आज के दमघोटू, डर और नफ़रत से भरे राजनीतिक वातावरण में कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में भारी भीड़ के जोश और उत्साह के जो अभूतपूर्व नज़ारे दिखाई दे रहे हैं वे सारी दुनिया के सामने फासीवाद के खिलाफ एक व्यापक अहिंसक जन-संघर्ष का एक नायाब उदाहरण पेश करते हुए दिखाई पड़ते हैं।
राजनीतिक संघर्षों के पारंपरिक पश्चिमी अनुभवों के आधार पर जो यह आम धारणा है कि फासीवाद को सिर्फ़ आंतरिक संघर्षों के बल पर पराजित करना मुश्किल है, यह यात्रा उसकी अजेयता के इस मिथ को तोड़ती हुई प्रतीत होती है । मोदी-शाह की कुचक्री जोड़ी के आतंक को सड़कों पर चुनौती दी जा रही है। यह नफ़रत, हिंसा और षड्यंत्रों के पैशाचिक बल के विरुध्द जनता के तमाम वर्गों में मौजूद प्रेम, सद्भाव और सहजता पर टिके जनतंत्र की अकूत शक्ति को सड़कों पर उतारने का भारत का वही आज़माया हुआ रास्ता है जिसका प्रयोग यहाँ आज़ादी की लड़ाई में दुनिया की सबसे ताकतवर औपनिवेशिक शक्ति के विरुद्ध सफलता के साथ किया जा चुका है ।
भारत की जो राजनीतिक शक्तियाँ आरएसएस-भाजपा के सांप्रदायिक फासीवाद को समझते हुए इसके विरुध्द एकजुट संघर्ष को ही आज के काल का अपना प्राथमिक कर्तव्य मानती हैं, उनकी इसके प्रति नकारात्मकता अपने ही घोषित राजनीतिक लक्ष्य का विरोध और उससे दूरी बनाने जैसा होगा। इसकी उन्हें निश्चित तौर पर दूरगामी राजनीतिक क़ीमत भी चुकानी पड़ेगी। उनके लिए ज़रूरी है कि वे इस यात्रा के प्रति संघर्ष और एकता के एक सकारात्मक आलोचनात्मक दृष्टिकोण को अपनाएं और इसकी सफलता में अपना भी यथासंभव योगदान करें।
इसमें कोई शक नहीं है कि इस यात्रा का नेतृत्व कांग्रेस दल, अर्थात् संसदीय राजनीति का एक प्रतिद्वंद्वी दल कर रहा है। सीमित अर्थ में, यह उसकी खुद की स्थिति को सुधारने की जैसे एक अंतिम कोशिश भी है। लेकिन परिस्थितियों के चलते इस यात्रा के उद्देश्यों का वास्तविक परिसर सीमित दलीय दायरे से बहुत परे, यहाँ तक कि संसदीय राजनीति की सीमा से भी बहुत बाहर, पूरे देश के अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई तक फैल चुका है। यह समय इस मुग़ालते में रहने का नहीं है कि सांप्रदायिक फासीवाद को महज़ संसदीय राजनीति की सीमाओं में, चुनावी जोड़-तोड़ की राजनीति से पराजित किया जा सकता है।
कांग्रेस की इस यात्रा के प्रभाव से ही विचित्र ढंग से यह साफ निकल कर आ रहा है कि भारत में जनतंत्र, संविधान और देश की एकता और अखंडता की रक्षा के सवाल किस हद तक कांग्रेस दल के अस्तित्व और उसकी शक्ति के सवाल के साथ जुड़े हुए हैं। उलट कर कहें तो, फासीवाद की सफलता कांग्रेस की विफलताओं के अनुपात से ही जुड़ी हुई है। यह कुछ वैसा ही है जैसे कहा जाता है—समाजवाद नहीं तो फासीवाद!
