घरों को बेचना पड़ेगा और कर्ज में डूबे निर्धनता की जिंदगी बसर करनी होगी। ज़ाहिर है कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास न जमीन है और न घर। ऐसे कई लोग जिन्हें इस सब का सामना करना पड़ा, खुदकुशी कर चुके हैं।

इतने बड़े पैमाने पर की गई इस कवायद और करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद एनआरसी से सरोकार रखने वाले लोगों को आखिरी सूची जारी होने के बाद भयानक निराशा हाथ लगी। बंगाली मूल के आव्रजक इसलिए निराश हैं क्योंकि असल नागरिकों को मनमाने ढंग से सूची से बाहर कर दिया गया। असमी राष्ट्रवादी इसलिए नाराज हैं क्योंकि अनुमानित 50 लाख “घुसपैठियों” के मुकाबले बहुत कम लोग बाहर हुए, और वे महसूस करते हैं कि अत्यधिक अवैध विदेशियों को सूची में जगह मिल गयी है. और हिंदुस्तान में सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी इसलिए निराश हैं क्योंकि 19 लाख लोगों में से आधे गैर-मुस्लिम हैं। (इसकी वजह बड़ी विडम्बनापूर्ण है। बंगाली मुस्लिम प्रवासी जो लंबे समय से दुश्मनी का सामना कर रहे थे, उन्होंने सालों लगा कर “लीगेसी पेपर” जोड़ रखे थे, जबकि हिंदू जो कम असुरक्षित थे, उन्होंने इसकी जरूरत नहीं समझी थी।)

न्यायाधीश रंजन गोगोई ने एनआरसी के मुख्य संयोजक प्रतीक हलेजा के ट्रांसफर के आदेश दे दिए और उन्हें असम छोड़ने के लिए सात दिन का समय दिया। न्यायधीश गोगोई ने अपने आदेश के पीछे का कारण नहीं बताया। फिर से एनआरसी कराए जाने की मांग उठने भी लगी है।

इस पागलपन को समझने के लिए लोग सिर्फ कविता ही कर सकते थे। नौजवान मुस्लिम कवियों का एक समूह उभर आया, जिन्हें मियां कवि कहा जाता है। ये कवि अचानक अपने दर्द और अपमान पर कविताएं लिखने लगे, उस भाषा में जो उन्हें सबसे ज्यादा अपनी लगती थी, वह भाषा जिसमें वे अब तक केवल अपने घरों में बातें करते थे, यानी ढाकैया, मईमानसिंगिया, पबनैया जैसी मियां बोलियों में। इनमें से एक कवि रेहाना सुल्ताना ने “मां” शीर्षक से एक कविता लिखी है:

मा तुमार काच्छे आमार पोरिसोई दीती दीती ब्याकुल ओया झाई।

मां मैं थक गई हूं तुम्हें अपनी पहचान बताते-बताते।

जब इन कविताओं को फेसबुक में पोस्ट और शेयर किया गया तो एक निजी भाषा अचानक लोगों की नजरों में आ गई। भाषाई राजनीति का भूत फिर नींद से जागने लगा। मियां कवियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज की गई, यह कहते हुए कि ये लोग असमी समाज को बदनाम कर रहे हैं। रेहाना सुल्तान को रूपोश होना पड़ा।

असम में समस्या है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इसका समाधान क्या होना चाहिए? परेशानी यह है कि एक बार जातीय राष्ट्रवाद की आग भड़का दी जाए तो यह बताना मुश्किल हो जाता है कि हवाएं उस आग को किस दिशा में ले जाएंगी। हाल ही में निर्मित केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में, जो जम्मू व कश्मीर के स्पेशल स्टेटस को समाप्त करने के परिणामस्वरुप बना है, बौद्धों और कारगिल के शिया मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ने लगा है। हिंदुस्तान के केवल पूर्वोत्तर राज्यों में ही, चिंगारियों ने पुरानी दुश्मनियों को भड़काना शुरू कर दिया है। अरुणाचल प्रदेश में असमी लोगों को घुसपैठिया बोला जा रहा है।

