राइट टु हेल्थ मौलिक अधिकार, सरकार सस्ते इलाज की व्यवस्था करे: सुप्रीम कोर्ट

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उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को ऐतिहासिक टिप्पणी करते हुए स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बताया। भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वास्थ्य का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। स्वास्थ्य के अधिकार में सस्ता उपचार शामिल है, इसलिए, यह राज्य का कर्तव्य है कि वह सस्ते उपचार और राज्य और/ या स्थानीय प्रशासन द्वारा चलाए जा रहे अस्पतालों में अधिक से अधिक प्रावधान करे। जो लोग कोरोना से बच रहे हैं वो आर्थिक तौर पर खत्म हो रहे हैं। इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय ने केंद्र और सभी राज्य सरकारों को सख्ती से कोरोना गाइडलाइंस का पालन करने का निर्देश दिया और कोरोना अस्पतालों के फायर सेफ्टी को भी सुनिश्चित करने को कहा।

जस्टिस अशोक भूषण, आर सुभाष रेड्डी और एमआर शाह की पीठ ने कहा कि देशभर के राज्य और केंद्र शासित प्रदेश कोविड गाइडलाइंस का सख्ती से पालन करें। पीठ ने सरकारों को सभी कोरोना अस्पतालों के फायर सेफ्टी को सुनिश्चित करने को कहा। हाल ही में गुजरात के एक कोरोना अस्पताल में आग लगने से मरीजों की मौत को पीठ ने गंभीरता से लिया था। पीठ ने कहा कि जो अस्पताल अभी तक फायर एनओसी नहीं ले पाए हैं, वे तत्काल ले लें। अगर चार हफ्तों के भीतर फायर एनओसी नहीं लेते हैं तो राज्य सरकार उनके खिलाफ एक्शन ले। पीठ ने फायर सेफ्टी के लिए हर राज्य को एक नोडल ऑफिसर नियुक्त करने को कहा है, जो अस्पताल में फायर सेफ्टी का ऑडिट करेगा।

पीठ ने कहा कि दिशा निर्देशों और मानक संचालन प्रक्रियाओं (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर) के लागू नहीं होने से कोविड-19 महामारी ‘जंगल की आग’ की तरह फैल गई है। पीठ ने कहा कि अभूतपूर्व महामारी के कारण दुनिया भर में हर कोई किसी न किसी तरीके से प्रभावित हो रहा है। यह कोविड-19 के खिलाफ विश्व युद्ध है। पीठ  ने यह भी कहा कि कर्फ्यू या लॉकडाउन लागू किए जाने के किसी भी फैसले की घोषणा पहले से की जानी चाहिए, ताकि लोग अपनी आजीविका के लिए व्यवस्था कर सके।

पीठ ने कहा कि लगातार आठ महीने से काम कर रहे अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्यकर्मी थक गए हैं, उन्हें आराम देने के लिए किसी व्यवस्था की जरूरत है। साथ ही राज्यों को सतर्कतापूर्वक कार्रवाई करनी चाहिए और केंद्र के साथ सौहार्दपूर्ण तरीके से मिलकर काम करना चाहिए, नागरिकों की सुरक्षा और स्वास्थ्य पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

पीठ ने खुद ही कोरोना के इलाज और शवों के साथ सम्मानजनक व्यवहार का मसला उठाया था। पीठ ने कहा कि इस बात में कोई शक नहीं हो सकता है कि न जाने किस वजह से इलाज महंगा होता जा रहा है और अब इसका खर्च आम आदमी नहीं उठा पा रहा है। अगर कोई कोरोना से बच जा रहा है तो कई बार आर्थिक रूप से खत्म हो जा रहा है, इसलिए राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन को ज्यादा से ज्यादा प्रावधान करने होंगे या फिर निजी अस्पतालों द्वारा लिए जाने वाले शुल्क की अधिकतम सीमा निर्धारित की जाए। आपदा प्रबंधन कानून के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों से ऐसा किया जा सकता है।

पीठ ने कहा कि राज्य सरकारें और स्थानीय प्रशासन निजी अस्पतालों द्वारा चार्ज की जा रही फीस की सीमा तय करे। इसे डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत किया जा सकता है। जब भी डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत ये निर्देश दिए जाएं कि कॉरपोरेट अस्पताल और निजी अस्पतालों को 50 फीसद बिस्तर या ऐसा कोई भी परसेंटेज फ्री रखना होगा तो इसका पालन सख्ती से किया जाए।

पीठ ने कहा कि अधिक से अधिक जांच और सही तथ्यों और आंकड़ों को घोषित करना होगा। पीठ ने कहा कि कोरोना पॉजिटिव व्यक्तियों के आंकड़ों और जांच की संख्या घोषित करने में पारदर्शी होना चाहिए। अन्यथा, लोग गुमराह होंगे और उन्हें यह आभास होगा कि सब कुछ ठीक है और वे लापरवाह हो जाएंगे।

उच्चतम न्यायालय के इस फैसले से स्पष्ट है कि न्यूनतम दरों पर अच्छा इलाज प्राप्त करना भारत के नागरिक का मौलिक अधिकार है और सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है। दरअसल स्वास्थ्य सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं है और आर्थिक उदारीकरण के बाद लगातार स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र को सौंपने की बेशर्म कोशिशें की जाती रहीं हैं। देश भर में सरकारी अस्पताल बदतर हालत में पहुंचते जा रहे हैं। आधुनिक चिकित्सा की जांच मशीनें निजी क्लिनिकों पर मंहगे दामों पर उपलब्ध हैं और सरकारी अस्पताल इससे वंचित हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

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