भारत में वामपंथी ताक़तों के कमजोर होने का देश जो क़ीमत चुका रहा है, उसे कोई भी समझ सकता है। यह समाजवाद के पराभव से सारी दुनिया के स्तर पर चुकाई जा रही क़ीमत की तरह ही है। इसने मेहनतकश जनता के सभी हिस्सों की संघर्ष और सौदेबाज़ी की शक्ति को कमजोर किया है। जिस पश्चिम बंगाल को हम कभी जनतंत्र की रक्षा के संघर्ष की एक अग्रिम चौकी के रूप में देखते थे, उस पर आज भाजपा से अवैध संबंध रखने वाली के तृणमूल कांग्रेस की जकड़बंदी बनी हुई है।
इसी प्रकार अन्य प्रदेशों की क्षेत्रीय शक्तियाँ भी फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के मामले में इतनी स्वच्छ नहीं है कि उनके ज़रिये भारत की जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष आत्मा पूरी तरह से प्रतिबिंबित हो सके ।
ऐसे में कांग्रेस ही अकेला ऐसा मंच रह गया है जिससे फासीवाद-विरोध की लड़ाई का रास्ता निर्णायक रूप में तय होना है । अर्थात्, कांग्रेस ही आज जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई की अंतिम चौकी है । उसकी शक्ति और गोलबंदी ही फासीवाद-विरोधी संघर्ष का भविष्य तय करेगी ।
इसीलिए ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कांग्रेस को मज़बूत करने के साथ ही जनतंत्र मात्र को बचाने की भी यात्रा है । यह प्रकृत अर्थ में भारत में जनतंत्र के लिए संघर्ष के एक ‘लाँग मार्च’ का प्रारंभ है । दुनिया के इतिहास की सबसे लंबी, 3570 किलोमीटर की शांतिपूर्ण, एक व्यापक जन-आलोड़न पैदा करने वाली पैदल यात्रा ।
जब तक इस यात्रा के महत्व को इस रूप में आत्मसात् नहीं किया जाता है, हमारा मानना है कि इसके प्रति कोई सही दृष्टिकोण विकसित नहीं किया जा सकता है । संकीर्ण जोड़-तोड़ के राजनीतिक स्वार्थों के मानदंडों पर इसका आकलन तमाम आकलनकर्ता के ही उथलेपन और क्षुद्रता के अलावा और किसी चीज़ का परिचय नहीं देगा ।
इस यात्रा को अभी सिर्फ़ 12 दिन हुए हैं । अभी यह तमिलनाडु के बाद दूसरे राज्य केरला से गुजर रही है । इसका तीसरा राज्य होगा — कर्नाटक । कर्नाटक में चंद महीनों बाद ही चुनाव होने वाले हैं और कांग्रेस दल उस चुनाव में जीत का एक प्रमुख दावेदार दल है । केरला में दिखाई दिए आलोड़न से ही यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कर्नाटक में इस यात्रा का क्या स्वरूप होगा । इसमें निस्संदेह राज्य से बीजेपी के शासन को तिनकों की तरह बहा ले जाने वाली बाढ़ की प्रबल शक्ति के लक्षण दिखाई देंगे। और, कहना न होगा, वहीं से इस यात्रा का आगे का स्वरूप स्पष्ट होता जाएगा ।
आगे यह यात्रा आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र होते हुए जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, उसी बीच गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव हो जायेंगे । यात्रा की गूंज अनिवार्य रूप से उन चुनावों में भी सुनाई देगी, जो इसके आगे के पथ के स्वरूप को तय करेगी । इसी बीच कांग्रेस दल पूरब और मध्य के राज्यों में भी ऐसी कई यात्राओं के कार्यक्रम की घोषणा करने वाला है ।
इस प्रकार, इस ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से लेकर कांग्रेस की अन्य सभी यात्राओं के बीच से सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ एक सर्वतोमुखी जनतांत्रिक संघर्ष का जो एक नक़्शा उभरता हुआ दिखाई देता है, वह इसे दुनिया में फासीवाद के खिलाफ जनता की लड़ाई के एक नायाब प्रयोग का रूप दे सकता है । इसके प्रति कोई भी जनतंत्रप्रेमी धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति और शक्ति उदासीन नहीं रह सकते हैं ।
(अरुण माहेश्वरी लेखक और चिंतक हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)