मेघालय ने असम से लगी सीमा को बंद कर दिया है, और कहा है कि अब से सभी “बाहरी लोगों” को 24 घंटे से ज्यादा रुकने के लिए नए कानून, मेघालय रेसिडेंट सेफ्टी एंड सिक्योरिटी एक्ट, के तहत सरकार के पास रजिस्टर कराना होगा। नागालैंड में सरकार और नागा विद्रोहियों के बीच 22 साल से जारी शांति-वार्ता, अलग नागा झंडे और संविधान की मांग को लेकर खटाई में पड़ गई है। मणिपुर में नागा और केंद्र सरकार के बीच संभावित समझौते से खफा कुछ लोगों ने लंदन में प्रवासी सरकार की घोषणा कर दी है। त्रिपुरा में मूल आदिवासी लोग अपने लिए एनआरसी की मांग कर रहे हैं ताकि बंगाली हिंदुओं को राज्य से भगा सकें जिन्होंने राज्य में उनको अल्पसंख्यक बना दिया है।

इस तरह की उथल-पुथल और तनाव से मोदी सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ रहा और वह एनआरसी को पूरे हिंदुस्तान में लागू करने का इंतजाम करने में लगी है। असम में हिंदू और उसके अपने ही समर्थकों के एनआरसी की जटिलताओं में फंस जाने से सबक लेकर, बीजेपी सरकार ने नए नागरिक संशोधन बिल का मसौदा तैयार किया है जिसे वह संसद के अगले सत्र में पास करने की उम्मीद रखती है। नागरिकता संशोधन बिल कहता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अत्याचार का सामना कर रहे अल्पसंख्यकों को यानी हिंदू, सिख, बौद्ध और ईसाइयों को हिंदुस्तान में शरण दी जाएगी। यह विधेयक यह सुनिश्चित करेगा कि केवल मुसलमानों को ही नागरिकता से वंचित रखा जाए।

एनआरसी और नागरिकता संशोधन विधेयक की प्रक्रिया शुरू होने से पहले राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर बनाने की योजना है। सरकार की योजना इसके जरिए घर-घर जाकर जनगणना के आंकड़ों के साथ-साथ आंख की पुतलियों का स्कैन और अन्य बायोमैट्रिक आंकड़े इकठ्ठा करना है। यह सभी तरह के डेटा बैंकों का बाप साबित होगा।

इसकी जमीनी तैयारी शुरू हो चुकी है। अमित शाह ने गृहमंत्री के तौर पर पहले दिन एक अधिसूचना जारी की जिसमें देश भर की सभी राज्य सरकारों को गैर न्यायिक अधिकारियों को असीमित ताकत देते हुए विदेशी न्यायाधिकरण और डिटेंशन केंद्र बनाने की अनुमति दी है। कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सरकार ने इस पर काम शुरू कर दिया है। जैसा कि हमने देखा है कि असम एनआरसी उस राज्य के जटिल इतिहास का नतीजा था। इसे पूरे हिंदुस्तान में लागू करना विशुद्ध रूप से द्वेषपूर्ण है। असम में एनआरसी की मांग 40 साल पुरानी है। वहां के लोग 50 साल से भी ज्यादा समय से अपने दस्तावेज जमा कर रहे हैं। हिंदुस्तान में ऐसे कितने लोग होंगे जो लीगेसी डॉक्यूमेंट विरासत के दस्तावेज पेश कर सकते हैं। शायद हमारे प्रधानमंत्री भी ऐसा न कर पाएं क्योंकि उनकी जन्मतिथि, ग्रेजुएट डिग्री और शादी की बातें राष्ट्र-व्यापी बहसों का विषय रही हैं।

हमें बताया जा रहा है कि हिंदुस्तान भर में एनआरसी की प्रक्रिया का लक्ष्य लाखों-लाख बांग्लादेशी “घुसपैठियों” की पहचान करना है जिन्हें हमारे गृहमंत्री “दीमक” कहना पसंद करते हैं। क्या उनको समझ में नहीं आता कि उनकी ऐसी भाषा हिंदुस्तान के बांग्लादेश के साथ संबंध पर कैसा असर डालेगी? एक बार फिर करोड़ों के भूतिया आंकड़े उछाले जा रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि बहुत सारे बांग्लादेशी मजदूर बिना दस्तावेजों के हिंदुस्तान में रहते हैं और इसमें भी कोई शक नहीं है कि ये लोग देश के सबसे गरीब और सबसे हाशिए पर रहने वाले लोग हैं। मुक्त व्यापार पर यकीन करने वाले हर शख्स को जानना चाहिए कि ये लोग ऐसे आर्थिक शून्य को भर रहे हैं और ऐसे काम करते हैं जिसे कोई और नहीं करना चाहता और इतनी कम मजदूरी में कि कोई और कभी नहीं करेगा। ये लोग ईमानदारी से काम करके ईमानदार दिहाड़ी कमाते हैं। ये लोग देश को बर्बाद नहीं कर रहे, सार्वजनिक पैसा नहीं लूट रहे, बैंकों को दिवालिया नहीं बना रहे। यह लोग सिर्फ आरएसएस के ऐतिहासिक मिशन में इस्तेमाल होने वाले मोहरे भर हैं।

नागरिकता संशोधन बिल के साथ हिंदुस्तान भर में एनआरसी लागू करने का असल मकसद हिंदुस्तान की मुस्लिम आबादी को डराना, अस्थिर करना और कलंकित करना है, खास तौर से उनके सबसे गरीब वर्गों को। इसका मकसद सोपान वाली नागरिकता का निर्माण करना है जिसमें नागरिकों के एक गिरोह के पास कोई अधिकार नहीं होते और वे दूसरे गिरोह कि दया और रहमो-करम पर रहता है। यह एक आधुनिक जाति व्यवस्था होगी जो पुरानी जाति व्यवस्था के साथ-साथ चलेगी और इसमें मुसलमान नए दलित होंगे। कहने भर के लिए नहीं बल्कि असलियत में. कानूनी तौर से। पश्चिम बंगाल जैसी जगहों में जहां बीजेपी सत्ता कब्जाने के लिए आक्रामक अभियान चला रही है, आत्महत्याएं होनी शुरू हो गई हैं।

1940 में आरएसएस के सर्वोच्च नेता एमएस गोलवलकर ने अपनी किताब वी, ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड  (हम, या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा) में लिखा था: 

मुसलमानों के हिंदुस्तान की धरती पर कदम रखने वाले उस बुरे दिन से लेकर आज तक, हिंदू राष्ट्र बहादुरी के साथ इन लुटेरों का मुकाबला कर रहा है। हिंदू नस्ल की आत्मा जाग रही है।

हिंदुस्तान में, हिंदुओं की धरती पर, हिन्दू रहते हैं और हिंदू राष्ट्र ही रहना चाहिए।

बाकी सब गद्दार और राष्ट्रीय उद्देश्य के शत्रु हैं, उदारता से कहूं तो मूर्ख हैं…. हिंदुस्तान में विदेशी नस्लें…. इस देश में रह सकती हैं…. लेकिन उन्हें हिंदू राष्ट्र की संपूर्ण अधीनता में रहना होगा, किसी चीज पर उनका दावा नहीं होगा, वे सुविधाओं के अधिकारी नहीं होंगे, किसी भी तरह के विशेषाधिकार की बात तो दूर, उन्हें नागरिक अधिकार भी प्राप्त नहीं होंगे।

 उसने आगे लिखा:

अपनी नस्ल और संस्कृति की शुद्धता को बनाए रखने के लिए जर्मनी ने सामी नस्लों-यहूदियों का सफ़ाया करके दुनिया को चौंका दिया। यहां नस्ली गौरव अपने सर्वोत्तम रूप में प्रकट हुआ है। यह हिंदुस्तान के लिए सीखने और फायदा उठाने लायक सबक है।

आधुनिक भाषा में गोलवलकर की इन बातों को रूपांतरित करें तो उन्हें एनआरसी और नागरिक संशोधन बिल नहीं तो और क्या कहें? यह 1935 के जर्मनी के न्यूर्नबर्ग कानूनों का आरएसएस संस्करण है। उन कानूनों के तहत केवल उन्हीं लोगों को जर्मनी का नागरिक माना गया था जिन्हें थर्ड राइक की सरकार ने नागरिकता दस्तावेज-लिगेसी पेपर्स-दिए थे। मुसलमानों के खिलाफ संशोधन उसी तरह का पहला संशोधन है। इसमें कोई शक नहीं कि इसके बाद दूसरों का नंबर आएगा। ईसाई, दलित और कम्युनिस्ट सभी आरएसएस के दुश्मन हैं।

विदेशी न्यायाधिकरण और डिटेंशन केंद्र जो पहले ही हिंदुस्तान भर में बनने शुरू हो गए हैं, हो सकता है कि वह करोड़ों मुसलमानों के लिए काफी न हों लेकिन इनका मकसद हमें यह बताना है कि भारतीय मुसलमानों की असली जगह कहां है। जब तक कि वे विरासत के दस्तावेज पेश नहीं कर देते। केवल हिंदुओं को ही इस देश का असली धरतीपुत्र माना जाता है जिन्हें दस्तावेजों की जरूरत नहीं है। जब 450 साल पुरानी बाबरी मस्जिद के पास लीगेसी पेपर नहीं थे तो गरीब किसान या फेरी वाले के पास क्या होंगे? 

इसी दुष्टता की वाहवाही ह्यूस्टन स्टेडियम में जमा 60 हजार लोग कर रहे थे। इसी धूर्तता के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति ने मोदी के साथ सहयोग का हाथ मिलाया था। इसी दुष्टता के साथ इजराइल साझेदारी करना चाहता है, और जर्मनी के लोग व्यापार, फ्रांस अपने लड़ाकू जहाज बेचना चाहता है और सऊदी अरब पैसा लगाना चाहता है।

यह भी मुमकिन है कि हिंदुस्तान भर में की जाने वाली एनआरसी की पूरी प्रक्रिया को, हमारे डेटा बैंक और आंखों की पुतलियों के स्कैन सहित, निजी कंपनियों को दे दिया जाए। इससे पैदा होने वाले रोजगार के अवसर और लाभ से हमारे मरते हुए अर्थतंत्र में शायद जान पड़ जाए। डिटेंशन केंद्रों के निर्माण का ठेका सिमंस, वेयर और आईजी फ़ार्बेन सरीखी भारतीय कंपनियों को मिल सकता है। यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि वे कंपनियां कौन सी होंगी। अगर हम लोग ज़िक्लोन-बी (गैस चेम्बरों के) चरण तक न भी पहुंचें, तो भी बहुत सारा पैसा तो बनाया ही जा सकता है। 

बस हम उम्मीद कर सकते हैं कि जल्द ही हिंदुस्तान की सड़कें ऐसे लोगों से पट जाएंगी जिनको यह एहसास होगा कि अगर वे अभी कुछ नहीं करेंगे तो उनका अंत करीब है।

अगर ऐसा नहीं होता तो इन शब्दों को ऐसे इंसान की ओर से अंत की आहटें समझ लिया जाए जो इस दौर की गवाह रही हैं।

(लेखिका अरुंधति रॉय के लेख की तीसरी और आखिरी किस्त।)

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